चूरन अमल बेद का भारी गीत की व्याख्या/मूल संवेदना
चूरन अमल बेद का भारी।
जिस को खाते कृष्ण मुरारी॥
मेरा पाचक है पचलोना।
जिसको खाता श्याम सलोना॥
चूरन बना मसालेदार।
जिसमें खट्टे की बहार॥
मेरा चूरन जो कोइ खाय।
मुझको छोड़ कहीं नहिं जाय॥
हिन्दू चूरन इसका नाम।
विलायत पूरन इसका काम॥
चूरन जब से हिन्द में आया।
इसका धन बल सभी घटाया॥
चूरन ऐसा हट्टा कट्टा।
कीना दांत सभी का खट्टा॥
चूरन चला डाल की मंडी।
इसको खाएंगी सब रंडी॥
चूरन अमले सब जो खावैं।
दूनी रुशवत तुरत पचावैं॥
चूरन नाटकवाले खाते।
इसकी नकल पचा कर लाते॥
चूरन सभी महाजन खाते।
जिससे जमा हजम कर जाते॥
चूरन खाते लाला लोग।
जिनको अकिल अजीरन रोग॥
चूरन खावै एडिटर जात।
जिनके पेट पचै नहिं बात॥
चूरन साहेब लोग जो खाता।
साहा हिंद हजम कर जाता॥
चूरन पूलिसवाले खाते।
सब कानून हजम कर जाते॥
ले चूरन कर ढेर, बेचा टके सेर॥
यह गीत भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक अंधेर नगरी का एक अंश है। इस नाटक में गुरुजी का एक शिष्य गोवर्धनदास पश्चिम की तरफ भिक्षाटन के लिए जब जाता है तो वहां नगर का हाट-बाजार सजा है। प्रत्येक दुकानदार अपने-अपने सामान की दुकान लगाकर ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए तरह-तरह की आवाजें लगा रहा है। इसी क्रम में चूरन-पाचक वाली दुकान का दृश्य इस गीत में चित्रित हुआ है।
चूरन अमल (खाना पचाने के खट्टे चूर्ण) का बड़ा भारी शास्त्रोक्त विधान इस गीत में बताया गया है। इस पाचक का बड़ा भारी महत्त्व है। यह कोई ऐसा वैसा पाचक नहीं इसको भगवान श्रीकृष्ण तक खाते हैं। यह पाचक पचलोना है, हरड़, बरड़, आंवला जैसी पांच चीजों से मिलकर इसे बनाया जाता है, इसलिए सुंदर श्रीश्याम भी इसे ग्रहण करते हैं। यह चूर्ण पूरी तरह मसालेदार बनाया गया है जिसमें खटाई की मात्रा भरपूर रखी जाती है।
यह चूर्ण ऐसा चमत्कारी स्वादिष्ट है कि जो ग्राहक एक बार इसको खा ले दोबारा इसी चूर्ण के लिए दुकानदार के पास आता है कहीं और जाना भूल जाता है। इस चूर्ण को दुकानदार हिंदू चूर्ण का नाम देता है और विलायत (विदेश) को संतुष्ट करना इसका काम बताता है। यह चूर्ण जब से हिंदुस्तान में आया है इसका धन बल सभी घट गया है।
यह एक व्यंग्यात्मक कविता है। कवि (नाटककार) ने व्यंग्यात्मक लहज़े में बताया है कि यह चूर्ण इतना करामाती है कि इसके कारण देश का धन विदेश में चला जाता है। (पै धन बिदेस चलि जात अहै अति ख्वारी)। चूर्ण होता तो चूर-चूर है (पाउडर फॉर्म में) लेकिन इतना “पॉवरफुल” होता है कि खाने वालों के दांत खट्टे हो जाते हैं।
चूर्ण ऐसी चीज है कि मंडी में भी इसकी खूब धाक है। पेशेवर महिलाएं भी इसको खाती हैं। कवि ने यहां तत्कालीन समाज में धड़ल्ले से प्रचलित परंतु सभ्य समाज में वर्जित शब्द का भी प्रयोग किया है। चूर्ण खाने वालों की पाचन शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि अगर इसे देसरकारी अमले खाते हैं तो दुगनी रिश्वत पचाने की सामर्थ्य पा जाते हैं। चूर्ण नाटक खेलने वाले खाएं तो दूसरे लेखकों की रचनाएं भी सही तरीके से नकल करके पचा जाते हैं।
ब्याज पर रकम देने वाले अगर इस चूर्ण को खाएं तो लोगों की जमा पूंजी भी उनको हजम हो जाए। लाला लोग, जिन्हें ज़्यादा अक्लमंद माना जाता है, उनकी अति बौद्धिकता का निवारण भी इस चूर्ण में माना जाता है। जो संपादक किसी की कोई भी बात छाप देते हैं, पचा नहीं पाते ,वह भी चूर्ण को खाकर बड़ी-बड़ी बात पचाने की क्षमता से भर जाते हैं।
अंतिम पंक्तियों में तो भारतेन्दु जी ने बहुत ही मार्मिक व्यंग्य किया है। चूर्ण वाले के माध्यम से वे कहते हैं कि सब बड़े (रसूखदार)लोग जब चूर्ण खाते हैं तो सारा हिंदुस्तान उन्हें हजम हो जाता है। पुलिस वाले जो इस चूर्ण को खाते हैं -सारा कानून हजम कर जाते हैं, अर्थात अगर पुलिस वाले चाहें तो कानून उनके पेट में ! उस नगरी में चूंकि प्रत्येक वस्तु टके सेर मिल रही है तो चूर्ण भी पूरा ढेर एक टेक सेर में उपलब्ध है।
इस प्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘चूरन अमल बेद का भारी’ कविता के माध्यम से समाज में व्याप्त भाई भतीजावाद, रिश्वतखोरी, लालच,देशद्रोही प्रवृत्ति,बेईमानी और भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य किया है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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