जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट पद की व्याख्या
जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट।
पांव न चालै पंथ दूहेलो; आडा औघट घाट।
नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।
मैं भोली भोलापण कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
जोगिया कूं जोवत बोहो दिन बीत्या, अजहूं आयो नाहिं।
बिरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन माहिं।
कै तो जोगी जग में नाहीं, केर बिसारी मोइ।
कांइ करूं कित जाऊंरी सजनी नैण गुमायो रोइ।
आरति तेरा अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।
मीरा व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि॥
प्रसंग
जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट पद राजस्थान की चिर परिचित कृष्ण भक्त कवयित्री मीरांबाई द्वारा रचित एक अत्यंत लोकप्रिय पद है।
संदर्भ
इस पद में श्री कृष्ण के दर्शनों के लिए विरहिणी मीरां की व्याकुलता का चित्रण अत्यंत मार्मिकता के साथ किया गया है।
व्याख्या
अपने प्रियतम श्री कृष्ण के प्रेम में मीरां आकंठ डूब चुकी हैं। वह रात-दिन अपने प्रिय श्रीकृष्ण की राह निहारती रहती हैं। उन्हें टकटकी लगाकर कृष्ण का पथ निहारने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। उनके पांव किसी और राह की तरफ बढ़ नहीं सकते। प्रेम का मार्ग बहुत कठिन है। इस आड़े टेढ़े रास्ते पर चलना बहुत कठिन है। नगर (मथुरा नगरी) में जाकर ऐसा लगता है उनके प्रिय का मन वहीं का होकर रह गया है। परंतु मीरां के मन से तो उनकी प्रीति नहीं निकलेगी।
मीरां स्वयं को ही दोष देते हुए कहती हैं कि उन्होंने भोलापन दिखाया जो कृष्ण का मन अपने में रमा कर उन्हें शेष आकर्षणों से विरत नहीं रख सकी। रोज ही वे अपने जोगी की प्रतीक्षा करती हैं और रोज ही वह नहीं आते हैं। आज का दिन भी उनकी प्रतीक्षा में ही व्यतीत हो गया, वे तो नहीं आए। मीरां के हृदय की विरहाग्नि उन्हें तपा रही है। वह अपने जोगी (कृष्ण) से अपने दर्शन देकर उन्हें इस अग्नि से मुक्त करने की गुहार लगाती हैं। उन्हें यह भी आशंका है कि या तो उनके प्रभु इस संसार में विलीन हो चुके हैं या फिर उन्हें विस्मृत कर चुके हैं। अन्यथा वे मीरां का हाल ज़रूर लेते।
वे नहीं समझ पा रही हैं कि वे कहां जाएं, क्या करें। रो-रो कर उन्होंने अपनी आंखें भी गंवा दी हैं (अधिक रोन से उन्हें कम दिखाई देने लगा है)। मीरां का अंतर (हृदय) उनके विरह में आर्त (दुखी) है। अब मीरां को अपना मानकर श्रीकृष्ण को उन्हें दर्शन देने चाहिए। मीरां कहती हैं कि प्रभु के दर्शनों के लिए व्याकुल विरहिणी मीरा के प्राण तड़प रहे हैं। शीघ्र ही भगवान श्री कृष्ण को मीरां के दर्शनों की अभिलाषा पूरी कर उन्हें शांति देनी चाहिए।
विशेष
1. प्रेमा भक्ति और दांपत्य भाव की भक्ति इस पद में चित्रित है।
2.मीरां अपनी अनन्य कृष्ण भक्ति के लिए जगत प्रसिद्ध हैं, यह पद भी उनकी भक्ति की गहनता को दर्शाता है।
3.उपालंभ (वियोग शृंगार) की उद्भावना हुई है।
4.अंत्यानुप्रास अलंकार है।
5.शैली मार्मिक है।
6.गेय मुक्तक पद है।
7.वैदर्भी रीति और प्रसाद गुण है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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