यह दंतुरित मुस्कान कविता की व्याख्या
नागार्जुन प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। हिंदी के अलावा मैथिली भाषा में भी इन्होंने काव्य लिखा। मैथिली भाषा में रची काव्य कृति पत्रहीन नग्न गाछ पर इन्हें मैथिली का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। युग धारा, प्यासी पथराई आंखें, सतरंगी पंखों वाली, हजार हजार बाहों वाली और पुरानी जूतियों का कोरस इत्यादि इन की प्रसिद्ध काव्य रचनाएं हैं।
इनके पीडोफाइल होने की बात उनके मृत्योपरांत पता चली और फणीश्वरनाथ रेणु ने एक लेख से इनके फासीवादी झुकाव पर ध्यान दिलाया अन्यथा हिंदी के प्रखर कवियों में नागार्जुन का नाम अग्रणी है। प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं उनके काव्य में आद्योपांत दिखाई देती हैं।
यह दंतुरित मुस्कान नागार्जुन की एक बेहद सुंदर कविता है जिसमें वात्सल्य भाव का स्नेहिल चित्र खींचा गया है।
एक छोटा बालक जिसके मुख में दूध के दो-चार दांत दिखाई देने लगे हैं, उसकी मृदु मुस्कान को कवि ने कविता का आधार बनाते हुए पिता के प्रेमिल रूप को भी दर्शाया है।
कवि चित्रित करते हैं कि बालक की दूध के दो-चार दांतों से मिश्रित स्निग्ध मुस्कान ऐसी दिव्य है जो मृतप्राय को भी एक बार जीवन दान दे दे।
आंगन में घुटनों के बल चलने के कारण बच्चे के अंग और वस्त्र धूल में लिपटे हुए हैं। अपने आंगन, झोपड़ी और बच्चे के कुसुमवत सौंदर्य को देखकर कवि को ऐसा लगता है जैसे कमल का फूल सरोवर में न खिलकर उनकी झोपड़ी में खिला हो। यहां रात दिन परिश्रम करके थके और लोक व्यवहार से ऊबे हृदय पर बच्चे के स्पर्श का बहुत ही मनोवैज्ञानिक प्रभाव दर्शाया गया है।
कवि कहते हैं कि वे मानो बाँस-से सूखे अथवा बबूल-से कंटीले हो चुके थे परंतु शिशु की छुअन से ऐसे नरम हो गए जैसे शेफालिका के फूल हों। मन की विरक्ति शेफालिका के कोमल फूलों की तरह झरने लगी।
बच्चा पिता को पहचान नहीं पाया क्योंकि पिता बहुत दिनों बाद घर लौटे हैं। वह लगातार पिता को घूर रहा है। पिता पूछते हैं कि क्या बच्चा देखते-देखते थक गया है? क्या वे उसकी तरफ से आंखें हटा लें?
आगे कवि अपनी पत्नी को पुत्र के जन्म और प्रेम का श्रेय देते हुए कहते हैं कि पिता-पुत्र पहली बार मिल रहे हैं, अभी परिचित नहीं है परंतु मां माध्यम है। उन दोनों के मध्य मां के बिना (अपनी पत्नी के बिना) बच्चों की इस दंतुरित मुस्कान को देखने के सुख से वे वंचित रह जाते!
दोनों के अलौकिक रूप से निहाल कवि मां-बेटे दोनों को धन्य (कृतज्ञता युक्त शब्द) कहते हैं। कवि स्वयं तो प्रवासी हैं, कभी-कभी घर आना होता है-ऐसे में बच्चा क्यों उन्हें पहचाने! मां ही तो उसे प्रेम देती है और अपनी उंगलियों से भोजन का पोषण देती है, अतिथि पिता तो कुछ कर नहीं पाते हैं। वही दोनों के बीच परिचय का पुल निर्मित करती है।
बच्चा इस बीच फिर से कनखियों से पिता को देख लेता है एवं दोनों की आंखें मिल जाती हैं। मां की मध्यस्थता के कारण बच्चा डरता नहीं है बल्कि उसे फिर से हंसी आ जाती है और कवि उसकी दंतुरित मुस्कान से निहाल हो जाते हैं। बच्चे की मुस्कान अत्यंत प्रीतिकर और आकर्षक दर्शायी गई है।
इस प्रकार इस कविता के माध्यम से कवि ने प्रवासी पति-पिता, पत्नी-मां और उनके शिशु का सुंदर चित्रण किया है। कविता वात्सल्य रस से परिपूर्ण है और सादगीपूर्ण तरीके से एक पारिवारिक वातावरण का चित्र उपस्थित करने में सफल होती है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
यह दंतुरित मुसकान -नागार्जुन
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात…
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इन अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँ
खें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान।