सखी मेरी नींद नसानी हो पद की व्याख्या

सखी मेरी नींद नसानी हो पद की व्याख्या

 

 

सखी मेरी नींद नसानी हो।

पिव के पंथ निहारत सिगरी रैन विहानी हो॥

सब सखियन मिल सीख दई, मैं एक न मानी हो।

बिन देखे कल नहीं परत, जिया ऐसी ठानी हो॥

अंग छीन व्याकुल भई, मुख पिवपिव बानी हो।

अंतर् वेदन विरह की वह पीर न जानी हो॥

ज्यों चातक घन को रटै, मछरी जिमि पानी हो।

मीरां व्याकुल विरहणी सुध बुध बिसरानी हो॥

 

प्रसंग

सखी मेरी नींद नसानी हो पद राजस्थान की ख्यातिलब्ध भक्त कवयित्री मीरांबाई द्वारा रचित है। पाठ्यक्रम में यह पद मीरां पदावली से लिया गया है, जिसका संपादन शंभू सिंह मनोहर ने किया है।

 

सन्दर्भ

इस पद में मीरां श्रीकृष्ण की भक्ति में अपनी नींद गंवाने और सखियों की सीख को न मानने की बात बता रही हैं।

 

व्याख्या

मीरां अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहती हैं कि उनकी नींद खो गई है। उन्होंने सारी रात (सुबह होने तक) अपने प्रिय श्रीकृष्ण की राह तकते हुए बिताई है। इनकी सखियों ने उन्हें तरह-तरह से इस प्रेम से दूर रहने को समझाया परंतु उन्होंने किसी की भी बात नहीं मानी।

मीरां के हृदय को श्रीकृष्ण के दर्शन के बिना चैन नहीं मिलेगा। उनके हृदय ने तो एकदम से ज़िद ठान ली है। मीरा का अंग -प्रत्यंग प्रिय के दर्शन की प्यास में व्याकुल है और मुख से सिर्फ प्रियतम श्रीकृष्ण का नाम ही निकल रहा है।

मीरां भीतर ही भीतर विरह की वेदना से संतप्त है लेकिन किसी को उनकी इस पीड़ा का भान नहीं है। जैसे चातक पक्षी बादलों को टेरता है, जैसे मछली पानी के लिए तड़पती है, उसी प्रकार मीरां भी विरह में व्याकुल है और अपनी सुध बुध बिसरा चुकी हैं।

 

विशेष

1.मीरां की अनन्य भक्ति दर्शाने वाला यह पद बताता है कि निकटतम मित्र हमें कष्टों से, पीड़ा से बचाने की कोशिश करते हैं।

2.पद यह भी बताता है कि जब ईश्वर भक्ति का प्रगाढ़ असर होता है तो मनुष्य किसी की भी नहीं सुनता है।

3.श्रीकृष्ण को मीरां का प्रिय बताना दांपत्य भाव की भक्ति दर्शाता है परंतु उनके लिए मीरां का सुध बुध खोना और होठों से प्रभु का नाम जप होते रहना दास्य भाव की भक्ति की ओर इंगित करता है।

4. महादेवी वर्मा की कविता क्या पूजा क्या अर्चन रे (प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे) का स्मरण भी इस पद से होता है।

5.वियोग श्रृंगार और भक्ति रस की संयुक्त परिणति हुई है।

6.उदाहरण, छेकानुप्रास (पिव को पंथ) और अंत्यानुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है।

7.गेय मुक्तक पद है।

8.माधुर्य गुण और वैदर्भी रीति है।

9.राजस्थानी भाषा का सौंदर्य उल्लेखनीय है।

10.शैली मार्मिक है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

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जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट पद की व्याख्या

जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट पद की व्याख्या

 

जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट।

पांव न चालै पंथ दूहेलो; आडा औघट घाट।

नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।

मैं भोली भोलापण कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।

जोगिया कूं जोवत बोहो दिन बीत्या, अजहूं आयो नाहिं।

बिरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन माहिं।

कै तो जोगी जग में नाहीं, केर बिसारी मोइ।

कांइ करूं कित जाऊंरी सजनी नैण गुमायो रोइ।

आरति तेरा अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।

मीरा व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि॥

 

प्रसंग

जोगिया जी निस दिन जोऊँ बाट पद राजस्थान की चिर परिचित कृष्ण भक्त कवयित्री मीरांबाई द्वारा रचित एक अत्यंत लोकप्रिय पद है।

 

संदर्भ

इस पद में श्री कृष्ण के दर्शनों के लिए विरहिणी मीरां की व्याकुलता का चित्रण अत्यंत मार्मिकता के साथ किया गया है।

 

व्याख्या

अपने प्रियतम श्री कृष्ण के प्रेम में मीरां आकंठ डूब चुकी हैं। वह रात-दिन अपने प्रिय श्रीकृष्ण की राह निहारती रहती हैं। उन्हें टकटकी लगाकर कृष्ण का पथ निहारने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। उनके पांव किसी और राह की तरफ बढ़ नहीं सकते। प्रेम का मार्ग बहुत कठिन है। इस आड़े टेढ़े रास्ते पर चलना बहुत कठिन है। नगर (मथुरा नगरी) में जाकर ऐसा लगता है उनके प्रिय का मन वहीं का होकर रह गया है। परंतु मीरां के मन से तो उनकी प्रीति नहीं निकलेगी।

मीरां स्वयं को ही दोष देते हुए कहती हैं कि उन्होंने भोलापन दिखाया जो कृष्ण का मन अपने में रमा कर उन्हें शेष आकर्षणों से विरत नहीं रख सकी। रोज ही वे अपने जोगी की प्रतीक्षा करती हैं और रोज ही वह नहीं आते हैं। आज का दिन भी उनकी प्रतीक्षा में ही व्यतीत हो गया, वे तो नहीं आए। मीरां के हृदय की विरहाग्नि उन्हें तपा रही है। वह अपने जोगी (कृष्ण) से अपने दर्शन देकर उन्हें इस अग्नि से मुक्त करने की गुहार लगाती हैं। उन्हें यह भी आशंका है कि या तो उनके प्रभु इस संसार में विलीन हो चुके हैं या फिर उन्हें विस्मृत कर चुके हैं। अन्यथा वे मीरां का हाल ज़रूर लेते।

वे नहीं समझ पा रही हैं कि वे कहां जाएं, क्या करें। रो-रो कर उन्होंने अपनी आंखें भी गंवा दी हैं (अधिक रोन से उन्हें कम दिखाई देने लगा है)। मीरां का अंतर (हृदय) उनके विरह में आर्त (दुखी) है। अब मीरां को अपना मानकर श्रीकृष्ण को उन्हें दर्शन देने चाहिए। मीरां कहती हैं कि प्रभु के दर्शनों के लिए व्याकुल विरहिणी मीरा के प्राण तड़प रहे हैं। शीघ्र ही भगवान श्री कृष्ण को मीरां के दर्शनों की अभिलाषा पूरी कर उन्हें शांति देनी चाहिए।

 

विशेष

1. प्रेमा भक्ति और दांपत्य भाव की भक्ति इस पद में चित्रित है।

2.मीरां अपनी अनन्य कृष्ण भक्ति के लिए जगत प्रसिद्ध हैं, यह पद भी उनकी भक्ति की गहनता को दर्शाता है।

3.उपालंभ (वियोग शृंगार) की उद्भावना हुई है।

4.अंत्यानुप्रास अलंकार है।

5.शैली मार्मिक है।

6.गेय मुक्तक पद है।

7.वैदर्भी रीति और प्रसाद गुण है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

इस तरह मीरा के एक अन्य पद मीरा मगन भई हरि के गुण गाय पद की व्याख्या हेतु नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें..

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