अस कछु समुझि परत रघुराया पद की व्याख्या : As kachhu samujhi parat raghuraya
“अस कछु समुझि परत रघुराया ! बिनु तव कृपा दयालु !
दास – हित ! मोह न छूटै माया ॥१॥
बाक्य – ग्यान अत्यंत निपुन भव – पार न पावै कोई ।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निवृत्त नहिं होई ॥२॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन – हीन दुख पावै ।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥३॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।
बिनु बोले संतोष – जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥४॥ –
जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास,अरु बिषय-आस मनमाहीं ।
तुलसिदास तबलगि जग -जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाही ॥५॥”
प्रसंग:
अस कछु समुझि परत रघुराया विनय पत्रिका का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पद है,जो गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित है।
संदर्भ:
भगवान श्री राम के अनन्य भक्त और कवि तुलसीदास इस पद में श्री राम की भक्त वत्सलता एवं दयालुता का चित्रण कर रहे हैं।
व्याख्या:
अस कछु समुझि परत रघुराया में कवि और भक्त तुलसी निवेदन कर रहे हैं कि उनको ऐसा आभास हो रहा है कि सियाराम की कृपा के बिना, राम की इच्छा के बिना किसी का मोहपाश नहीं कटता। भगवान के आशीर्वाद से ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह मोह के बंधन से छूटता है। इस बात को पुष्ट करने के लिए तुलसीदास जी अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
तुलसीदास कहते हैं कि जैसे रात्रि काल की स्थिति में केवल दीपक की बातें करने से गृह में प्रकाश नहीं आ सकता, प्रकाश के लिए दीपक की बाती को जलाना पड़ेगा। इसी प्रकार कोई ज्ञान की बातों का वाचन करने में कितना भी निपुण क्यों न हो,जब तक वह उस ज्ञान का अवगाहन-चिंतन न करे,तब तक वह इस संसार-सागर को पार नहीं कर सकता।
जैसे कोई व्यक्ति दीन-हीन असहाय,वस्त्र व भोजन से वंचित हो और कोई अन्य व्यक्ति उसके घर में कल्पवृक्ष एवं कामधेनु का चित्र बना दे, तो उस व्यक्ति की क्षुधा तृप्ति व दुख का निवारण नहीं हो सकता । उसकी जगह उसे सच में उन वस्तुओं की उपलब्धता करवानी पड़ेगी। केवल शास्त्र ज्ञान की चर्चा से ही मनुष्य का अज्ञान नहीं मिट सकता।
कोई व्यक्ति दिन-रात कितने भी प्रकार से स्वादिष्ट भोजन सामग्रियों की चर्चा करता रहे, उसकी भूख नहीं मिटती,संतुष्टि कतई नहीं होगी। भूख का निदान और संतुष्टि की प्राप्ति उसे होगी,जिसने उन पदार्थों का भोग किया होगा। वास्तव में भोजन करना और भोजन की चर्चा करना दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। दीपक की लौ जलाकर उससे अंधकार मिटाया जाता है। संतोष प्राप्ति के लिए इसी प्रकार भोजन ग्रहण किया जाता है।
अंत में तुलसीदास कहते हैं कि जब तक मन की आंतरिक चेतना जागृत नहीं होगी भीतरी प्रकाश नहीं आएगा और मन में सांसारिक भोगों के प्रति होड़ लगी रहेगी, तब तक संसार की यात्रा चलती रहेगी। मनुष्य विभिन्न योनियों में तब तक भटकता फिरेगा,जब तक वह भोग विलास की सच्चाई नहीं जान लेगा।
वस्तुतः संतुष्टि प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ज़रूरत पूरा होने तक क्रियाकलाप करना और आवश्यकता से अधिक संचय न करना और मन को विश्राम देने का भाव भी इन पंक्तियों में समाहित है। मन की शांति के लिए भटकाव का अंत बहुत ज़रूरी है, फिर मारे-मारे फिरने की जगह नहीं रह जाती।
विशेष:
1.विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से कवि ने स्पष्ट किया है कि सिर्फ वाग्जाल से काम नहीं बनता, इसके लिए प्रयास करना पड़ता है।
2.राम की कृपा से ही यह चेतना प्राप्त होती है, कवि यह भी दर्शाते हैं।
3.अंत्यानुप्रास, उदाहरण एवं वृत्यानुप्रास अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।
4.ब्रज भाषा का साहित्यिक रूप दृष्टटव्य है। शांत रस की
उद्भावना है।