हमारे हरि हारिल की लकरी पद की व्याख्या
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ़ करि पकरी॥
जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अति! ज्यों करुई ककरी॥
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी॥
प्रसंग
हमारे हरि हारिल की लकरी पद कृष्णभक्ति शाखा के अन्यतम कवि एवं भक्त शिरोमणि सूरदास जी द्वारा रचित है। सूरदास जी के अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ सूरसागर के “भ्रमरगीत” प्रसंग में से प्रस्तुत पद पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है, जिसका संपादन “भ्रमरगीत सार” नाम से सुप्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया है।
संदर्भ
उद्धव के द्वारा गोपियों को योग करने की सलाह देने एवं गोपियों के रोचक प्रत्युत्तर का वर्णन सूर के इस पद में किया गया है।
व्याख्या
जब उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म की उपासना के लिए योग एवं ज्ञान का सहारा लेने की सलाह देते हैं तो गोपियां उनकी सलाह से हैरान परेशान हो जाती हैं। हैरानी के साथ उनमें झुंझलाहट एवं तार्किक बुद्धि भी जगती है।
गोपियां उद्धव से कहती हैं कि उनके कृष्ण उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी है। हारिल जैसे हमेशा अपने पंजों में लकड़ी का टुकड़ा दबाए रखता है और उस पर टिकने के सहारे निर्भय होकर उड़ता रहता है। गोपियां भी उसी तरह अपने हरि (कृष्ण) के भरोसे जी रही हैं।
उन्होंने मन, वचन और कर्म से कृष्ण नाम की लकड़ी दृढ़तापूर्वक अपने हृदय में संभाल रखी है। गोपियां जागते-सोते और सपने में भी “कन्हैया” नाम की रट लगाए रहती हैं। योग का नाम सुनते ही उनका मन इस प्रकार से कसैला हो जाता है जैसे कि उन्होंने कड़वी ककड़ी खा ली हो। गोपियां उद्धव से कहती है कि यह योग नाम की ऐसी बीमारी है जिसका नाम उन्होंने कभी न देखा न सुना और न किया था।
सूरदास जी लिखते हैं कि गोपियां उद्धव को योग करने का यह ज्ञान उन लोगों को देने के लिए कहती हैं जिनका मन चकरघिन्नी है अर्थात जो स्वभाव से चंचल हैं। अर्थात उनको इसकी कहाँ जरूरत, वे तो कृष्ण के साथ एकनिष्ठ होकर बंधी है।
विशेष
1.सूर के इस पद में गोपियों का कृष्ण के प्रति अगाध विश्वास व्यक्त हुआ है।
2.गोपियां तो मन, वचन से कृष्ण के प्रति समर्पित हैं इसलिए उनका मन दृढ़ है। उनको योग की आवश्यकता नहीं है वरन अनेक आकर्षणों में फंसे लोगों को उद्धव योग का उपदेश दें, ऐसा कहना गोपियों की तार्किक बुद्धि को दर्शाता है।
3.ब्रजभाषा का सौंदर्य दर्शनीय है।
4.उपमा, अनुप्रास एवं अंत्यानुप्रास अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।
5.भक्ति एवं शांत रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।
6.शैली मनोवैज्ञानिक एवं मार्मिक है।
© डॉ. संजू सदानीरा
काह कहूं सजनी संग की रजनी नित बीते मुकुन्द को हेरी पद की व्याख्या के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें..
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