समान नागरिक संहिता : Uniform civil code in Hindi

समान नागरिक संहिता : Uniform civil code in Hindi

  समाज को सुचारू और न्यायपूर्ण तरीके से संचालित करने के लिए कुछ नियम और कानून होते हैं जिनका पालन करना सभी के लिए आवश्यक होता है। इन कानूनों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- पब्लिक लॉ और पर्सनल लॉ। पब्लिक लॉ के अंतर्गत ऐसे कानून आते हैं, जो सभी के लिए समान रूप से लागू होते हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या जेंडर का व्यक्ति हो। इसमें इंडियन पीनल कोड, एविडेंस ऐक्ट, इनकम टैक्स शामिल हैं। जबकि पर्सनल लॉ धार्मिक नियमों और परंपराओं पर आधारित होते हैं।

पर्सनल लॉ के अंतर्गत हिंदू कोड बिल, क्रिश्चियन मैरिज ऐक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ, पारसी मैरिज एंड डायवोर्स ऐक्ट इत्यादि आते हैं। पर्सनल लॉ विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गुज़ारा भत्ता इत्यादि से संबंधित होता है। भारत में पब्लिक लॉ सभी पर समान रूप से लागू होता है, जबकि पर्सनल लॉ अलग-अलग समुदायों के धर्म/पंथ पर आधारित होता है। इसके अलावा एक स्पेशल मैरिज ऐक्ट भी बनाया गया है, जिसमें अंतर्धार्मिक या ग़ैरधार्मिक विवाह के के बारे में कानूनों का उल्लेख है।

 

 

समान नागरिक संहिता (uniform civil code)-

समान नागरिक संहिता धर्म, मज़हब, संप्रदाय से परे देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून की अवधारणा है, जो कि व्यक्तिगत और सामाजिक मसलों जैसे-विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार, दत्तक ग्रहण इत्यादि से संबंधित होता है। यह ‘एक देश एक कानून’ के सम्प्रत्यय को मान्यता देता है। इसके अंतर्गत देश के सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक़,संपत्ति और दत्तक ग्रहण से संबंधित एक ही कानून लागू होगा, चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म या सम्प्रदाय का हो।

 

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-

समान नागरिक संहिता का सबसे पहला उल्लेख 1840 में मिलता है, जब ब्रिटिश शासन के दौरान ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ भारत में मौजूद सभी सामाजिक और धार्मिक कानूनों में एकरूपता लाना चाहती थी। परंतु इसकी जटिलताओं को देखते हुए अंग्रेजों ने स्थानीय मामलों में दख़ल देना उचित नहीं समझा। इसलिए 1860 में बना क्रिमिनल लॉ (Indian Penal Code) तो सभी पर समान रूप से लागू होता था, जबकि पर्सनल लॉ को प्रबंधित करने की ज़िम्मेदारी समुदाय विशेष पर छोड़ दी गयी थी।

ग़ौरतलब है कि आपराधिक मामलों में देश थोड़े बहुत संशोधनों के साथ अभी भी 1860 में बने इंडियन पीनल कोड से ही चल रहा है। जबकि व्यक्तिगत व सामाजिक मामलों के लिए अलग-अलग धर्मों/पंथों ने अपने अलग कानून बनाए। दिसंबर 1946 में स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान सभा के गठन के लिए संविधान सभा आयोजित की गई। इसमें देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून की रूपरेखा रखी गई। लेकिन सांस्कृतिक विविधता वाले देश में स्वतंत्र पहचान का संकट भ्रम की स्थिति पैदा कर रहा था इसलिए इस पर आम सहमति न बन सकी। 

 

वर्तमान स्थिति-

इस समय देश में व्यक्तिगत कानून के लिए मुख्य रूप से चार तरह के कानून प्रयोग में लाए जाते हैं। हिंदू कोड बिल, मुस्लिम पर्सनल लॉ, क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, और पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-

 

हिंदू कोड बिल 1955-

11 अप्रैल 1947 को डॉ भीमराव अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसौदा संविधान सभा में प्रस्तुत किया था। जिसमें विशेष तौर पर तत्कालीन समाज में प्रचलित पुरुषों के बहु विवाह को ग़ैरकानूनी घोषित किया गया था। साथ ही स्त्रियों को संपत्ति में अधिकार और तलाक़ के बारे में भी स्पष्ट उल्लेख था। परंतु उस समय संविधान सभा के कट्टर रूढ़िवादी सदस्यों ने इसे संस्कृति और परंपरा में हस्तक्षेप कहकर तीखा विरोध किया।

आख़िरकार देश के पहले आम चुनाव के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे कई हिस्सों में विभाजित कर अलग-अलग ऐक्ट के रूप में पारित करवाया। हिंदू मैरिज एक्ट-1955, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम-1956, हिंदू अवयस्कता और संरक्षण अधिनियम इसके अंतर्गत आते हैं। ध्यातव्य है कि यहां हिंदू के अंतर्गत हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदाय को सम्मिलित किया जाता है।

 

मुस्लिम पर्सनल लॉ-

यह शरीयत पर आधारित कानून है, जो 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट के तहत पारित और लागू किया गया था। यह मुसलमानों के लिए विवाह, तलाक़ जैसे व्यक्तिगत मसलों पर आधारित कानून है। इसमें एक बड़ा संशोधन 2019 में किया गया जब एक ऐक्ट पारित कर तीन तलाक को अवैध घोषित किया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत तीन तलाक दंडनीय अपराध है, जिसमें अधिकतम 3 साल कैद की सज़ा का प्रावधान है।


भारतीय क्रिश्चियन मैरिज एक्ट-

यह 18 जुलाई, 1872 में लागू हुआ था। इसमें विवाह करने वाले दोनों पक्षों, निर्धारित स्थान (चर्च), निश्चित समय और विवाह के लिए रजिस्टर्ड पादरी के बारे में स्पष्ट प्रावधान है। इसी तरह पारसी समुदाय के लिए ‘पारसी मैरिज एंड डायवोर्स ऐक्ट’ 1936 का प्रावधान भी है।


समान नागरिक संहिता और गोवा- 

समान नागरिक संहिता भारत के जिन राज्यों में लागू है, उनमें से पहला है-गोवा। गोवा में यह कानून 1867 से ही लागू है। दरअसल गोवा पुर्तगाल का उपनिवेश था। ब्रिटिशर्स ने देश के बाकी के हिस्सों में तो अपने साम्राज्य का विस्तार किया, परंतु वह गोवा को पुर्तगालियों से हासिल न कर सके। इसलिए गोवा पर पुर्तगाली शासन के अनुसार कानून लागू हुए थे। हालांकि 19 दिसंबर 1961 को गोवा पुर्तगाल से आज़ाद हो गया और भारत का हिस्सा बना। परंतु इसके बावजूद भारत सरकार द्वारा गोवा पर पहले से लागू समान नागरिक संहिता को मान्यता दे दी गई। यहां पर राज्य के सभी निवासियों के लिए एक ही कानून लागू है।

इसके साथ ही उत्तराखंड आज़ादी के बाद समान नागरिक संहिता लागू करने वाले पहला राज्य बना। हाल ही मे 2024 में उत्तराखंड में इसे राज्य की विधानसभा के द्वारा लागू किया गया। इसके साथ ही वर्तमान में देश के कुल 2 राज्यों गोवा और उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू है।


समान नागरिक संहिता का संवैधानिक पहलू-

भारतीय संविधान के भाग 4 में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धांतों के अन्तर्गत अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया गया है। इसमें सरकार को समान नागरिक कानून लागू करने के बारे में निर्देश दिया गया है। इसके लिए विधि और न्याय मंत्रालय ने 2016 में एक ‘विधि आयोग’ का गठन किया। इसका कार्य समान नागरिक संहिता से संबंधित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर निष्कर्ष देना था।

इसने अपनी रिपोर्ट में यह कहा, कि भारत जैसे विविधतापूर्ण बहुलतावादी देश में समान नागरिक संहिता लागू करना चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके बजाय सभी धर्मों/पंथों से संबंधित निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही यह भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 25 में द्वंद्व पैदा करता है। अनुच्छेद 14 जहां सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समता का अधिकार देता है, वही अनुच्छेद 25 नागरिकों को किसी भी धर्म को अबाध रूप से मानने और उसका प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता देता है।

विधि आयोग का मानना है कि कानून की समीक्षा करते हुए स्त्री अधिकार और सार्वभौमिक वैश्विक मानवाधिकार पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। लड़के और लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र एक समान यानी 18 वर्ष किया जाना चाहिए। सभी को समान न्याय मिले, इस तरह का निर्देश भी विधि आयोग द्वारा दिया गया।


समान नागरिक संहिता की राह में आने वाली चुनौतियां-

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में जहां इतने अलग-अलग तरह के समुदाय के लोग अपने मान्यताओं और परंपराओं का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करते आ रहे हैं। ऐसे में अचानक से समान नागरिक संहिता लागू करना इनमें संदेह और भय की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। खासतौर पर अल्पसंख्यक समुदायों और जनजातियों में समान सिविल संहिता को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों का मानना है कि यह समान सिविल संहिता नहीं हिंदू सिविल संहिता है, जो सरकार मनमाने तौर पर सभी धर्मों पर आरोपित करना चाहती है। सरकार की तरफ से अभी तक इसके लिए कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं बनाई गई है, जिसके आधार पर निष्पक्ष विवेचना और विश्लेषण किया जा सके। जनजाति बहुल संस्कृति और विशेष प्रावधान जैसे- छोटा नागपुर टेनेंसी ऐक्ट, संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट पर समान नागरिक संहिता का क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी देखने योग्य बात होगी।


समान नागरिक संहिता से लाभ व संभावनाएं-

राज्य का कर्तव्य है कि वह संविधान की मूल भावना (जो कि प्रस्तावना में वर्णित है) के अनुसार कार्य करते हुए नागरिकों को प्रदत्त मूल अधिकारों (जिसमें समानता और स्वतंत्रता सर्वोपरि है) का संरक्षण और क्रियान्वयन करे। इसके लिए समान सिविल संहिता एक अच्छा अवसर साबित हो सकती है, यदि इसका उद्देश्य स्त्री अधिकार, मानव अधिकार और कानून के समक्ष समता व समानता जैसे उद्देश्यों की प्राप्ति हो।

सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार और गोद लेने संबंधी अधिकार समान रूप से लागू होना अनुच्छेद 15 में वर्णित समानता के अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में अच्छा कदम हो सकता है। इसके साथ ही LGBTQIA+ कम्युनिटी को इसके अंतर्गत शामिल करके समान नागरिक संहिता के तहत विवाह, दत्तक ग्रहण एवं उत्तराधिकार जैसे मूलभूत अधिकार प्रदान कर मुख्यधारा में लाने का एक बेहतर अवसर साबित हो सकता है। इससे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे सेम सेक्स मैरिज के विवाद को भी न्यायपूर्ण तरीके से सुलझाया जा सकता है।

 

 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अन्य कानूनों की तरह समान नागरिक संहिता के भी अपने फ़ायदे और नुकसान हैं। यहां ज़रूरत है कि सरकार इसके लिए एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार करे, जिसका केंद्र बिंदु संविधानसम्मत समानता, न्याय और मानवाधिकारों को सुनिश्चित करना हो। इसका लक्ष्य सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, जेन्डर और यौन अभिरुचि के लोगों के मूलभूत अधिकारों का संरक्षण होना चाहिए। इस तरह समान नागरिक संहिता को सही तरीके से लागू करके नागरिकों के कानून के समक्ष समानता और समावेशी विकास के लक्ष्य को सुनिश्चित किया जा सकता है।

 

© प्रीति खरवार

समाजसेवी दुर्गाबाई देशमुख के बारे में विस्तार से जानने के लिये कृपया नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कर सम्बन्धित लेख पढ़ें..

 

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