रसखान की कृष्ण भक्ति

रसखान की कृष्ण भक्ति

 

रसखान की कृष्ण भक्ति एवं काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालें ।

अथवा

अथवा रसखान के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक लेख लिखें।

अष्ठछाप के कृष्ण भक्त कवियों एवं अन्य फुटकल कवियों की तुलना में रसखान की कृष्ण भक्ति में ऐसी अद्वितीयता है कि वो इन सभी से अलग भी नज़र आते हैं एवं विशिष्ट भी। रसखान कृष्ण भक्त कवियों में एकदम निराले कवि हैं। वर्णन विषय समान होते हुए भी वर्णन शैली में रोचकता, नवीनता और चित्रात्मकता की उनकी अपनी अनूठी विशेषता थी। इस प्रकार रसखान की कृष्ण भक्ति अप्रतिम है।

रसखान का वास्तविक नाम सैयद इब्राहिम खान था। कृष्ण भक्ति में रचे इनके दोहों की अनुपम सरसता के कारण उनके पदों को ‘रस की खान’ कहते थे। फिर धीरे-धीरे इनका नाम ही रसखान पड़ गया। सवैया इनका प्रिय छंद था। सवैया लिखने का ढंग भी इनका इतना मनोहारी और रस से संयुक्त होता था कि लोग एक सवैया सुनाने की जगह ‘एक रसखान सुनाओ’ तक कहने लगे थे। इनकी ऐसी प्रशंसा अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी की है। देख सकते हैं कि सरसता के अतिरिक्त रसखान की कृष्ण भक्ति में भाव प्रवणता और सौंदर्य भी विद्यमान है।

इनका जन्म सन 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ बताया जाता है । आजकल इनकी जन्म तिथि 1548 में निश्चित कर दी गई है। इतिहासकारों के अनुसार इनका जन्म काबुल (अफगानिस्तान) में हुआ था । इनकी मृत्यु वृंदावन में 1628 ईस्वी में हुई थी।

रचनाएं- रसखान रत्नावली, सुजान रसखान और प्रेम वाटिका ।

इनके बारे में लोक मान्यता है कि अपने लड़कपन में ये एक लड़के पर आसक्त थे। एक दिन कोई दुकानदार अपने किसी ग्राहक से बात कर रहे थे, रसखान ने उस दुकानदार को कहते सुना कि ईश्वर से अनुराग लगाओ तो ऐसे जैसे रसखान उस लड़के के प्रति आसक्त एवं अनुरक्त है। यह सुनकर रसखान अत्यंत शर्मिंदा हुए और ईश्वर भक्ति की ओर प्रवृत्त हो गए।

एक दूसरे प्रसंग में कहते हैं कि यह जिस लड़की पर आसक्त थे वह अत्यंत गर्वीली थी और इनका बात बेबात अनादर किया करती थी। एक दिन रसखान श्रीमद्भागवत का फारसी भाषा में अनुवाद पढ़ रहे थे। इसमें स्थान स्थान पर गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति के प्रसंग आ रहे थे। उन्हें पढ़कर इनके मन में आया कि क्यों न अपना मन उस भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान एवं भक्ति में लगाया जाए जिनसे इतनी गोपियों को प्यार हो गया है।

ग़ौरतलब है कि श्रीकृष्ण राजा होकर भी गोपियों के साथ विनम्र एवं नत दिखाए गए हैं। गोपियों के एक इशारे पर नाच कर दिखाने वाले, बांसुरी बजाने वाले श्रीकृष्ण का यह रूप रसखान को निराला लगा।इसके बाद में वे वृंदावन चले गए। “प्रेम वाटिका” के इस दोहे को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है–

तोरि मानिनी तो हियो कोरि मोहिनी भान

प्रेम देव की छबि ही लखि भए मियां रसखान

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भी लिखा है कि इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि यह बड़े प्रेमासिक्त ( प्रेम भावनाओं से भरे हुए प्राणी) थे। इनका वही प्रेम भाव कालांतर में जीव से ईश्वर की ओर स्थानांतरित हो गया।

रसखान की कृष्ण भक्ति के प्रति इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह न केवल अपने प्रिय कृष्ण से अतिशय प्रेम करते थे वरन उनसे जुड़ी प्रत्येक वस्तु के प्रति भी उतने ही प्रेमिल थे। इन्होंने कामना की कि–

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।

पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥

ठीक उसी प्रकार रसखान को कृष्ण भक्ति की तन्मयता में उनकी लाठी और कंबल के समक्ष तीनों लोकों का त्याग कर देने की कामना है–

या लकुटी अरु कमरिया पर राज तिहुँ पुर को तजि डारौ।

आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौ॥

ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।

कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौ॥

इन्होंने गोपियों की सेवा में रत राधा जी के पैर दबाते हुए कृष्ण का चित्रण भी किया है। यानी उनके यहां भक्त ही सेवा नहीं करता बल्कि भगवान भी भक्त की सेवा करते हैं। उनके कृष्ण सरल, सुंदर, कुशल और केयरिंग हैं।

सखा भाव और प्रेमा भक्ति का अतुलनीय चित्रण रसखान के काव्य में हुआ है। रसखान अपने कृष्ण के दर्शन के लिए ऐसे व्याकुल रहते हैं जैसे मधु (शहद) के लिए मधुमक्खी। निम्न सवैया किस कदर सुंदर बन पड़ा है–

प्रेम पगे जु रँगे रँग साँवरे, माने मनाये न लालची नैना ।

धावत है उत ही जित मोहन रोके रुकै नहिं घूंघट ऐना ॥

कानन को कल नाहिं परै बिन प्रीति में भीजे सुने मृदु बैना ।

‘रसखान’ भई मधु की मखियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छुटेना ॥

उनके जीवन का एक ही ध्येय है-कृष्ण की भक्ति में आकंठ निमग्न हो जाना। इनकी गोपियां न केवल कृष्ण से प्यार करती हैं वरन् कृष्ण हो जाना चाहती हैं–

मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरे पहिरौंगी।

ओढि पितंबर लै लकुटी वन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥

भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।

या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

भक्ति भावना के साथ मैत्री, सामंजस्य, आत्मसमर्पण और द्वेष रहित लेखन के कारण इनके बारे में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था कि, ऐसे सामंजस्य से पूर्ण मुसलमान लेखक के सामने वह करोड़ों हिंदुओं को निछावर करते हैं। उनकी ब्रजभाषा अपनी सरसता में अलौकिक, सवैया रस पूर्ण और शैली मार्मिकता युक्त प्रेम से आपूरित थी। अपनी इसी अनूठी वाणी के कारण रसखान सदियों से लोक जीवन का अटूट हिस्सा बने हुए हैं।

कृष्ण भक्ति काव्य में मीरा और रसखान बिना किसी खास “सम्प्रदाय” से जुड़े भी जिस प्रकार से जनता के बीच स्थापित हुए और अद्यतन सुने जाते हैं,वह इनकी महत्ता का आप बखान करता है।

 

© डॉ. संजू सदानीरा

 

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