लैंगिक भेदभाव : कारण, परिणाम और निदान
लैंगिक भेदभाव समझने के लिए एक घटना का ज़िक्र करना तर्कसंगत होगा. कल एक लड़के का कहना था (वैसे ज्यादातर यही कहते हैं) कि “सबसे ज्यादा सम्मान लड़कियों को भारत में मिलता है! “सबसे पहली बात तो बंद कीजिए ये सम्मान देना। औरत को देवी नहीं,इंसान समझ लीजिए बस। मत बनाइए उसे पूजनीय,साधारण इंसान है वो, पुरूषों की तरह गुण-दोषों से युक्त। दूसरी बात -किस “सम्मान की बात करते हैं लोग, कहाँ है वो सम्मान?
चलो जन्म के पहले से बात शुरू करते हैं। गर्भ में बच्चा आने के पहले “दूधो नहाओ,पूतो फलो”(“पूत” का मतलब तो पता ही होगा सबको) का आशीर्वाद दिया जाता है, लिंग जाँच परीक्षण क्यों करवाया जाता है और फिर आगे क्या होता है, जानते हैं हम। रात-दिन गर्भ से बेटियाँ नोच के फेंकी जा रही है इस दिव्य संस्कृति वाले विश्व गुरू देश में। जन्म हो भी गया तो रीति-रिवाजों में अंतर। बेटा हो गया तो थाली बजती, ,कुँआ-पूजन, दशोठन(पुत्र जन्मोत्सव पर दिया जाने वाला भोज)जगराता,माता के भजन यानी तमाम “”मांगलिक”सुखद कार्य।इसके उलट बेटी होने पर मुँह लटक जाएगा(अपवाद न गिनाएँ) या छोटा-मोटा फंक्शन।क्या ये लैंगिक भेदभाव में नहीं आता?
अकसर लोगों को बोलते सुना”भार आ गया इतनी जल्दी छोरे पे।”अब बड़े होने पर विवाह किसी एक का नही, लड़के-लड़की दोनों का होता है, लेकिन दान “कन्या” का होता है, वर का नहीं क्योंकि वो लड़का है, वस्तु नहीं। विवाह में लड़की का बाप “बेटी का बाप”बन जाता है, जिसकी निरीहता छुपी नहीं। अब आमूलचूल परिवर्तन आएगा तो लड़की की दिनचर्या में।पहनावा, टाइम टेबल, रिश्तेदार,आदतें रातोंरात सब बदल जाना है उसका। खाएँगे सब,पकाएगी औरत, कपड़े पहनेंगे सब, धोएगी औरत,घर में रहेंगे सब झाड़ू -पोंछा करेगी औरत, इसमें आगे से आगे जोड़ते चले जाइए।
जो औरत घर के चार-पाँच लोगों का खाना अपने जीवन के अधिकांश भाग तक पकाती है, उसके लिए ये चार-पाँच मिल के एक दिन नहीं बना सकते (अपने कुछ शहरी दोस्तों की बात नहीं कर रही हूँ)। वो खेत में,सड़क पर,अस्पताल में, स्कूल में कहीं पर भी कमा के आकर घर का सब कर सकती है और वही कमजोर भी मानी जाती है। इसके बाद अगर पति की मृत्यु हो गई तो बड़ी बेदर्दी से वो सब आभूषण, साज-श्रृंगार, रंग-रोगन छीन लिए जाते हैं जो विवाह के साथ उसको दे दिए गये थे। जिन अमानवीय कुरीतियों से उसे गुजरना पड़ता है, उसकी जलालत समझने के लिए पुरूषों को दूसरा जन्म लेना पड़ेगा, जो होता नहीं।
रही बात भारतीय संस्कृति की तो ये सब हो उसी महान संस्कृति के अनुसार रहा है।समाज में हम अपना हक कानून और संविधान से चाहते हैं लेकिन पारिवारिक जीवन वेद और पुराण से चलाते हैं।कानून में लिंग-भेद नहीं है,शिक्षा,स्वास्थ्य,संपत्ति पर समान अधिकार है, लड़की पराया धन नहीं है, तो फिर दिक्कत कहाँ है? बताया न, संस्कृति में।किसी पति, पिता, भाई, बेटे को क्रमशः पत्नी, बेटी, बहन की लंबी उम्र के लिए कभी करवा चौथ,कभी दूज तो कभी कोई तीज करने की सलाह इस संस्कृति ने नहीं दी जबकि औरतों के लिए ऐसे बीसियों विधान बना रखे हैं।
हमारी संस्कृति(धर्म ग्रंथ) कहती है कि वंश बेटों से चलता है, इसलिये बेटियाँ मारी जा रही हैं गर्भ में ही। लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाली हमारी संस्कृति कहती है कि बेटियाँ पराया धन है और कन्या दान का इतना महत्व बता रखा है कि खुद की बेटी नहीं है तो किसी रिश्तेदार की बेटी का कन्यादान कर देंगे। एक ही खून होने के बाद भी माँ-बाप की चिता को अग्नि बेटे के द्वारा दिए जाने से उनको गति-मुक्ति मिलती है।घूँघट, पर्दा,शर्म को गहना, आवाज नीची रखना,गुस्से को दबा लेना ये संस्कृति लड़की को सिखाती है। शारीरिक संबंध बनते तो लड़के-लड़की दोनों के बीच है, लेकिन कौमार्य भंग सिर्फ लड़की का होता है।
सुबह-शाम,रात-बेरात आती-जाती लड़कियों को जंगली जानवर का नहीं, आदमियों (मने पुरूषों) का डर रहता है। कमाल की बात देखिए कि हर घर की लड़कियों और औरतों को दूसरे घर के मर्दों से खतरा है (खतरा तो हर वक्त उन्हें अपने घर के मर्दों भी है)! कितने लड़के भेंट चढ़ गये भ्रुण हत्या,दहेज हत्या या दुष्कर्म, सामूहिक दुष्कर्म के? एक ने कहा कि लड़कों का भी यौन शोषण होता है। सही है, कौन करता है, अपवादों को छोड़ दो तो लड़कों का भी लड़के ही, परिवार,पड़ोस के पुरुष ही तो शोषण कर रहे होते हैं न?
लैंगिक भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। बहुत गहरी तकलीफ़ है ये, सामूहिक तकलीफ़ है ये महिलाओं की, बात अभी तो सिर्फ़ शुरू हुई है, दासताँ बहुत लंबी है। सुनते रहना और कुछ न कर सको तो।
© डॉ. संजू सदानीरा
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