रघुनन्दन त्रिवेदी लिखित स्मृतियों में पिता कहानी पर प्रश्नोत्तरी
© डॉ. संजू सदानीरा
स्मृतियों में पिता : रघुनन्दन त्रिवेदी
(किसी को याद करने का मतलब है उसका सपना देखना सपने में न तर्क ज़रूरी है न तरतीब)
एक
“अकेले थे तब कठोर थे जो कमाते खर्च हो जाता। कुछ बचता नहीं था। कोई चिन्ता भी नहीं थी। खाते, पीते और तानकर सो जाते थे। देखा जाय तो मजे में थे, पर कुछ अधूरा- सा भी था तो सही। एक किस्म का अनमनापन जीने का जैसे कोई मतलब नहीं। दरअसल कुछ होना था। कुछ इस तरह कि जैसे कोई सख्त और खट्टी-सी चीज किसी नरम और मीठी- सी चीज में तब्दील होना चाहे मसलन आम या बेर, तो वह क्या करें?” पिता कह रहे थे।
किस्से की शुरुआत दिलचस्प थी। मैं और भाई और बहन उत्सुक सुन रहे थे। माँ सिर्फ मुस्करा रही थीं।
मुस्कराती हुई माँ का चेहरा एकदम बहन से मिलता-जुलता था, वैसे ही जैसे कुछ उदास, कुछ गम्भीर होकर बहन अपने चेहरे को माँ-जैसा कर लिया करती।
अगर पिता को कहीं बाहर जाना होता तो वे माँ की उस मीठी सी मुस्कराहट को जरूर अपने साथ ले जाते। पर यह दिसम्बर की सुबह थी। पिता को कहीं जाना नहीं था। वे फुरसत मैं थे। हमारे बीच अँगीठी पड़ी थी। अँगीठी पर चाय उबल रही थी। माँ की मुस्कराहट को हमने चाय में घुल जाने दिया।”
फिर जो पिता ने कहा, सब मुझे याद है। वे कह रहे थे-उन्होंने शादी की, घर बसाया, बाद में हम आए और यों उनकी सारी कठोरता जाती रही।
दो
अक्सर पिता कहते- “मैं उस रोटी से प्यार करता हूँ जिसे मेरी स्त्री बनाती है और उस दरवाजे से भी, जहाँ वह प्रतीक्षा करती हुई मिलती है।”
नौकरी के सिलसिले में एक बार महीनों उन्हें अकेले ही दूसरे शहर में रहना पड़ा। उनकी सेहत गिरती जा रही थी।
“बाबू, यह आपको क्या हो गया?” भाई पूछ रहे थे।
“मैं ढाबे की रोटी खाता हूँ?” पिता ने कहा।
“ढाबे की रोटी में क्या होता है?” मैं उनकी बात का मतलब नहीं समझ सका था, इसलिए पूछ बैठा।
“सब-कुछ होता है, बस घर की गन्ध नहीं होती।” पिता के इस संक्षिप्त से उत्तर के बाद हम दोनों भाई चुप थे।
तीन
उन्हें मिठाई का शौक था। उनके एक दोस्त बता रहे थे कि दफ्तर से वापसी के वक्त मिठाई की दुकान आते ही वे चलते-चलते रुक जाते, शो-केस में सजी हुई मिठाइयों को गौर से देखते, सोचते और कुछ खरीदकर थैली में रख लेते।
“बाकी सब तो ठीक, लेकिन वे यहाँ खड़े रहकर सोचते क्या हैं?” मैंने पूछा।
माँ ने जवाब नहीं दिया। पिता भी चुप रहे। इस बात को कई साल हो गए।
अभी एक दिन मिठाई की दुकान के आगे खड़ा बर्फी को देखते हुए में सोच रहा था- इसे खाते हुए मेरे बच्चे का चेहरा कैसा हो जाएगा? और बस उसी वक्त मुझे पिता की चुप्पी याद आई।
चार
यह पहली बार हुआ था कि शरद पूर्णिमा का दिन था और पिता घर पर नहीं थे। उनकी नौकरी दूसरे शहर में थी, परन्तु महीने में एकाध बार वे जरूर घर आया करते। घर आने से पहले वे कभी कोई सूचना नहीं दिया करते थे, यह शायद इसलिए कि अपनी नौकरी की वजह से वे पहले घर आना तय नहीं कर पाते थे। ऐसा तो कई बार हुआ कि दो-तीन दिनों की लगातार छुट्टियाँ पड़ने पर भी वे घर नहीं आए और यह भी कई बार हुआ कि वे बिना किसी छुट्टी के अचानक ही घर आ गए।
ऐसे में उनका यों अचानक घर आ जाना हमारे लिए आकस्मिक होता। उन्हें देखकर हमें आश्चर्य होता। लेकिन माँ बिल्कुल स्वाभाविक दिखाई देतीं। बल्कि, बिना किसी सूचना के भी माँ को पता होता कि आज वे आयेंगे। माँ अनुमान लगाया करती थीं। जिस दिन माँ के अनुमान के मुताबिक पिता आने वाले होते, उस दिन सुबह के वक्त ही माँ हम तीनों (भाई या मुझे या बहन) को बता देतीं।
“कोई चिट्ठी आई है क्या?” भाई पूछते। उन्हें पता था पिता चिट्ठी नहीं लिखते, फिर भी। “नहीं” माँ मुस्करा देतीं।
“फिर?”
“फिर-विर कुछ नहीं। तुम दोनों शाम को जल्दी घर लौटना। ऐसा नहीं कि कॉलेज से निकलकर तू किसी दोस्त के घर चला जाए और यह इधर-उधर भटकता फिरे।” बिना किसी चिट्ठी के भी पिता के आने की खबर माँ को कैसे मिल जाती है, मुझे ताज्जुब होता। जिस दिन पिता को आना होता, उस दिन माँ पूरे घर की सफाई करतीं। पिता के कुछ कपड़े, जिन्हें वे सिर्फ पर आने पर ही पहनते और कभी वापसी के वक्त अपने साथ नहीं ले जाते, एक अलमारी में रखे रहते थे। साफ, धुले हुए होने के बावजूद उस सफेद कुरते और पायजामे को माँ फिर धोकर सुखा देतीं।
ऐसे दिनों में शाम होते हो माँ और बहन के बीच एक खेल-सा शुरू हो जाता। घर का काम करते हुए या काम से फारिग होकर वे दोनों आँगन में बैठीं पिता की नौकरी और उनकी आदतों के बारे में बातें करतीं। मैं उन दोनों के इर्द-गिर्द होता, जबकि भाई ऊपर अपने कमरे में रेडियो सुन रहे होते।
चावल बीनते हुए बीच में रुककर बहन पूछती-” अब इस वक्त बाबू क्या कर रहे होंगे?” माँ घड़ी की तरफ देखतीं, एक पल सोचतीं, फिर कहतीं वे दफ्तर से रवाना हो चुके हैं, बल्कि ठहरो, वे स्टेशन पहुँच गए हैं और प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” इसके बाद कुछ देर तक वे दोनों अपने-अपने काम में लगी रहती या फिर दूसरी बातें किया करतीं। थोड़ी देर बाद बहन पूछती-“अब बाबू क्या कर रहे हैं माँ?” और जवाब में माँ कहती-“वे ट्रेन में बैठे हैं और घर के बारे में सोच रहे हैं।”
इसी तरह रात दस ग्यारह बजे तक वे दोनों पिता की प्रतीक्षा किया करतीं। कभी-कभी मैं भी उनकी इस प्रतीक्षा में शामिल हो जाता। मैं इसे प्रतीक्षा का खेल कहता जिसमें माँ कभी नहीं हारतीं। वे हमेशा जीततीं, हालांकि कई बार मैं चाहता था कि किसी दिन माँ का अनुमान गलत हो जाए और पिता एक दिन बाद घर आएँ। परन्तु ऐसा कभी नहीं होता। ग्यारह बजे के आसपास का जो वक्त होता, वह इस खेल का सबसे रोमांचक समय होता। इन क्षणों में जैसे माँ की आँखों में दूरबीन लग जाती।
थोड़ी-थोड़ी देर बाद वे घर बैठी बातें बताने लग जात जो स्टेशन और घर के बीच में, रास्ते पर हो रही होतीं। उनके बताने का अंदाज भी कुछ अजीब-सा होता। ऐसा लगता जैसे सामने की दीवार पर कोई फिल्म चल रही हो और जिसे सिर्फ वे ही देख सकती हों। बहन और मैं, हम दोनों मूक श्रोता बने माँ की कमेन्ट्री सुनने लग जाते।
” अब तेरे बाबू स्टेशन से बाहर निकल आए हैं। वे रिक्शा वाले को बुला रहे हैं…… लो, अब रिक्शा चावड़ी बाजार की तरफ बढ़ गया है अरे, यह मिठाई लानी क्या जरूरी है?… मिठाई का पैकेट थैली में रखकर वे रिक्शा में बैठ गए हैं…. ग्यारह में दस मिनट बाकी हैं…. वे रिक्शा से उतर गए हैं अब घाटी चढ़ रहे हैं …. बस, पाँच मिनट और लगेंगे. लो, वे गली में मुड़ गए और अब घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं… और अब दरवाज़े के ऐन पास।”
माँ के चुप होते ही कुछ पल के लिए सब कुछ जैसे ठहर सा जाता। इस ठहरे हुए समय में मेरे मन में यह हिंसक-सी उम्मीद बंधती कि माँ का अनुमान गलत हो गया है, लेकिन ज्यों ही यह ठहरा हुआ समय बीतता, घर का दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई देती। बहन को पीछे छोड़कर मैं भागता हुआ दरवाजे तक पहुँचता और सचमुच पिता एक कोने में चप्पल खोलते मिल जाते।
लेकिन यह वाकया शरद पूर्णिमा का है। उस दिन पिता नहीं आए। माँ ने सुबह ही कह दिया था कि इस बार वे शायद ही आ पाएँ। पर यह बात मैं तो मान ही नहीं सकता कि भाई की सालगिरह हो और पिता नहीं आएं। हम तीनों में से किसी का जन्मदिन होता, पिता उस दिन घर रहते। यह एक अलिखित मगर पक्का नियम था घर का।
माँ ने उस दिन खीर बनाई थी और हम सब देर रात तक छत पर बैठे गप्पबाजी करते रहे। मेरी तरह बहन और भाई ने भी यही सोचा था कि इस बार माँ से चूक हो गई है, इसलिए माँ को अलग रखते हुए हमने प्रतीक्षा का खेल शुरू करना चाहा, पर हम तल्लीन नहीं हो पाए। माँ सुई-धागा लिये छत पर जरा दूर बैठी थी। वे इस रात इक्कीस दफा सुई में धागा पिरोया करतीं।
उनका विश्वास था कि इस रात चाँद की रोशनी में सुई पिरोने से आँखों की रोशनी तेज़ होती है। माँ की देखा-देखी बहन भी यही कोशिश करती। इस बार पिता नहीं थे तो भाई अनमने थे। मुझे दुःख था कि दुनिया में सिर्फ एक ही चाँद है। इससे पहले मैं और भाई और बहन चाँद को आइसक्रीम की पिघलती हुई डली कहकर हँसे थे। अब जब मैंने कहा था कि चाँद एक ही क्यों है तो बहन को मजाक़ सूझा-
“दुनिया बनाते वक्त ईश्वर ने तुमसे सलाह ली होती तो तुम क्या करते ?”
“यह, जितने तारे हैं उतने ही चन्द्रमा बनाने की सलाह दे सकता था।” भाई भी मजाक में शामिल थे।
“जरूर मैं यही कहता ईश्वर से।” मैंने कहा था।
“इससे तो अच्छा था तुम आसमान में आईने रख देने की सलाह देते और सिर्फ एक ही चाँद के कई प्रतिबिम्ब हो जाते।” माँ हमारी बातचीत सुन रही थीं, वे भी मेरी सनक का मजाक उड़ाने लगीं।
पिता उस रात नहीं आए; बल्कि तीसरे दिन कहीं जाकर उन्हें छुट्टी मिली पर आने पर उन्होंने वह सारी बातचीत जो उस रात छत पर हमारे बीच हुई थी, इस तरह बताई जैसे वे खुद शरद् पूर्णिमा की रात छत पर हमारे साथ मौजूद रहे हों। ऐसा कैसे हुआ? क्या वे कोई जादू जानते थे? हाँ, जादू तो वे जानते थे, पर वह जादू अलग किस्म का था… पिता का चीतों में तब्दील हो जाने का जादू।
यह जो करतूत थी असल में घर की करतूत थी। घर, उस दूसरे शहर से भी, जो करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर था और जहाँ पिता नौकरी करते थे, इतना साफ दिखाई देता था उन्हें कि माँ की तरह वे भी आसानी से अनुमान लगा सकते थे।
पाँच
(और सपने से बाहर एक पिता की जीवनी)
अपनी जिन्दगी में पिता वह सब हो सकते थे जो वे खुद या हम चाहते। घर में सबसे छोटा मैं था। मेरी इच्छा थी उन्हें घोड़ा बनकर खूब तेज भागते रहना चाहिए। भाई मुझसे बड़े थे। वे चाहते थे पिता नाव बनें ताकि बारिश के दिनों में हम चाहें तो नदी पार कर सकें। माँ और बहन का खयाल था कि उन्हें छाते में बदल जाना चाहिए जो धूप में भी उतना ही जरूरी होता है, जितना बारिश में।
घर में किसी एक की भी इच्छा अधूरी रह जाती तो पिता कष्ट पाते, इसलिए जरूरत के मुताबिक वे घोड़े और नाव और छाते में बदलते रहे।
“बदलना अपने को थका लेना है”-एक दिन पिता ने कहा। उनकी उम्र तब साठ साल थी। वे सचमुच थके हुए घोड़े की तरह हाँफ रहे थे और अब लालटेन या कुतुबनुमा जैसी कोई चीज हो जाना चाहते थे। हम लेकिन चाहते थे कि वे बच्चों की पसन्द के हिसाब से हारमोनियम बनें और कमरे में बैठ जाएँ। एकदम नई चीज था शुरू-शुरू में हारमोनियम घर के लिए। कुतूहलवश बच्चे उन्हें घेरकर बैठ जाते और जब मन होता, बजाते।
पर जल्दी ही उनके सुर बिगड़ गए। यह भी तब हुआ जबकि बच्चे हारमोनियम से उकता गए थे। हारमोनियम बने पिता बच्चों की उपेक्षा से आहत होकर स्वतः बजने लगे-कई बार तो आधी रात हो जाने पर भी। असल में वे चाहते थे कि हम सब पहले की तरह चकित-से उनका किसी भी चीज में बदल जाने का जादू देखें और उन्हें घेरे रहें, शायद इसी कारण बिना किसी से पूछे एक दिन वे पेड़ हो गए। देखा जाए तो यहीं से उनकी कठिनाइयों का सिलसिला शुरू हुआ।
पेड़ में तब्दील होकर घर में वे जहाँ बैठते, वहीं धँस जाते। कभी भाई के कमरे में, कभी मेरे कमरे में। बार-बार उन्हें उखाड़कर दूसरी जगह ले जाना पड़ता जो एक मुश्किल काम था। इसलिए एक दिन हमने उनसे प्रार्थना की कि वे पेड़ के सिवाय कुछ और हो जाएँ। पेड़ होकर पिता खुद कष्ट पा रहे थे, क्योंकि उखाड़ते वक्त न चाहते हुए भी ज़रा-सी बेरहमी हो जाती और जड़ों के टूटने से उनका शरीर थर-थर काँपता। हमारी बात मानते हुए वे फिर से पिता बने, मगर उनके शरीर का कम्पन यथावत् रहा।
डॉक्टर के मुताबिक इस बीमारी का नाम पार्किन्सन था और यह लाइलाज थी। लेकिन डॉक्टर को पता नहीं था कि पिता खुद को बदलने का जादू जानते हैं। वह एक पर्ची पर कुछ दवाइयों के नाम लिखकर घर से अभी गया ही था कि पिता के चेहरे पर मुस्कराहट आई। बेशक वे कमज़ोर हो चुके थे, मगर इतने भी नहीं कि एक बार और न बदल सकें। उनका चेहरा लाल था। हाथ-पैर काँप रहे थे। वे बदलने की कोशिश कर रहे थे। इस कोशिश में तीन-चार मिनट लगे। इन तीन-चार मिनटों में ही शरीर की पूरी ताकत लगाकर वे एक तस्वीर में तब्दील हुए और मेरे कमरे में टीवी के दायीं ओर जहाँ दीवार खाली थी, टँग गए।
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