सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं

सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएंसिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं

 

हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी साहित्य को मुख्य रूप से चार कालों में विभाजित किया गया है- आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल। आदिकाल की कालावधि में अनेक प्रकार की काव्य धाराएं समानांतर रूप से प्रवाहित हो रही थीं। इन काव्य धाराओं में सिद्ध साहित्य का अपना एक अत्यंत विशिष्ट महत्त्व है।

सिद्ध साहित्य भारतीय साहित्य परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो 8वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के बीच लिखा गया था। सिद्ध साहित्य प्रमुख रूप से बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से निकला हुआ माना जाता है। इस साहित्य के प्रणेता सिद्ध सरहपा माने जाते हैं, जिनके कई अन्य नाम हैं- सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र या राहुलवज्र। हिंदी भाषा एवं साहित्य के महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि माना है। इनका काल उन्होंने 769 ईस्वी निर्धारित किया। दोहाकोश इनकी प्रसिद्ध रचना है।

सिद्ध साधकों की कुल संख्या चौरासी मानी गई है, जिनमें अस्सी पुरुष साधक और चार स्त्री साधिकाएं हैं।

प्रमुख सिद्ध साधक – सरहपा, सबरापा, डोमिबप्पा, कुकुरप्पा, लुइया, तातिपा इत्यादि।” पा” सिद्धों में सम्मानसूचक शब्द है, जो इन सभी के नाम के साथ लगाया हुआ है।

स्त्री साधिकाएं- कनखलापा, लक्ष्मीकरा, मणिभद्रा और मेखलापा।

सिद्ध साहित्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्न बिंदुओं के माध्यम से रेखांकित की जा सकती हैं..

 

1.साधना की वाममार्गी अथवा तांत्रिक पद्धति

सिद्ध साधक साधना पद्धति के रूप में वामाचार अथवा तंत्र विद्या पर बल देते थे। इस उपासना पद्धति में मदिरापान, युग्नद्ध अवस्था में स्त्री संसर्ग और शव के समक्ष श्मशान भूमि में विशिष्ट प्रकार की साधना का विधान किया जाता था। कहने का मतलब है कि सिद्ध साधक आचरण की शुद्धता के बजाय अपनी उपासना पद्धति पर बल देते थे।

 

2.जात पाँत का तीव्र विरोध

इन सिद्ध साधकों ने ब्राह्मणवाद, श्रेष्ठताबोध एवं छुआछूत का अपने काव्य में तीखा विरोध किया है। ये कवि मानते थे कि वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद शोषण के माध्यम है। मनुष्य किसी भी आधार पर दूसरे मनुष्य से कमतर नहीं है। शबरपा ने एक शबर कन्या (अछूत मानी जाने वाली जाति की लड़की) को परंपरा के विपरीत नायिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए रचा है-

“ऊँचा-ऊँचा पाबत तहिं बसइ सबरी बाली

मोरंगि-पिच्छ परिहिण शबरी गीवत गुंजरि-माली।”

 

3.स्त्री समानता के पोषक

सिद्ध साधना पद्धति में कुछ वैचारिक परिष्कृति इस अर्थ में भी मिलती है कि सिद्धों में स्त्रियों को किसी भी रूप में कमतर नहीं माना जाता था। संपूर्ण सिद्ध साहित्य में स्त्रियों के संबंध में कोई एक भी असम्मानजनक अथवा विद्वेषपूर्ण पद दिखाई नहीं देता।

 

4.साधना पद्धति में स्त्रियों की समकक्ष भूमिका

सिद्धों ने न सिर्फ़ स्त्रियों के प्रति बराबरी का रवैया रखा बल्कि ये अपनी साधना स्त्रियों के बिना अपूर्ण मानते थे स्त्रियों के साथ साधकों की युग्नद अवस्था इसी साधना पद्धति में देखी जाती है।

 

5.चिंतनशील और कुंठा रहित आचरण

सिद्धों में इहलोक एवं परलोक को लेकर पर्याप्त परिपक्व चिंतन दिखाई देता है। उनकी आध्यात्मिक चेतना इन्हें मृत्यु के बाद नहीं मृत्यु के पूर्व जीने की प्रेरणा देती है। मरने के बाद की कल्पना इन लोगों ने नहीं की। अकुंठ जीने की लालसा इन के जीवन का मूल आधार था।माया मोह और लोभ से परे ये अपनी वर्तमान अवस्था को सुख से जीते थे। सिद्ध-साधकों ने गृहस्थ जीवन के बड़े रमणीक और मनोरम चित्रों को प्रस्तुत किया है। जो उनकी सहज वाणी से स्वतः मुखरित होकर प्रेम से पूर्ण है-

‘तिअड्डा चापि जोइनि दे अंकवाली

कमल-कुलिश घोटि करहु विआली।’

 

‘विवाह-पद्धति’ का वर्णन करते हुये काण्हप्पा ‘वर-यात्रा’ के शुभ वर्णन को बताते हैं तो तत्कालीन विवाह व्यवस्था की ओर संकेत मिलता है। ये सारे चित्रण सिद्ध साहित्य को नाथ साहित्य से अलग करते हैं।

 

6.संध्या भाषा में काव्य रचना

सिद्धों ने जिस भाषा में काव्य रचा उसे संधा या संध्या भाषा कहा जाता है। प्रसिद्ध विद्वान हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की भाषा को प्रकाशन- अंधकार की भाषा कहा है। मूल रूप में यह कोई पृथक भाषा नहीं है, वरन् हिंदी का प्रारंभिक रूप है। बस सिद्ध-साधकों ने अपनी रचनाओं में इसका प्रयोग इस तरह से किया कि कहीं तो यह एकदम से अपना निहितार्थ प्रकट कर देती है तो कहीं गूढार्थ ढूंढने की आवश्यकता होती है। नाथ साहित्य और बाद में कबीर के काव्य में भी इस भाषा को देखा जा सकता है।

 

7.उलट बांसियां और रहस्यवाद

सिद्ध साहित्य में उलटबांसी और अटपटी बानियों को लिखने का खूब चलन देखा गया है। उनकी इस विशेषता का प्रभाव कबीर के काव्य में बहुत अधिक दिखाई देता है उनकी उलट बांसियां सिद्धों से प्रभावित हैं। सिद्ध तातिपा की अटपटी बानी का एक उदाहरण द्रष्टव्य है..

 

“वेग संसार बाइहिल जाअ।

दुहिल दूध कि बेटे समाअ।

बलद बियाएल गविआ बांझे।

पिटा दुहिए इतना सांझे।

जो सो बुझी सो पनि बुधी।

जो सो चोर सोई साथी।

निले जिते पिआला धम जूझअ

ढेढ़े पाएर गीत बिरले बूझआ। “

 

8.भाषा ,शैली और छंद विधान

सिद्धों की भाषा के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत दिये हैं। कुछ विद्वानों ने इनकी भाषा को संध्या-भाषा’ कहा है और इसका अर्थ ‘धूप-छॉहीं’ शैली से लिया है। पं. विधुशेखर शास्त्री ने ‘सन्धा’ शब्द का अर्थ ‘अभिप्राय-युक्त-भाषा’ से किया है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री ने ‘बौद्ध-गान-ओ-दोहा’ के मुखबंध पर इसे ‘संधा-भाषा’ कहा है और इसका अर्थ ‘आलोक व अंधकार’ की भाषा से लिया है। पं. राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों की भाषा को ‘पुरानी-हिन्दी’ के नाम से विभूषित किया है। आर्य वल्लभ महन्ती ने ‘पुरानी-उड़िया’ के रूप में सिद्धों की भाषा को स्वीकार किया है।सिद्धों की भाषा प्रतीकात्मक रूप में स्पष्ट होती है। उनकी रचनाओं में भाषा का रहस्यात्मक रूप उभर कर आया है जो ‘संधा-भाषा’ के अर्थ को उद्घाटित करने में समर्थ है। आम जन के लिए लिखा जाने वाला यह काव्य तत्कालीन जन की भाषा में ही रचा गया प्रतीत होता है।

 

शैली के संदर्भ में सिद्धों का काव्य ‘गीत’ व ‘मुक्तक’ रूप में देखने को मिलता है। विषय वस्तु की दृष्टि से गीत भाव प्रधान है। सिद्धो के चर्यापद गीति काव्य के अर्न्तगत आते है तथा ‘मुक्तक’ नीति प्रधान है जो दोहा रूप में दृष्टिगोचर हुए हैं।

 

सिद्धों की रचनाओं में दोहा, उल्लाला, महानुभाव, अडिल्ला, पादाकुलक जैसे छन्द देखने को मिलते है। इन पदों में गेय तत्त्व की प्रधानता द्रष्टव्य है इसीलिए उनके पदों के साथ राग का नाम भी देखने को मिलता है। उस समय के प्रचलित रागों में भैरवी, कामोद, धनसी, शबरी, देशाख इत्यादि रागों के उदाहरण देखने को मिलते हैं।

 

सिद्धों की भाषा की सार्थकता उनकी साधना-पद्धति में प्रयुक्त हुये उपमानों से भी प्रतीत होती हैं। इनकी भाषा अपनी प्रतीकात्मकता को ग्रहण किये हुये है, जो आज भी साहित्य में अपने महत्व को बनाये रखने में सक्षम है।इन कवियों के लेखन में ही सर्वप्रथम रहस्यवाद का स्वर चिन्हित किया जा सकता है जो कालांतर में भक्ति काव्य और छायावाद में आया है। एक असीम सत्ता के प्रति लगाव और जिज्ञासा रहस्यवाद के अंतर्गत आता है।

सरहपा का एक उदाहरण,

नाद न बिंदु न रवि न ससि मंडल

चिजराअ सहावे मूकल।

हाय रे कांकाण मा लोउ दापण

अपणे अपा बुझतु निअन्मण।

इस प्रकार स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि सिद्ध साहित्य में तांत्रिक साधना पद्धति अपनाई गयी। इस साहित्य में जीवन के व्यावहारिक पक्ष को महत्त्व देते हुए इहलौकिक सुखों को नकारा नहीं गया। कुछ बहुत ध्यान दिये जाने लायक सकारात्मक पक्षों को सिद्ध साहित्य में देखा जा सकता है। साधना मार्ग में स्त्रियों को बाधा न समझना, उन्हें भी साध्वी की पदवी मिलना, कर्मकांडों एवं ब्राह्मणवाद का विरोध इस साहित्य की खासियत है। आठवीं से तेरहवीं सदी तक अपभ्रंश मिश्रित हिंदी में लिखा जाने वाला यह काव्य आने वाले संत काव्य की पूर्वपीठिका बना।

प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएं/प्रवृत्तियां

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

Leave a Comment