परिसर कविता की मूल संवेदना : Parisar kavita ki mool samvedna
परिसर कविता ऋतुराज की लेखनी से सृजित है। ऋतुराज का स्थान समकालीन कवियों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। एक मरणधर्मा और अन्य कविताएँ, अबेकस , पुल पानी में और लीला अरविंद इत्यादि इनके प्रमुख काव्य संकलन हैं।
परिसर कविता के माध्यम से कवि जंगली फूलों व लॉन के फूलों की तुलना करते हुए शोषक वर्ग की कृत्रिम सौंदर्यप्रियता पर कटाक्ष करते हैं। जिन लोगों का जीवन सहज,सरल व प्राकृतिक होता है,वह उनसे अधिक स्वतंत्र हैं,जिनका जीवन दूसरों के हवाले होता है। जिन फूलों का काटना-छांटना माली पर,खाद-पानी पर निर्भर हो,वह एक प्रकार की ग़ुलामी में जी रहा होता है।
कठिनाई का सामना करना पड़े तो सुविधाजीवी को बहुत कष्ट होगा। जबकि पूर्व में ही कठिनाइयों के साथ रहने वाले को नवीन कठिन परिस्थिति में सामंजस्य से बिठाने में परेशानी नहीं होगी। प्रकृति की गोद में पूर्णतः प्राकृतिक वातावरण में बिना कृत्रिम हस्तक्षेप के जीवन वास्तविक जीवन है,असली सौंदर्य है। आदिवासी जीवन को कवि ने प्रकृति से पूर्णतः निकट का जीवन माना है। नियंत्रित जीवन जीने वालों पर लॉन के फूलों के माध्यम से कवि ने तरस खाया है।
इस प्रकार परिसर कविता के माध्यम से कवि ने एक तरफ जहां स्वतंत्र व परतंत्र जीवन के बीच अंतर स्पष्ट किया है,वहीं दूसरी तरफ प्राकृतिक सौंदर्य को कृत्रिम से अधिक महत्त्व दिया है।कविता के माध्यम से प्रकारांतर से आत्मनिर्भरता और परनिर्भरता के बीच के फर्क को भी दिखाया गया है और “स्पून फीडिंग” के नुकसान भी दिखाये गये हैं। इस प्रकार यह एक अत्यंत सारगर्भित व प्रासंगिक रचना है।
© डॉ. संजू सदानीरा
मोचीराम कविता की मूल संवेदना : Mochiram kavita ki mool samvedna
परिसर
जंगली फूलों ने लॉन के फूलों से
पूछा, बताओ क्या दुःख है
क्यों सूखे जा रहे हो
दिन प्रतिदिन मरे जा रहे हो !! अगर है।
पीले, लाल, जामुनी, सफेद, नीले
पचरंगे फूल बड़ी शान से
बिना पानी सड़क के किनारे
सूखे में खिल रहे थे
हर आते-जाते से बतिया रहे थे
डरते नहीं थे सर्र से निकलते
साँप से
डोंगो के पतंगे को झपटने से
किंगफिशर की घोंसला बनाने की
तैयारी की चीख से
खुश थे कि शिरीष पर,
बुलबुलें एक दूसरे को खबरें सुना रही हैं
कि पीपल में ढेरों गोल लगे हैं
पूँछ-उठौनी पानी में डूबकी लगा रही हैं
मैनाएँ मुँह में तिनके दबाए
अकड़ कर चल रही हैं
जंगली फूल खुश थे
कि गुलदस्ते में नहीं लगाए जाएँगे
धूप के तमतमाने पर भी इतराएँगे
जबकि सुंदर से सुंदर भी
पिघलने कुम्हलाने से नहीं बचेगा
वे जीने का उत्सव मनाते रहेंगे
इसी तरह हँसेंगे
लॉन पर बैठे बौद्धिकों की बातों पर
बातों से अघाए फूलों पर
ताड़ के रुआँसे पत्तों पर
और उन गुलाबों पर जो इतनी जल्दी
खिलने से पहले बिखर गए
वे मोगरे जो रात में चुपचाप
धरती की सेज महका कर दिवंगत हो गए
वे फूल जो आजीवन प्यासे रहे
और मर गए
काश, जंगल में उगे होते
काश, वे आदिवासी की जिजीविषा में
हर दुःख, कष्ट, विपन्नता में
प्रस्फुटित हुए होते
वे जान पाते निर्बंध जीवन का उल्लास
मना पा
ते कारावास की दीवारों से
बाहर रंगोत्सव
काश! काश!!
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