हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए ग़ज़ल की व्याख्या
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
-दुष्यंत कुमार
व्याख्या
दुष्यंत कुमार हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की नई कविता और हिंदी ग़ज़लों के एक बहुश्रुत नाम हैं। ये हिंदी में ग़ज़ल विधा के प्रारंभकर्ता के तौर पर जाने जाते हैं। कवि सम्मेलनों में ये मंच के अत्यंत सफल कवियों में गिने जाते हैं। एक गंभीर आलोचक के रूप में भी ये सफल रहे। नई कहानी को ‘नई कहानी’ नाम सबसे पहले दुष्यंत कुमार ने कल्पना पत्रिका में छपे अपने एक लेख में दिया था। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से जो ख्याति प्राप्त की वह बहुत कम लोगों को मिलती है। ‘साए में धूप’ इनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह है और ‘एक कंठ बिषपायी’ इनका प्रसिद्ध काव्य नाटक है।
“हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए” उनकी एक अत्यंत लोकप्रिय ग़ज़ल है। राजनीति दुष्यंत के काव्य में एक प्रकार से अन्तर्वस्तु की तरह गहराई तक रची बसी हुई है।
यह गजल एक सीमित अर्थ रखने के बाद बजाय बहुत व्यापक निहितार्थ रखती है। इसमें दो पंक्तियों का प्रत्येक शेर बहुत गहरा अर्थ समाहित किए हुए है।
“हो गई है पीर” कहने से कवि का तात्पर्य है कि दुख एकत्रित हो होकर पीड़ा में तब्दील हो चुका है। पीड़ा के इस विशाल रूप को कोई जरिया तलाश कर ठीक उसी प्रकार बह जाना चाहिए जैसे एकत्रित बर्फ पिघल कर पहाड़ों से नदी की तरफ प्रवाहित होने लगती है। कवि कहना चाहते हैं कि दुखों के बोझ को ढोते नहीं रह जाना चाहिए बल्कि एक उचित और सार्थक माध्यम से उनका विरेचन अत्यंत आवश्यक है। यहां दुखों के विशाल पीड़ा में बदल चुके रूप से व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक अन्याय से अभिप्राय है, जिसे प्रतिरोध में बदलने की बात कवि कह रहे हैं।
“आज यह दीवार” शेर के माध्यम से कवि सम्भवतः राजनीतिक मंचों की ओर हमारा ध्यान ले जाना चाहते हैं। घोटाले, भ्रष्टाचार और क़ानून के दुरुपयोग के ढेर सारे मामलों का खुलासा होने के बाद जहां तख्ता पलट जाना चाहिए वहां सिर्फ़ प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा अफसरों को बदलकर लीपापोती की जाती है, तब ऐसा लगता है जैसे कहां तो इन मामलों से जड़ें हिल जानी थीं और कहां सिर्फ़ दीवार ही परदे की तरह हिल कर रह गई।
“हर सड़क पर हर गली में” शेर के माध्यम से ग़ज़लकार अपने समय और समाज के सोए हुए लोगों से यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे सब चेतना संपन्न हों और जम्हूरियत (लोकतंत्र) को बचाने के लिए अपनी अपनी जगह पर सड़कों पर उतरें और हवा में मुट्ठियां तान कर तानाशाही का विरोध करें। हर ज़ुल्म को चुपचाप सहन करने वाले लोगों की तुलना लेखक ने लाश से की है, क्योंकि सिर्फ़ लाशों को ही हालात से फ़र्क नहीं पड़ता
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना” दुष्यंत का एक बहुचर्चित शेर है। इस शेर का प्रयोग लगभग हर युवा नेता पहली बार मंच से किये अपने संबोधन में ज़रूर करता है। शेर के माध्यम से लेखक कहना चाहते हैं कि विरोध के लिए लगाए जाने वाले नारों और अन्य गतिविधियों के द्वारा वे महज माहौल में गतिरोध पैदा करना नहीं चाहते बल्कि ऐसे हर विरोध से वे शासन की कुशासन व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहते हैं।
“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही” शेर भी दुष्यंत कुमार का एक अत्यंत लोकप्रिय शेर है। हर वह योद्धा या क्रांतिकारी जो शहीद होने जा रहा या अब थकने लगा है अथवा धीरे-धीरे वृद्धावस्था की तरफ बढ़ रहा है वह नौजवान पीढ़ी से यह उम्मीद करता है कि क्रांति की यह आग उनके सीनों में जलती रहे। प्रतिरोध की मशाल बुझने की बजाय आगमी पीढ़ी के माध्यम से अनवरत नए हाथों तक पहुंचती रहे, यही लेखक का मंतव्य है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इश्क़, माशूक, जुल्फ़ें, पैमाने जैसे विषयों को छोड़कर दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों में राजनीतिक परिदृश्य को अपना विषय बनाया है। बात को कहने की उनकी कला प्रशंसनीय है और सामाजिक सरोकारों से उनकी गहरी संपृक्ति दर्शाती है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा