राम जपु राम जपु पद की व्याख्या :Ram japu ram japu pad ki vyakhya
“राम जपु राम जपु, राम जपु बावरे ।
घोर भव – नीर – निधि नाम निज नाव रे ॥१॥
एक ही साधन सब रिद्धि सिद्धि साधि रे ।
ग्रसे कलि – रोग जोग संजम समाधि रे ॥२॥
भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे ।
राम – नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥३॥
जग नभ – बाटिका रही है फलि फूलि रे ।
धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥४॥
राम – नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे ।
तुलसी परोसो त्यागि माँगे कूर कौर रे ॥५॥”
प्रसंग:
तुलसीदास सगुण भक्ति एवं राम भक्ति शाखा के अनन्य कवि हैं। प्रस्तुत पद उनके द्वारा रचित भक्ति काव्य की रचना विनयपत्रिका से लिया गया है।
संदर्भ:
राम जपु राम जपु पद में गोस्वामी तुलसीदास राम नाम की महिमा का गुणगान करते हुए राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा दर्शा रहे हैं।
व्याख्या:
राम जपु राम जपु पद में तुलसीदास जी बार-बार राम नाम को जपने के लिए कह रहे हैं। वह कहते हैं कि यह संसार भयानक दुखों का डेरा है। इस संसार रूपी सागर में सिर्फ़ राम नाम रूपी नाव से पार उतर सकते हैं। कहने का आशय है कि दुखों से भरे संसार में राम नाम के सहारे ही जीवन जिया जा सकता है और पार उतरा जा सकता है।
यही ऐसा साधन है जिसके बल से संसार की सभी रिद्धि-सिद्धियों को साधा जा सकता है क्योंकि कलयुग के प्रभाव से योग,संयम,समाधि जैसे शक्तियां क्षीण हो गई हैं। राम के नाम की महिमा का बखान करते हुए कवि लिखते हैं कि अपने अंत समय में सबका काम इस राम नाम से पड़ेगा।
यह संसार आकाश- वाटिका अर्थात आंखों का भ्रम है। (आकाश में बगीचा कैसे हो सकता है?) धुआं फैलने से जैसे कई आकृतियां बनती हैं लेकिन वास्तव में होती नहीं हैं। वैसे यह सांसारिक पदार्थ भी एक प्रकार के आंखों के भ्रम हैं। मनुष्य को इन भ्रमों से भ्रमित नहीं होना चाहिए।
तुलसीदास अंतिम पद्यांश में बताते हैं कि जो लोग राम के नाम का आसरा छोड़कर अन्य देवी-देवताओं की तरफ भागते हैं, वे लोग ठीक उनकी तरह होते हैं जैसे कोई श्वान (कुत्ता) थाली में परोसे हुए भोजन को छोड़कर द्वार-द्वार रोटी के लिए भटकता है।
विशेष:
1.पद में तुलसीदास जी की राम को सभी देवताओं में सर्वोपरि मानने की भावना का प्रकाशन हुआ है।
2.”जग नभ वाटिका” पंक्तियों में शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत सिद्धांत की झलक मिल रही है।
3.पद की भाषा प्रवाहमयी व संगीतात्मक है। पुनरुक्ति प्रकाश (प्रथम पंक्ति में), रूपक एवं अनुप्रस्थ अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है। शांत रस की प्रधानता है।
4.शैली प्रबोधनात्मक है।
© डॉ. संजू सदानीरा
धर्मवीर भारती की कविता ‘बोआई का गीत’ की मूल संवेदना : Boaai ka geet
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