आयो घोष बड़ो व्योपारी पद की व्याख्या
आयो घोष बड़ो व्योपारी।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी॥
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरै निपट सुधारी।
धुर ही तें खोटी खायो है लये फिरत सिर भारी॥
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी?
अपनो दूध छाँड़ि को पीवै खार कूप को पानी॥
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ।
मुँह माँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ॥
प्रसंग
प्रस्तुत पद आयो घोष बड़ो व्योपारी कृष्ण भक्ति शाखा के अन्यतम कवि सूरदास द्वारा रचित है जो सूरसागर में संकलित है। सूरसागर में उद्धव गोपी संवाद के रूप में भ्रमण गीत का भाग अत्यंत मनोरंजक एवं मार्मिक (दोनों एक साथ) है। प्रस्तुत पद इस भ्रमरगीत का एक अत्यंत लोकप्रिय पद है।
सन्दर्भ
इस पद में गोपियां उद्धव के निर्गुण ब्रह्म की प्रशंसा करने और सगुण से गोपियों को परे करने की कोशिश भरी मूर्खता पर कटाक्ष कर रही हैं।
व्याख्या
गोपियां उद्धव जी का मजाक बनाते हुए एक दूसरे से कहती हैं कि देखो देखो बड़ा भारी थोक का व्यापारी ब्रज में आया है। अपने निर्गुण ज्ञान की भारी गठरी उसने आकर ब्रज में उतारी है। यह उसे निर्गुण से चित्त लगाने और श्रीकृष्ण से मन हटाने का जो ज्ञान (व्यंग्य सहित) बांट रहे हैं, वह वैसे ही है जैसे अनाज के फटके से निकले छिलके देकर अन्न छीन रहे हैं। यह तो गोपियों को एकदम ही मूर्ख समझ रहे हैं।
जबकि यह स्वयं कितने बड़े भोले हैं इनको पता ही नहीं। इनका निर्गुण ब्रह्म का उपदेश वाला सामान इतना डिफेक्टिव (त्रुटिपूर्ण) है कि यह उसे लादे-लादे मारे-मारे फिर रहे हैं लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं। ब्रज में तो ऐसा कोई जड़ बुद्धि है नहीं जो यह बेकार माल खरीदे। अपने घर के मीठे दूध को छोड़कर (कृष्ण की मनमोहिनी भक्ति का त्याग कर) खारे कुएं का पानी (निर्गुण ब्रह्म की नीरस उपासना) भला कोई क्यों पिए! गोपियां उद्धव को तुरंत प्रभाव से ब्रज छोड़ देने की सलाह देती हैं।
वह उद्धव से कहती हैं कि उन्हें निर्गुण ज्ञान की यह गठरी थमाने वाले असली मालिक के पास ले जाना चाहिए। यदि उद्धव उनका खुद का (कृष्ण का) एक बार दर्शन कर दें तो गोपियों उन्हें इसके लिए मुंह मांगी राशि देने को तैयार हैं। बहुत समय से कृष्ण के विरह में डूबी गोपियां इस प्रकार उद्धव से श्रीकृष्ण से मिलवाने की विनती करती हैं। प्रकारांतर से जो सामान उन्हें चाहिए व्यापारी से उसकी बात रखती हैं। सामान्यतः दुकान में ग्राहक ऐसा भी करते हैं कि जो उपलब्ध सामग्री है वह नहीं चाहिए वरन जो चाहिए वह बता देते हैं।
विशेष
1.सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से गोपियों की वाक्पटुता को बहुत रोचकता से दर्शाया है।
2.निर्गुण की नीरसता और कृष्ण भक्ति की सरसता कृष्ण भक्ति काव्यधारा के अनुकूल है।
3.ब्रजभाषा का स्वाभाविक सौंदर्य द्रष्टव्य है।
4.उपालंभ शृंगार का पूर्ण परिपाक होने के साथ-साथ भक्ति रस भी विद्यमान है (मधुर भक्ति)।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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