संध्या सुंदरी कविता का भावार्थ/मूल संवेदना
संध्या सुंदरी कविता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित एक अत्यंत चर्चित कविता है। निराला छायावाद के प्रतिनिधि कवियों में से एक हैं। परिमल, अपरा ,अणिमा, अनामिका इत्यादि इनकी प्रमुख काव्य कृतियां हैं। “तुलसीदास” इनके द्वारा रचित खंड काव्य है। अप्सरा, अलका, प्रभावती, चोटी की पकड़ और बिल्लेसुर बकरिहा इत्यादि इनके उपन्यास हैं। इनकी कविताओं में छंद, भाषा और विषय संबंधी कई विशिष्टताएं द्रष्टतव्य हैं।
संध्या सुंदरी कविता में निराला जी ने दिन भर के क्रियाकलापों से क्लांत मनुष्य के जीवन में संध्या के अलस पलों का महत्त्व चित्रित किया है।
कवि निराला जी लिखते हैं कि दिवस का अवसान (दिन की समाप्ति) का समय है और संध्या का आगमन हो रहा है। कवि ने छायावाद की विशेषताओं का अनुगमन करते हुए प्रकृति का मानवीकरण किया है और प्रकृति को परी के समान चित्रित किया है।
बादलों से आच्छादित आसमान में वह संध्या रूपी सुंदरी परी के समान हौले-हौले चलते हुए मानव के गृह -आंगन में उतर रही है। अंधेरे घिरे वातावरण में किसी प्रकार के स्वर का अथवा शोरगुल का आभास नहीं है। संध्या रूपी सुंदरी के अधर मधुर हैं लेकिन उनमें वाचालता न होकर गंभीरता है।
कवि का आशय है कि जैसे हमारे कई प्रियजन कदमों की तेज थाप और ठहाकों के साथ आते हैं संध्या वैसे नहीं आ रही है। वह बिल्कुल चुपचाप आ रही है। अगर कोई हंस रहा है तो वह आसमान में उगा एकमात्र तारा जो मानो संध्या रूपी सुंदरी के जूड़े में गुंथा हुआ फूल हो या फिर जो हृदय रूपी राज्य की रानी का अभिषेक कर रहा हो। निराला ने संध्या को हृदय राज्य की रानी बताया है गोया दिन भर के कामों से थके हुए मन के लिए वह प्रेयसी-सी कमनीय हो।
कवि ने संध्या को निष्पंद और अचंचल लता बताने के साथ-साथ कोमलता की कली भी बताया है जो अपनी सखी नीरवता के कंधे पर बांह डालकर सुखद छाया की तरह आकाश रूपी मार्ग से आ रही है। कहने का तात्पर्य है की संध्या तंद्रालस (आलस से भरी) और ठिठकी सी चुपचाप आंगन में उतरती है।
संध्या रूपी सुंदरी के हाथों में न तो कोई वीणा है न ही वह कोई प्रेम भरा राग छेड़ते हुए आ रही है। न ही उसके पायल के घुंघरू से रुन झुन रुन झुन की ध्वनि प्रसारित होती है, बल्कि उसके आने के साथ हर तरफ ख़ामोशी अथवा “चुप-चुप” की एक ध्वनि धीरे-धीरे महसूस हो रही है।
आकाश मंडल में, धरती तल में, शांत सरोवर पर सोए कमलिनी के फूलों में अपने सौंदर्य से गर्वित नदी के विस्तृत वक्षस्थल (विशाल जल राशि) में, धरती में, जल में, आकाश में, हवा में, अग्नि में शाम के समय कवि को सिर्फ एक “चुप” शब्द प्रतिध्वनित होता है। इस चुप शब्द के अतिरिक्त कहीं कोई और शब्द गूंजता दिखाई नहीं दे रहा है।
सार यह है कि घर हो, ऑफिस हो या फिर खेत-खलिहान सभी जगह दिन भर कार्य-व्यापार संपन्न होता है। दिन की समाप्ति के साथ दफ़्तर बंद हो जाते हैं, पशुओं को खूंटे से बांध दिया जाता है, बच्चे खेल कूद कर थक जाते हैं। गृहणियां काम निपटाकर आराम करने की सोचने लगती हैं। ऐसे समय दिन के शोर का अंत हो जाता है और चारों तरफ चुप्पी छा जाती है।
संध्या रूपी सुंदरी मदिरा की मानो नदी बहाती आती है और थके हुए लोगों को प्यार से एक-एक प्याला पिलाती है। सभी को अपनी गोद में लेकर वह थपकी देकर सुला देती है और मीठे भुलावों के सपनों में ले जाती है। कवि का इन पंक्तियों से आशय है कि शाम के साथ-साथ दिनभर की थकान तन-मन पर हावी होने लगती है और अंततः थका तन-मन नींद के आगोश में मीठे सपनों के साथ खो जाता है।
शाम रात्रि में और फिर अर्ध रात्रि में बदल जाती है। सबके निद्रा लोक में विचरण करने लग जाने के बाद कवि का अपने प्रिय पात्र पर प्रेम बढ़ जाता है। प्रिय पात्र के बिछड़ जाने के कारण अव्यक्त रह जाने वाला कवि का प्रेम विरह की पीड़ा में बदल जाता है। विरह के बाद भी कंठ में कठोरता कवि के स्वभाव के कारण नहीं आ पाई है। उस समय उनके कोमल कंठ से अनायास ही राग विहाग (अर्धरात्रि में गया जाने वाला एक करुण राग) फूट पड़ता है।
इस प्रकार संध्या सुंदरी कविता के माध्यम से निराला जी ने मनुष्य के जीवन में संध्या के महत्त्व को छायावादी शैली में चित्रित किया है। काम के बाद आराम और आराम के पलों में बदलते प्राकृतिक परिवेश का सुंदर चित्रण करने के साथ-साथ उन्होंने विरहाकुल मन की व्यक्तिगत पीड़ा को भी समझाया है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
संध्या सुंदरी / सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
दिवसावसान का समय-
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक-
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’
है गूँज रहा सब कहीं-
व्योम मंडल में, जगतीतल में-
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में-
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में-
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में-
क्षिति में, जल में,नभ में, अनिल-अनल में-
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा ‘चुप चुप चुप’
है गूँज रहा सब कहीं-
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती।
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता
अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से,
आप निकल पड़ता तब एक विहाग!