लखियत कालिंदी अति कारी

लखियत कालिंदी अति कारी पद की व्याख्या

 

लखियत कालिंदी अति कारी।

अहौ पथिक कहियौ उन हरि साँ,

भयी बिरह जुर जारी ॥

गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धसि,

तरँग तरफ तन भारी।

तट बारू उपचार चूर,

जल-पूर प्रस्बेद पनारी ॥

बिगलित कच कुस काँस कूल पर,

पंक जू काजल सारी।

भौर भ्रमर अति फिरति भ्रमित गति,

निसि दिन दीन दुखारी ॥

निसि दिन चकई पिय जु रटति है,

भई मनौ अनुहारी ।

सूरदास-प्रभु जो जमुना गति,

सो गति भई हमारी ॥

 

प्रसंग

लखियत कालिंदी अति कारी पद कृष्ण भक्ति शाखा के अप्रतिम कवि सूरदास जी द्वारा रचित है। उनके लोक प्रसिद्ध ग्रंथ सूरसागर के भ्रमरगीत से यह पद लिया गया है।

 

संदर्भ

इस पद में सूरदास जी गोपियों की विरह दशा का चित्रण यमुना नदी के माध्यम से कर रहे हैं।

 

व्याख्या

उद्धव जी मथुरा से कृष्ण का संदेश लेकर आए हैं। गोपियां उनके संदेश के प्रत्युत्तर में अपनी दशा का बखान कर रही हैं।

इस पद में भी वे पहले यमुना नदी की वस्तुस्थिति बताकर अंत में उससे अपनी तुलना करती हैं। गोपियां कहती हैं कि हे उद्धव! देखिए, यमुना बहुत काली दिखाई दे रही है। उद्धव मथुरा से आए हैं इसलिए उन्हें पथिक कहकर भी संबोधित करते हुए गोपियाँ कहती हैं कि ऐसा लग रहा है जैसे पहाड़ रूपी पलंग से गिरकर यमुना भूमि में धंस गई है। वह विरह रूपी जूड़ी (बुखार) से तड़पने के कारण ऐसा कर रही है (कोई व्यक्ति यदि बुखार से तप रहा हो तो वह तड़पता है जिससे उसका रंग भी मद्धम पड़ जाता है) यमुना भी विरहाग्नि में जल रही है इसलिए जलने के कारण वह काली पड़ गई है।

यमुना के तट पर अस्तित्वमान बालुका राशि मानो उसकी औषधि है (आयुर्वेद में कई जड़ी बूटियों को पीस कर उनका चूर्ण बनाकर औषधि तैयार की जाती है । नदी के किनारे की रेत को भी यही बताया गया है)। नदी में मौजूद जल प्रवाह ऐसा है मानो जूड़ी बुखार उतरने के वक्त बहने वाला पसीना हो (यमुना के बहने वाले परनाले यानी जल की तीव्र धार को बुखार में तेजी से बहने वाला पसीना बताया गया है)।

किनारे पर मौजूद कुश और कांस (सफेद कांटेदार झाड़ियां) ऐसी हैं जैसे वे यमुना की बिखरी हुई केश राशि हैं। विरह में बेसुध यमुना रूपी नारी के केशों का हाल कुश और कांस जैसा बताया गया है। किनारे पर जल का प्रयोग करने से बना हुआ कीचड़ काला पड़ गया है और ऐसा लगता है जैसे भूमिशायी होने से मैली पड़ जाने वाली वह यमुना की साड़ी हो।

नदी में जगह-जगह भंवर बना रहे हैं (गोलाकार लहरों का नर्तन) वह जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति का चक्कर खाना है।

नदी भी कृष्ण वियोग में ज्वर ग्रस्त होकर मलिन अथवा काली हो गई है और उसे बार-बार चक्कर आ रहे हैं। नदी यहां से वहां दुख के कारण भटक (प्रवाहित हो) रही है।

तट के बाग में चकोर की प्रिया को पुकारने की बावरी टेर ऐसा लगता है जैसे स्वयं यमुना जी के हृदय की आवाज हो। वह विरही पक्षी जैसे यमुनाजी का ही अनुगामी हो। ये यमुना ही हैं जो श्यामसुंदर को आवाज लगा रही है।

सूरदासजी लिखते हैं कि गोपियों उद्धव से कहती हैं जो दशा या गति यमुना की है, ठीक वही दशा गोपियों की है। वे भी विरह के दुख से मलिन हो गई है। वेशभूषा, केशराशि अस्त व्यस्त है और कोई किसी को याद करे तो लगता है कि वे ही अपने श्याम को पुकार रही है। वे भी अपने होश में नहीं हैं, कहीं का कहीं घूमने लगती हैं, चक्कर खाकर गिर जाती हैं।

 

विशेष

1.यह संपूर्ण पद सूर की कल्पना शक्ति का अनुपम उदाहरण है।

2.जब मानवीकरण अलंकार को परिभाषित भी नहीं किया गया था (मानवीकरण पाश्चात्य अलंकार है जिसका प्रचलन आधुनिक काल के काव्य में हुआ है) तब सूरदास ने यमुना नदी के मानवीकरण के उदाहरण के माध्यम से गोपियों की विरह दशा समझाई थी।

3.तब एलोपैथ या होम्योपैथ नहीं था, सूर ने आयुर्वेद में वर्णित औषधि चूर्ण के रूप में बालुका राशि को चित्रित करने का अनूठा कार्य किया।

4.विरह में इंसान तो क्या प्रकृति तक प्रभावित होती है सूर के इस पद में यह भली भांति बताया गया है।

5.गेय मुक्तक पद है।

6.उत्प्रेक्षा, वृत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास एवं मानवीकरण अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।

7.वियोग शृंगार रस का यह पद अनुपम उदाहरण है।

8. ब्रजभाषा का सौंदर्य संपूर्ण पद में दर्शनीय है।

9. शैली मार्मिक है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

इसी तरह बिन गोपाल बैरिनि भई कुंजैं पद की व्याख्या हेतु नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें..

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