Artificial rain: कृत्रिम वर्षा
हमारा देश विविधता से भरा हुआ है। जिस तरह से यहां लोगों की संस्कृति रहन-सहन वेशभूषा खान-पान में विविधता पाई जाती है इसी तरह यहां की जलवायु और पारिस्थितिकी में आश्चर्यजनक अंतर मिलते हैं। एक तरफ उत्तर भारत में लेह-लद्दाख जैसे स्थान हैं जो वर्ष भर बर्फ से ढके रहते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान में जैसलमेर जैसे रेगिस्तान हैं। लेकिन कुछ आवश्यकताएं मूलभूत होती हैं उनमें से एक है-जल।
‘जल ही जीवन है’ का स्लोगन तो हम सभी सुनते आ रहे हैं। यह मनुष्य समेत सभी जीवों और वनस्पतियों के लिए समान रूप से लागू होता है। यहां तक कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए भी जल एक महत्वपूर्ण कारक है। परंतु हम आए दिन यह देखते हैं कि कुछ इलाकों में तो इतनी बारिश हो रही कि लोग बाढ़ से परेशान हैं और कहीं-कहीं सूखे की वजह से जन जीवन बेहाल है।
मनुष्य अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार नई-नई तकनीकें और खोज विकसित कर रहा है, इनमें से एक है- Artificial rain। इसे तकनीकी भाषा में क्लाउड सीडिंग (cloud seeding) भी कहा जाता है।
परिचय-
Artificial rain उस प्रक्रिया को कहा जाता है जब रसायनों की सहायता से बादलों को कृत्रिम तरीके से अनुकूल बनाकर मन चाहे स्थान पर आवश्यकतानुसार वर्षा करवाई जाती है। Artificial rain का अविष्कार 13 सितंबर 1946 को अमेरिकन रसायनज्ञ और मौसम विज्ञानी विंसेंट जोसेफ शेफर ने किया था।
यह बाथर्स्ट (अमेरिका) के जनरल इलेक्ट्रिक लैब में रिसर्च कर रहे थे जब इन्होंने क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी की खोज की। इसका व्यवस्थित तरीके से परीक्षण 1947 से 1960 के बीच ऑस्ट्रेलिया के ‘राष्ट्रमंडल वैज्ञानिक व अनुसंधान संगठन’ ने किया। तब से लेकर वर्तमान समय तक विभिन्न देशों द्वारा समय-समय पर इस पर नए रिसर्च और प्रयोग किये जा रहे हैं।
Artificial rain इसे समझने के लिए सबसे पहले बारिश की प्रक्रिया को समझना होगा। सागर, महासागरों और नदियों का जल गर्मी की वजह से भाप बनकर ऊपर उठता है और बादल का रूप धारण कर लेता है। वायुमंडल में ऊपर जाने पर तापमान की कमी से ये बादल ठंडे होकर बूंदों के रूप में संघनित हो जाते हैं।
इस प्रकार गुरुत्वाकर्षण के कारण जल पुनः धरती पर गिरने लगता है तब वर्षा होती है। अर्थात गर्म हवा जब कम ताप और उच्च दाब वाले वायुमंडल में पहुंचती है तब बारिश होती है। Artificial rain के लिए वायुमंडल में कुछ रसायनों की सहायता से ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जिससे बारिश होती है।
प्रक्रिया-
Artificial rain में cloud seeding की प्रक्रिया को तीन आसान चरणों में विभाजित किया जा सकता है जिसका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-
1. सबसे पहले निर्धारित स्थान पर हवा का तापमान बढ़ा कर उसे उच्च दाब वाले वायुमंडल में भेजा जाता है। इसके लिए कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, अमोनियम नाइट्रेट, यूरिया और नमक का इस्तेमाल किया जाता है।
2. इस चरण में बादलों का घनत्व यानी डेंसिटी को बढ़ाया जाता है। इसके लिए अमोनियम नाइट्रेट, कैल्शियम क्लोराइड, यूरिया, नमक और ड्राई आइस का इस्तेमाल होता है।
3. क्लाउड सीडिंग के अंतिम चरण में सिल्वर आयोडाइड व शुष्क बर्फ विमान, बैलून या मिसाइल में भरकर बादलों के ऊपर डाला जाता है। जिससे बादलों का घनत्व बढ़ जाता है और पानी के कण बर्फ के क्रिस्टल में बदल जाते हैं और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से धरती पर वर्षा की बूंदों के रूप में गिरने लगते हैं।
क्लाउड सीडिंग आवश्यकता और उपलब्धता के आधार पर कई तरीकों से किया जाता है। जिसमें से सबसे लोकप्रिय तरीका है- ड्रोन क्लाउड सीडिंग।
Drone cloud seeding में बैटरी से संचालित होने वाले ड्रोन के माध्यम से बिजली का इस्तेमाल करके बादलों को अवशोषित कर बारिश करवाई जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में 30 मिनट का समय लगता है।
Aircraft cloud seeding इसमें विमान के द्वारा बारिश करवाई जाती है। इसमें ज्यादातर डॉप्लर रडार के माध्यम से पहले ही उपस्थित बादलों की खोज कर ली जाती है। जिससे क्लाउड सीडिंग के पहले के दो चरणों की जरूरत नहीं पड़ती। सीधे विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो जनरेटर रखकर विमान को हवा की विपरीत दिशा में ले जाकर बादलों के ऊपर छोड़ दिया जाता है। इस तरह संगठित होकर बारिश का जल निर्धारित स्थान पर गिरने लगता है।
Missile cloud seeding मिसाइल से क्लाउड सीडिंग का तरीका भी लगभग वैसा ही है जैसा विमानों से। मिसाइल से क्लाउड सीडिंग करने पर सफलता दर 80% ज्यादा होती है इसके अलावा यह विमान की अपेक्षा में सस्ता भी पड़ता है।
Artificial rain और भारत की स्थिति-
भारत में क्लाउड सीडिंग की शुरुआत 1951 में हुई जब भारत के मौसम विभाग के महानिदेशक एसके चटर्जी के दिशा निर्देशन में इस पर परीक्षण किया गया। इसमें हाइड्रोजन के गुब्बारे में सिल्वर आयोडाइड और नमक भरकर वायुमंडल में छोड़ा गया था। इस तरह कृत्रिम वर्षा करवाई गई थी।
1951 में ही टाटा फर्म ने वेस्टर्न घाट पर इसका प्रयोग किया था। इसके साथ ही 1951 में ही ‘रेन एंड क्लाउड सीडिंग इंस्टीट्यूट’ ने लखनऊ (उत्तर प्रदेश) और महाराष्ट्र के कई स्थानों पर क्लाउड सीडिंग की थी। कृषि के लिए आर्टिफिशियल रेन का अनुप्रयोग 1983,84, 87, 93 और 94 में तमिलनाडु के कई क्षेत्रों में किया गया। 2003-4 में कर्नाटक की वर्षाधारी परियोजना भी इसका एक उदाहरण है।
इसके अलावा तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में भी आर्टिफिशियल रेन के परीक्षण किए गए कानपुर आईआईटी में इस पर काफी शोध कार्य भी हुए। अभी 2018 में देश की राजधानी दिल्ली में गर्मी और प्रदूषण को देखते हुए artificial rain की पूरी तैयारी कर ली गई थी परंतु मौसम अनुकूल न होने की वजह से इसे रद्द करना पड़ा। हालांकि यह सारे अनुप्रयोग आंशिक तौर पर ही सफल रहे।
Artificial rain की आवश्यकता और फ़ायदे-
मानवीय हस्तक्षेप के कारण अप्रत्याशित रूप से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। मौसम संबंधी आकस्मिक घटनाएं जगह-जगह पर देखी जा रही हैं। सर्दी, गर्मी, बरसात का वार्षिक चक्र बदल रहा है। साथ ही अंधाधुंध भौतिक विकास के चक्कर में इंसान प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा कर रहा है। फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, चक्रवात, तूफान आदि संबंधी घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है।
ऐसे में कहीं कृषि वाले इलाके में जहां पानी चाहिए वहां बारिश नहीं हो रही वहीं महानगरी इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे बड़े पैमाने पर जनजीवन अस्त व्यस्त होता है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि की वजह से इंसानों के रहने खाने आदि आवश्यकताओं के चलते बड़े पैमाने पर प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में हस्तक्षेप किया जा रहा है।
बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से प्रदूषण के स्तर में साल दर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसे में फसल को सूखे से बचाने के लिए, गर्मी से राहत पाने के लिए, सूखाग्रस्त इलाकों में पानी की कमी को दूर करने और वायु प्रदूषण के स्तर को अस्थाई रूप से कम करने के लिए Artificial rain का प्रयोग किया जा सकता है।
Artificial rain से जुड़ी चुनौतियां-
हालांकि विज्ञान के अन्य अविष्कारों की तरह इसके भी फायदे और नुकसान दोनों हैं। आर्टिफिशियल रेन पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप करता है जिसकी वजह से जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसमें किए जा रहे केमिकल्स जैसे सिल्वर आयोडाइड का प्रयोग अधिक मात्रा में करने से महासागरों की अम्लता बढ़ने का ख़तरा है, जिससे महासागरीय पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है।
साथ ही क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए ज़िम्मेदार है साथ ही ओजोन क्षरण का एक बड़ा कारक है। सिल्वर आयोडाइड जैसे केमिकल जीवों वनस्पतियों के साथ ही मृदा को भी हानि पहुंचाते हैं इसलिए बड़े स्तर पर और निरंतर इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके अलावा आर्टिफिशियल रेन की प्रक्रिया काफी महंगी है जो कि विकसित देशों के लिए तो लाभदायक हो सकती है परंतु विकासशील या पिछड़े देशों के लिए यह तकनीक उतनी उपयोगी नहीं है।
संभावनाएं-
कृत्रिम वर्षा को अगर सही तरीके से प्रबंधित किया जाए तो इसके काफी सारे फ़ायदे हैं। सबसे पहले तो सूखाग्रस्त इलाकों में पानी की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। इसके अलावा प्रदूषण, कोहरे की वजह से हुई धुंध (जिसकी वजह से दुर्घटनाओं की दर बढ़ जाती है) को कम करने में भी आर्टिफिशियल रेन मदद कर सकती है।
महत्वपूर्ण आयोजनों जैसे राष्ट्रमंडल, ओलंपिक, क्रिकेट टूर्नामेंट्स आदि में बारिश की वजह से व्यवधान न उत्पन्न हो इसके लिए वहां के बादलों को किसी अन्य स्थान पर क्लाउड सीडिंग के माध्यम से ले जाकर बारिश करवाई जा सकती है। इस प्रकार सही प्रबंधन के साथ आकस्मिक परिस्थितियों में ही इसका इस्तेमाल करना तर्कसंगत होगा। साथ ही इस पर और रिसर्च किए जाने की जरूरत है जिससे इसके साइड इफेक्ट्स और लागत कम हो तथा मानवता की भलाई के लिए Artificial rain का प्रयोग किया जा सके।
इसी तरह अगर आप कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी Artificial intelligence के बारे में जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो कृपया नीचे दिये गये पोस्ट की लिंक पर क्लिक करें..
©प्रीति खरवार
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