सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं

सिद्ध साहित्य की विशेषताएं

सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएंसिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं

 

हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी साहित्य को मुख्य रूप से चार कालों में विभाजित किया गया है- आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल। आदिकाल की कालावधि में अनेक प्रकार की काव्य धाराएं समानांतर रूप से प्रवाहित हो रही थीं। इन काव्य धाराओं में सिद्ध साहित्य का अपना एक अत्यंत विशिष्ट महत्त्व है।

सिद्ध साहित्य भारतीय साहित्य परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो 8वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के बीच लिखा गया था। सिद्ध साहित्य प्रमुख रूप से बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से निकला हुआ माना जाता है। इस साहित्य के प्रणेता सिद्ध सरहपा माने जाते हैं, जिनके कई अन्य नाम हैं- सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र या राहुलवज्र। हिंदी भाषा एवं साहित्य के महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि माना है। इनका काल उन्होंने 769 ईस्वी निर्धारित किया। दोहाकोश इनकी प्रसिद्ध रचना है।

सिद्ध साधकों की कुल संख्या चौरासी मानी गई है, जिनमें अस्सी पुरुष साधक और चार स्त्री साधिकाएं हैं।

प्रमुख सिद्ध साधक – सरहपा, सबरापा, डोमिबप्पा, कुकुरप्पा, लुइया, तातिपा इत्यादि।” पा” सिद्धों में सम्मानसूचक शब्द है, जो इन सभी के नाम के साथ लगाया हुआ है।

स्त्री साधिकाएं- कनखलापा, लक्ष्मीकरा, मणिभद्रा और मेखलापा।

सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्न बिंदुओं के माध्यम से रेखांकित की जा सकती हैं..

 

1.साधना की वाममार्गी अथवा तांत्रिक पद्धति

सिद्ध साधक साधना पद्धति के रूप में वामाचार अथवा तंत्र विद्या पर बल देते थे। इस उपासना पद्धति में मदिरापान, युग्नद्ध अवस्था में स्त्री संसर्ग और शव के समक्ष श्मशान भूमि में विशिष्ट प्रकार की साधना का विधान किया जाता था। कहने का मतलब है कि सिद्ध साधक आचरण की शुद्धता के बजाय अपनी उपासना पद्धति पर बल देते थे।

 

2.जात पाँत का तीव्र विरोध

इन सिद्ध साधकों ने ब्राह्मणवाद, श्रेष्ठताबोध एवं छुआछूत का अपने काव्य में तीखा विरोध किया है। ये कवि मानते थे कि वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद शोषण के माध्यम है। मनुष्य किसी भी आधार पर दूसरे मनुष्य से कमतर नहीं है। शबरपा ने एक शबर कन्या (अछूत मानी जाने वाली जाति की लड़की) को परंपरा के विपरीत नायिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए रचा है-

“ऊँचा-ऊँचा पाबत तहिं बसइ सबरी बाली

मोरंगि-पिच्छ परिहिण शबरी गीवत गुंजरि-माली।”

 

3.स्त्री समानता के पोषक

सिद्ध साधना पद्धति में कुछ वैचारिक परिष्कृति इस अर्थ में भी मिलती है कि सिद्धों में स्त्रियों को किसी भी रूप में कमतर नहीं माना जाता था। संपूर्ण सिद्ध साहित्य में स्त्रियों के संबंध में कोई एक भी असम्मानजनक अथवा विद्वेषपूर्ण पद दिखाई नहीं देता।

 

4.साधना पद्धति में स्त्रियों की समकक्ष भूमिका

सिद्धों ने न सिर्फ़ स्त्रियों के प्रति बराबरी का रवैया रखा बल्कि ये अपनी साधना स्त्रियों के बिना अपूर्ण मानते थे स्त्रियों के साथ साधकों की युग्नद अवस्था इसी साधना पद्धति में देखी जाती है।

 

5.चिंतनशील और कुंठा रहित आचरण

सिद्धों में इहलोक एवं परलोक को लेकर पर्याप्त परिपक्व चिंतन दिखाई देता है। उनकी आध्यात्मिक चेतना इन्हें मृत्यु के बाद नहीं मृत्यु के पूर्व जीने की प्रेरणा देती है। मरने के बाद की कल्पना इन लोगों ने नहीं की। अकुंठ जीने की लालसा इन के जीवन का मूल आधार था।माया मोह और लोभ से परे ये अपनी वर्तमान अवस्था को सुख से जीते थे। सिद्ध-साधकों ने गृहस्थ जीवन के बड़े रमणीक और मनोरम चित्रों को प्रस्तुत किया है। जो उनकी सहज वाणी से स्वतः मुखरित होकर प्रेम से पूर्ण है-

‘तिअड्डा चापि जोइनि दे अंकवाली

कमल-कुलिश घोटि करहु विआली।’

 

‘विवाह-पद्धति’ का वर्णन करते हुये काण्हप्पा ‘वर-यात्रा’ के शुभ वर्णन को बताते हैं तो तत्कालीन विवाह व्यवस्था की ओर संकेत मिलता है। ये सारे चित्रण सिद्ध साहित्य को नाथ साहित्य से अलग करते हैं।

 

6.संध्या भाषा में काव्य रचना

सिद्धों ने जिस भाषा में काव्य रचा उसे संधा या संध्या भाषा कहा जाता है। प्रसिद्ध विद्वान हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की भाषा को प्रकाशन- अंधकार की भाषा कहा है। मूल रूप में यह कोई पृथक भाषा नहीं है, वरन् हिंदी का प्रारंभिक रूप है। बस सिद्ध-साधकों ने अपनी रचनाओं में इसका प्रयोग इस तरह से किया कि कहीं तो यह एकदम से अपना निहितार्थ प्रकट कर देती है तो कहीं गूढार्थ ढूंढने की आवश्यकता होती है। नाथ साहित्य और बाद में कबीर के काव्य में भी इस भाषा को देखा जा सकता है।

 

7.उलट बांसियां और रहस्यवाद

सिद्ध साहित्य में उलटबांसी और अटपटी बानियों को लिखने का खूब चलन देखा गया है। उनकी इस विशेषता का प्रभाव कबीर के काव्य में बहुत अधिक दिखाई देता है उनकी उलट बांसियां सिद्धों से प्रभावित हैं। सिद्ध तातिपा की अटपटी बानी का एक उदाहरण द्रष्टव्य है..

 

“वेग संसार बाइहिल जाअ।

दुहिल दूध कि बेटे समाअ।

बलद बियाएल गविआ बांझे।

पिटा दुहिए इतना सांझे।

जो सो बुझी सो पनि बुधी।

जो सो चोर सोई साथी।

निले जिते पिआला धम जूझअ

ढेढ़े पाएर गीत बिरले बूझआ। “

 

8.भाषा ,शैली और छंद विधान

सिद्धों की भाषा के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत दिये हैं। कुछ विद्वानों ने इनकी भाषा को संध्या-भाषा’ कहा है और इसका अर्थ ‘धूप-छॉहीं’ शैली से लिया है। पं. विधुशेखर शास्त्री ने ‘सन्धा’ शब्द का अर्थ ‘अभिप्राय-युक्त-भाषा’ से किया है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री ने ‘बौद्ध-गान-ओ-दोहा’ के मुखबंध पर इसे ‘संधा-भाषा’ कहा है और इसका अर्थ ‘आलोक व अंधकार’ की भाषा से लिया है। पं. राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों की भाषा को ‘पुरानी-हिन्दी’ के नाम से विभूषित किया है। आर्य वल्लभ महन्ती ने ‘पुरानी-उड़िया’ के रूप में सिद्धों की भाषा को स्वीकार किया है।सिद्धों की भाषा प्रतीकात्मक रूप में स्पष्ट होती है। उनकी रचनाओं में भाषा का रहस्यात्मक रूप उभर कर आया है जो ‘संधा-भाषा’ के अर्थ को उद्घाटित करने में समर्थ है। आम जन के लिए लिखा जाने वाला यह काव्य तत्कालीन जन की भाषा में ही रचा गया प्रतीत होता है।

 

शैली के संदर्भ में सिद्धों का काव्य ‘गीत’ व ‘मुक्तक’ रूप में देखने को मिलता है। विषय वस्तु की दृष्टि से गीत भाव प्रधान है। सिद्धो के चर्यापद गीति काव्य के अर्न्तगत आते है तथा ‘मुक्तक’ नीति प्रधान है जो दोहा रूप में दृष्टिगोचर हुए हैं।

 

सिद्धों की रचनाओं में दोहा, उल्लाला, महानुभाव, अडिल्ला, पादाकुलक जैसे छन्द देखने को मिलते है। इन पदों में गेय तत्त्व की प्रधानता द्रष्टव्य है इसीलिए उनके पदों के साथ राग का नाम भी देखने को मिलता है। उस समय के प्रचलित रागों में भैरवी, कामोद, धनसी, शबरी, देशाख इत्यादि रागों के उदाहरण देखने को मिलते हैं।

 

सिद्धों की भाषा की सार्थकता उनकी साधना-पद्धति में प्रयुक्त हुये उपमानों से भी प्रतीत होती हैं। इनकी भाषा अपनी प्रतीकात्मकता को ग्रहण किये हुये है, जो आज भी साहित्य में अपने महत्व को बनाये रखने में सक्षम है।इन कवियों के लेखन में ही सर्वप्रथम रहस्यवाद का स्वर चिन्हित किया जा सकता है जो कालांतर में भक्ति काव्य और छायावाद में आया है। एक असीम सत्ता के प्रति लगाव और जिज्ञासा रहस्यवाद के अंतर्गत आता है।

सरहपा का एक उदाहरण,

नाद न बिंदु न रवि न ससि मंडल

चिजराअ सहावे मूकल।

हाय रे कांकाण मा लोउ दापण

अपणे अपा बुझतु निअन्मण।

इस प्रकार स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि सिद्ध साहित्य में तांत्रिक साधना पद्धति अपनाई गयी। इस साहित्य में जीवन के व्यावहारिक पक्ष को महत्त्व देते हुए इहलौकिक सुखों को नकारा नहीं गया। कुछ बहुत ध्यान दिये जाने लायक सकारात्मक पक्षों को सिद्ध साहित्य में देखा जा सकता है। साधना मार्ग में स्त्रियों को बाधा न समझना, उन्हें भी साध्वी की पदवी मिलना, कर्मकांडों एवं ब्राह्मणवाद का विरोध इस साहित्य की खासियत है। आठवीं से तेरहवीं सदी तक अपभ्रंश मिश्रित हिंदी में लिखा जाने वाला यह काव्य आने वाले संत काव्य की पूर्वपीठिका बना।

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विद्यापति के काव्य की प्रमुख विशेषताएं 

विद्यापति के काव्य

विद्यापति के काव्य की प्रमुख विशेषताएं

 

विद्यापति मध्यकालीन भारतीय साहित्य के एक प्रसिद्ध कवि थे। वैसे विद्यापति आदिकाल और भक्ति काल दोनों के ही कवि माने जाते हैं। इनका जन्म 1352 ईस्वी में बिहार में मधुबनी जिले के बिसापी नामक गांव में हुआ था। इनकी मृत्यु 1448 ईस्वी में बिसापी गांव जिसे अब विद्यापति नगर कहते हैं में हुई। विद्यापति न सिर्फ़ मैथिली भाषा के अच्छे ज्ञाता थे, बल्कि संस्कृत भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। इन्होंने राधा और कृष्ण के शृंगारिक पद गेय मुक्तक शैली में रचे, जो आज भी ‘विद्यापति पदावली’ के नाम से मिथिलांचल में गाए और गुनगुनाए जाते हैं।

मूल रूप से विद्यापति शैव (शिव के उपासक) थे लेकिन उन्होंने गंगा-यमुना स्तुति एवं दुर्गा के स्तोत्र भी लिखे। बहुत सारे समीक्षक इन्हें भक्त कवि मानते हैं, परंतु ‘पदावली’ जैसी अतिशय शृंगारिक रचना को देखते हुए इन्हें वसंत एवं प्रणय का कवि कहना अधिक उचित है। मैथिली भाषा के यह श्रेष्ठतम कवि माने जाते हैं और इन्हें ‘मैथिल कोकिल’ के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा उनकी कविताओं की भाषा की मिठास को देखते हुए कहा जाता है।

 

विद्यापति के काव्य में मुख्यतः अधोलिखित विशेषताएं देखी जा सकती हैं..

 

1.भक्ति और शृंगार का मिश्रण

जैसा कि पूर्व में भी उल्लिखित है, विद्यापति ने न सिर्फ़ शृंगार के उत्कृष्ट पद रचे वरन भाव विभोर करने वाले भक्तिपूर्ण पदों की भी रचना की। एक तरफ प्रेमी हृदय जहां विद्यापति के प्रेमासिक्त पदों को भावुकमना होकर सुनते हैं तो वहीं दूसरी तरफ उनके द्वारा रचित शैव सर्वस्वसार, गंगा-स्तुति इत्यादि अद्यतन भक्तों के बीच श्रद्धा के साथ गाई जाती है।

 

2.लौकिक और अलौकिक प्रेम

सूफीब कवियों के इश्क़ मजाजी से होते हुए इश्क़ हक़ीक़ी के सफ़र की मानिंद विद्यापति भी अपनी रचनाओं में व्यक्त प्रेम वर्णन करने वाले पदों के माध्यम से पाठकों को इहलौकिक प्रेम से पारलौकिक प्रेम तक की यात्रा करवाते हैं। उनके प्रेम काव्य के नायक-नायिका साधारण लैंगिक आकर्षण से होते हुए असाधारण ईश्वरीय प्रेम तक ले जाते हैं। ‘पदावली’ के ही राधा-कृष्ण कभी साधारण नायक नायिका की प्रतीति करते हैं तो कभी देवी देवता के।

 

3.राधा कृष्ण की भागवत लीला का चित्रण

सूर के काव्य से भी पहले विद्यापति की ‘पदावली’ में राधा और कृष्ण के उदात्त प्रेम, रति विलास, साज-शृंगार और रूठने-मनाने की लीलाओं का अत्यंत आकर्षक (परंतु कहीं-कहीं अश्लील एवं भद्दा) चित्रण हुआ है।

 

4. मैथिली भाषा की सोंधी खुशबू

विद्यापति के काव्य में यूं तो मैथिली के अलावा अवहट्ट और संस्कृत भाषा में भी प्रचुर प्रमाण में लिखा गया है, परंतु मैथिली भाषा में रचित पदावली की सरसता और जीवंतता के कारण इन्हें ‘मैथिल कोकिल’ के सम्मान से नवाजा जाता है। उनकी ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ अवहट्ट में रचित है और बहुत प्रसिद्ध है। ‘शैव सर्वस्वसार’, ‘भू परिक्रमा’ और ‘पुरुष परीक्षा’ इनके संस्कृत ज्ञान का परिचय देते हैं।

 

5. भक्ति, वीर और शृंगार रसों का समन्वय

विद्यापति के लेखन में पर्याप्त विविधता है। ‘शैव सर्वस्वसार’, ‘गंगा वाक्यावली’, दुर्गा और सीता आदि की स्तुतियां इनकी सरस भक्तिपूर्ण रचनाएं हैं। ‘कीर्ति लता’, ‘कीर्ति पताका’ और ‘पुरुष परीक्षा’ इत्यादि कृतियों में विद्यापति का शृंगार एवं भक्ति से इतर लेखक रूप दिखाई देता है। अपने आश्रय दाता राजाओं राजा कीर्ति सिंह और शिव सिंह की प्रशंसा में इन्होंने ओज गुण काव्य रचे, फिर भी निर्विवाद रूप से विद्यापति एक घोर शृंगारी कवि के रूप में जाने जाते हैं।

 

6. अलंकारों का सुगढ़ प्रयोग करने में निपुण

विद्यापति के काव्य में शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का प्रयोग अत्यंत सुरुचिपूर्ण रीति से हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा,अन्योक्ति, रूपक और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों के अत्यंत कलात्मक प्रयोग से विद्यापति ने अपने पाठकों को अचंभित किया है।अन्योक्ति का एक उदाहरण-

मालति सफल जीवन तोर।

तोर विरहे भुवन भए मेल मधुकर भोर।

जातकि केतकि कत न अछए सबहिं रस समान।

सपनहुँ नहिं ताहि निहारए मधु कि करत पान॥

वन उपवन कुंज कुटीरहि सबहिं तोहि निरूप।

तोहि बिनु पुनु-पुनु मुरुछुएं अहसन प्रेम ।

 

7. प्रकृति चित्रण

प्रकृति हमारे जीवन की सबसे बड़ी और सबसे ज़रूरी सहचरी है। अन्य कवियों ने जहाँ इसके उद्दीपन रूप तक सीमित रहे हैं वहीं विद्यापति ने आलम्बन रूप में प्रकृति की मनोरम झाँकी अंकित करते हुए अनेक स्थानों पर अचंभित किया है। कवि ने ‘वसंत’ का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है, जो अपने आप में अनूठा है।’वसंत’ वर्णन के अन्तर्गत कवि ने ऋतुराज के जन्म से लेकर उसकी राज्य-प्राप्ति तक का उल्लेख बड़ी ही सजीवता एवं कुशलता के साथ किया है।

माघ मास सिरि पंचमी गंजाइलि नवम मास पंचम हरूआई।

सुभ खन बेरा सुकुल पक्ष हे दिनकर उदित समाई।।

 

8.रस एवं नखशिख वर्णन

यों तो वीर रस और भक्ति रस भी विद्यापति के काव्य में अच्छी तरह से आये हैं ,देव स्तुतियाँ और स्तोत्रों का भी प्रचुर भंडार है कवि के यहाँ परंतु कवि का मन सर्वाधिक शृंगार रस में रमा हैं। उसमें भी संयोग अथवा संभोग शृंगार रस वर्णन में कवि अनुपमेय हैं। नख शिख वर्णन की आदिकाल की परिपाटी का पूरे मन से कवि ने न सिर्फ अनुगमन किया वरन आने वाले शृंगारी कवियों को राह दिखाई। कदाचित थोड़ा कम लिखते तो औरों के लिए कुछ मार्ग शेष रहता!

उदाहरण

1. प्रथमहि अलक तिलक लेव साजि। चंचल लोचल काजर आंजि।।

जाएव वसन आँग लेब गोए। दूरहि रहब तें अरथित होए।।

मेरि बोलब सखि रहब लताए। कुटिल नयन देव मदन जगाए।।

झाँपब कुच दरसाओब आध। खन खन सुदृढ़ करब निवि बाँध ।।

मान करब किछु दरसब भाव। रस राखव तें पुन-पुन आव।।

हमकि सिखाओबि अओ रस रंग। अपनहि गुरु भए कहत अनंग।।

 

2 .सुरते सिंगारि आज धनि आयेलि परसत थर-थर काँप।

सुनु हे कान्हु कहिम अवधारि।

सकल काज हम बुझल बुझाएल न गन बुझल अन्तर नारि।

अन्तर जीउ अधिक करि मानए बाहर र गन तरासे ।

कह कवि सेखर सहज विषय रत विदगधि केलि-विलासे ।।

 

इन पदों के द्वारा पता चलता है कि पद में राधा कृष्ण के तो केवल नाम लिये गये हैं, हैं ये कामोद्दीप्त साधारण नायक नायिका! भक्त कवि अपने आराध्य देव युगल को जो “ ज्ञान” कदापि नहीं दे सकते, वह ज्ञान विद्यापति ने अपने पदों में भरपूर दिया है। यह और बात है कि सरसता और सजीवता में कहीं कमी नहीं आने पाई है।

 

इस प्रकार से स्पष्ट है कि विद्यापति भक्त नहीं, अपितु घोर शृंगारी कवि हैं। इनके राधा और कृष्ण के प्रेम-सम्बन्धी पदों में सर्वत्र भौतिक एवं वासनामय प्रेम की ही प्रधानता है। आराध्य के प्रति एक भक्त का जो सात्विक एवं पवित्र भाव होना चाहिए, वह विद्यापति में लेशमात्र भी नहीं है। सख्यभाव से जो उपासना की गई है, उसमें कृष्ण तो यौवन में उन्मत्त नायक की भाँति हैं और राधा यौवन की मदिरा में मतवाली एक मुग्धा नायिका की भाँति।

राधा का प्रेम-भौतिक और वासनामय प्रेम है। आनन्द ही उद्देश्य है और सौन्दर्य ही उसका कार्य-कलाप। राधा, जो कि उनकी आराध्य देवी है,के यौनांगो का वर्णन कवि ने एक प्रकार से वात्स्यायन की नज़र से किया है,जो कहीं कहीं अश्लीलता की हद तक पहुँच गया है। कवि के अनुसार यौवन ही से जीवन का विकास है।प्रेम ही में मुक्ति है। अंग्रेजी कवि बायरन के समान विद्यापति का भी यही सिद्धान्त है कि ‘यौवन के दिन ही गौरव के दिन हैं।’

इनके वय-सन्धि, नखशिख, सद्यः स्नाता, प्रेम-प्रसंग, दूती, नोंकझोंक, सखी-शिक्षा, मिलन, सखी-सम्भाषण, कौतुक, अभिसार, छलना, मान, मान-भंग, विदग्ध-विलास, बसंत, विरह, भावोल्लास आदि से सम्बन्धित समस्त पदों में भौतिक प्रेम एवं कामवासना का ही प्राधान्य है, कहीं भी जीवात्मा एवं परमात्मा के मिलन एवं विरह की ओर ध्यान नहीं जाता और न कहीं तनिक भी भक्ति-भावना की ही सुगन्ध आती है।

ये सभी पद शृंगार-रस से आप्लावित हैं, इनमें वासना की बेगवती सरिता प्रवाहित हो रही है और इनमें आत्मा एवं परमात्मा के आध्यात्मिक जगत की अपेक्षा विलास-वासना एवं कामुकता के भौतिक जगत का ही चित्रण है, जिसमें कहीं कामी नायक लुक-छिपकर कामिनी नायिका के अंग-सौन्दर्य को देख-देखकर उन्मत्त हो रहा है, कहीं उसके साथ काम-क्रीड़ाएँ कर रहा है और कहीं कामिनी नायिका अपने प्रिय के विरह में तड़प रही है, अपने यौवन को कोस रही है, कामाग्नि में जल रही है तथा प्रिय से मिलने के लिए आतुर होकर मदन के तीक्ष्ण बाण का शिकार हो रही है।

इस प्रकार इन सम्पूर्ण पदों में श्रृंगार का ही प्राधान्य है भक्ति का नहीं, वासनात्मक प्रेम का ही बाहुल्य है, आध्यात्मिक प्रेम का नहीं, और कामोद्दीपक भावों का ही प्राचुर्य है, साधन सम्बन्धी भावों का नहीं। अतएव विद्यापति के अधिकांश पदों में रहस्यवाद के दर्शन करना व्यर्थ है, सख्य-भाव की उपासना को ढूँढ़ना मिथ्या है और जीवात्मा-परमात्मा के सम्बन्ध की स्थापना करना कोरी खींचतान है।

इनमें तो मानव की मूल भावना-काम का सांगोपांग चित्र अंकित किया गया है और इनका सम्बन्ध लौकिक जगत् से है, परलौकिक से नहीं; क्योंकि इनमें जीवन के भौतिक आनन्द का उज्ज्वल रूप अंकित है। बहरहाल मैथिली, अवहट्ठ और बांग्ला भाषा के मिश्रण से पगा इनका काव्य मिठास के लिए जाना जाता है और वही उनका उपजीव्य भी था।

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

विद्यापति: लघूत्तरात्मक प्रश्न

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