मौन निमंत्रण कविता की मूल संवेदना

 

मौन निमंत्रण कविता की मूल संवेदना

मौन निमंत्रण कविता छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित रहस्यवादी विशेषताएं लिए एक लोकप्रिय एवं आकर्षक कविता है।

 प्रस्तुत कविता के माध्यम से पंत ने विभिन्न प्राकृतिक वस्तुओं द्वारा किस प्रकार मानवीय क्रियाओं में व्यस्त मानव को आकर्षित, आनंदित व उत्साह से पूर्ण किया जाता है, बताया है।

 “प्रकृति के सुकुमार कवि” के नाम से याद किये जाने वाले कवि सुमित्रानंदन पंत मौन निमंत्रण कविता में लिखते हैं कि जब संपूर्ण संसार शांत अथवा स्तब्द चांदनी में सोया रहता है,जब संपूर्ण विश्व की पलकों पर अनजान स्वप्न विचरण करते हैं (अर्थात जब सारा जग निद्रा के आगोश में सिमटा रहता है), तब न जाने कौन नक्षत्र से उन्हें निमंत्रण दे रहा है।

घने बादल से घिरे व अंधकार से आविष्ट आकाश से वर्षा की तेज धार प्रवाहित हो रही है,हवाएं निर्बाध चल रही हैं। उस अंधकारमय समय में चमकती प्रचंड बिजली के बहाने कौन कवि को इशारे से बुलाता है।कवि कहना चाहते हैं कि काली अंधेरी रात में हो रही घनघोर मेघ गर्जना और और बिजली के साथ बरसती बारिश उन्हें सोने नहीं देती वरन् अपने आकर्षण में बांध लेती हैं।

बसंत के मौसम में जब धरा फूलों के बोझ से लदी होती है, कलियाँ प्रस्फुटित होकर अचंभित कर रही होती हैं, उजाड़ मौसम जब मुसकरा उठता है, जब फूलों की खुशबू के बहाने पता नहीं कौन कवि का ध्यान चुआ लेता है। अर्थात बसंत की सुहानी रूत में धरती के सौन्दर्य और विभिन्न प्रकार के फूलों की सुवास से कवि का मन प्रफुल्लित हो जाता है। 

 जब वायु ऊंची लहरों का मंथन कर बुलबुलों का क्षणिक संसार बना कर मिटाती रहती है, तब सागर की लहरों से हाथ उठाकर मौन रहकर कवि को कौन बुलाता है? यहाँ कवि समुद्र तट की लहरों के सौन्दर्य से अभिभूत जान पड़ते हैं। स्वर्ण विहान ( सुंदर सबेरा) होने पर पंछियों के कलरव से कवि की नींद खुलती है। अनमुंदी आंखें मानों किसी मधुर स्वर ध्वनि के सहारे स्वपन लोक से बाहर आती हैं। 

 गहरे अंधकार में जब संसार निद्रा में जा रहा होता है,तब सिर्फ आकुल झिंगुरों के स्वर ही निद्रा को बाधित करता है। तब नजाने कौन जुगनुओं से उनको मार्ग दिखाता है। कदाचित कवि जुगनुओं से बतियाते हैं, उन्हें निहारते हैं। 

सुनहरे सवेरे में कलियां रात्रि को भंवरों को अपने आंचल में छुपाए द्वार खोलती हैं,तब उसकी ढुलकती बूंदें कवि के नेत्रों को आकर्षित कर लेती हैं। जब कवि व्यस्ततम दिवस को सुंदरता से समाप्त कर थकान से भरपूर शैय्या पर जाते हैं,अपनी तंद्रा मिटाने की चेष्टा करते हैं, तब न जाने कौन अनजान उनके सपने में उन्हें जग में विचरण कराता है।

कवि संभवतः सजीले सपने देख कर विगत तंद्रा हो जाते हैं! अंतिम पद्यांश में कवि छायावादी प्रवृत्ति के अनुरूप रहस्यवादी भाव और अनिवर्चनीय सत्ता का उल्लेख कर उसके अमूल्य स्नेह के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। 

कवि अमूर्त,अदृश्य शक्ति को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे प्रकाशमय वो उन्हें अज्ञानी समझ कर उन्हें रास्ता दिखाते हैं,उनका मार्ग प्रशस्त करते हैं। रिक्त छिद्रों को संगीतमय कर देते हैं, नित्य प्रति कवि के मानस में नयी प्राणवायु फूंक देते हैं। वह ही उनके हर सुख-दुख के साथी हैं। हे अज्ञात शक्ति! मौन रहकर उनकी भावनाओं को जागृत कर मार्ग प्रशस्त कर उन्हें नित्य नया जीवन देने वाली उस सत्ता से कवि अनजान परंतु आभारी हैं।

 इस प्रकार पंत जी द्वारा रचित मौन निमंत्रण कविता छायावादी विशेषताओं से युक्त होने के कारण जहाँ रहस्य व जिज्ञासा के भाव से युक्त है,वहीं प्राकृतिक उपादानों के प्रति प्रेमासक्ति से परिपूर्ण है। प्रात: से सायं और अर्ध रात्रि पर्यन्त प्रकृति के नित नवीन और आकर्षण का अत्यंत हृदयग्राही चित्रण इस कविता में हुआ है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य की एक सहेजने योग्य रचना है। 

 

© डॉ. संजू सदानीरा

 

 

मौन निमंत्रण कविता / सुमित्रानंदन पंत

 

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार

चकित रहता शिशु सा नादान ,

विश्व के पलकों पर सुकुमार

विचरते हैं जब स्वप्न अजान,

           न जाने नक्षत्रों से कौन

           निमंत्रण देता मुझको मौन !

सघन मेघों का भीमाकाश

गरजता है जब तमसाकार,

दीर्घ भरता समीर निःश्वास,

प्रखर झरती जब पावस-धार ;

            न जाने ,तपक तड़ित में कौन

            मुझे इंगित करता तब मौन !

देख वसुधा का यौवन भार

गूंज उठता है जब मधुमास,

विधुर उर के-से मृदु उद्गार

कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,

               न जाने, सौरभ के मिस कौन

               संदेशा मुझे भेजता मौन !

क्षुब्ध जल शिखरों को जब वात

सिंधु में मथकर फेनाकार ,

बुलबुलों का व्याकुल संसार

बना,बिथुरा देती अज्ञात ,

               उठा तब लहरों से कर कौन

               न जाने, मुझे बुलाता कौन !

स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर

विश्व को देती है जब बोर

विहग कुल की कल-कंठ हिलोर

मिला देती भू नभ के छोर ;

              न जाने, अलस पलक-दल कौन

              खोल देता तब मेरे मौन !

तुमुल तम में जब एकाकार

ऊँघता एक साथ संसार ,

भीरु झींगुर-कुल की झंकार

कँपा देती निद्रा के तार

              न जाने, खद्योतों से कौन

              मुझे पथ दिखलाता तब मौन !

कनक छाया में जबकि सकल

खोलती कलिका उर के द्वार

सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल

तड़प, बन जाते हैं गुंजार;

             न जाने, ढुलक ओस में कौन

             खींच लेता मेरे दृग मौन !

बिछा कार्यों का गुरुतर भार

दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,

शून्य शय्या में श्रमित अपार,

जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;

            न जाने, मुझे स्वप्न में कौन

            फिराता छाया-जग में मौन !

न जाने कौन अये द्युतिमान !

जान मुझको अबोध, अज्ञान,

सुझाते हों तुम पथ अजान

फूँक देते छिद्रों में गान ;

            अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !

            नहीं कह सकता तुम हो कौन !

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