एक बूंद कविता की मूल संवेदना / व्याख्या
एक बूंद कविता द्विवेदी युग के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की एक लघु आकार की लोकप्रिय एवं प्रासंगिक कविता है। अयोध्या सिंह उपाध्याय का आधुनिक हिंदी कविता और खड़ी बोली के उत्थान में उल्लेखनीय योगदान है। इन्होंने आधुनिक युग के खड़ी बोली में रचित प्रथम और अत्यंत चर्चित महाकाव्य “प्रियप्रवास” की रचना की। वैदेही वनवास, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे (काव्य), ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल (उपन्यास) और प्रद्युम्न विजय, रुक्मणी परिणय (नाटक) इनकी प्रमुख रचनाएं हैं।
एक बूंद कविता एक अत्यंत प्रेरणादायी और संदेश प्रधान रचना है। कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ एक बूंद (भाप/पानी) के जीवन के माध्यम से मानव जीवन की चुनौतियां लेने और उसके परिणाम की संभावनाएं उद्घाटित कर रहे हैं।
पानी की एक नन्ही सी बूंद जैसे ही बादलों की गोद से निकलकर आगे बढ़ी वैसे ही उसे पछतावा होने लगा कि वह क्यों ही उस सुरक्षित आश्रय को छोड़कर बाहर आई?
बूंद सोचने लगी कि हे ईश्वर! पता नहीं उसके भाग्य में क्या लिखा है? वह बचेगी भी या धरती पर जाकर धूल में मिलकर अपना अस्तित्व खो देगी? या फिर किसी अंगारे के ऊपर गिरकर क्षण भर में भस्म हो जाएगी? या फिर कमल के किसी फूल की पंखुड़ियां में टपक पड़ेगी? उस समय जब वह अपने सफ़र पर थी। कुछ ऐसी हवा चली (हवा वाष्प को अपने निर्देश में बहा ले जाने का काम करती है) ,जो उसे समंदर की तरफ ले चली। चुपचाप अनमनी-सी बूंद बच्चों की तरह बड़ों जैसी हवा के निर्देश में चल पड़ी। वहां समंदर में एक सीपी का मुंह खुला हुआ था, बूंद उसी सीपी में जाकर मोती बनने का सौभाग्य पा गयी।
आख़िरी पैराग्राफ में कविता का मूल मंतव्य है। कवि लिखते हैं कि लोग भी कहीं निकलने के पहले बूंद की तरह ही झिझकते हैं, सोचते हैं । वे भी नहीं जानते कि घर छोड़कर भविष्य संवारने के लिए निकलना बूंद की तरह उन्हें भी मोती (कामयाब) बना सकता है।
यहां कवि का आशय है कि जीवन को एक आकार देने या कॅरियर बनाने के लिए घर से निकलना, अपने कंफर्ट ज़ोन को छोड़ना इंसान को चिंता में डालता है परंतु घर में बैठे रहना किसी समस्या का हल नहीं। बाहर निकलने के बाद पता नहीं ऐसे अवसर मिल जाएं जो उन्हें सफल बना दें!
जैसे वह पानी की बूंद एक दिन मोती बन जाती है। पानी की बूंद वाष्प के रूप में नष्ट हो ही जाती घर से (बादल से) नहीं निकलती तब भी, लेकिन निकलने पर मोती बनी। इंसान भी एक दिन नष्ट हो ही जाएगा लेकिन अपने कुएं से (सुरक्षित घेरे से) निकलने से हो सकता है वह उस मुकाम पर पहुंच जाए जहां पर वह न निकलने के कारण नहीं पहुंच पाता!
यह कविता रिस्क लेने, ख़तरे उठाने, चुनौती स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। इसकी प्रासंगिकता देश काल निरपेक्ष है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
एक बूंद – अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध”
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही मन में लगी
आह क्यों घर छोड़ कर मैं यों बढ़ी।
दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा
मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में
या जलूंगी गिर अंगारे पर किसी
चू पड़ूंगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल कुछ ऐसी हवा
वह समुंदर ओर आई अनमनी
एक सुंदर सीप का मुंह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूंद लौं कुछ ओर ही देता है कर।