मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई पद की व्याख्या

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई पद की व्याख्या

 

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥।

छाँड़ि दी कुल की कानि कहा करिहै कोई।

संतन ढिंग बैठि-बैठि लोक लाज खोई॥

चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।

मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥

अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।

अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।

माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥

भगत देख राजी हुई जगत देखि रोई।

दासी “मीरा” लाल गिरिधर तारो अब मोही॥

 

प्रसंग

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई पद लोकप्रिय कृष्ण भक्त कवयित्री मीरांबाई की लेखनी से निःसृत एक लोक प्रचलित पद है।

 

संदर्भ

इस पद में मीरां ने अपनी अनन्य कृष्ण भक्ति को प्रकट करने के साथ-साथ अपने साहस और दृढ़ निश्चय को भी प्रकट किया है।

 

व्याख्या

मीरांबाई एकमात्र श्रीकृष्ण को अपना कुटुंबी मानते हुए सार्वजनिक घोषणा करती हैं कि उनके तो केवल श्री कृष्ण हैं शेष कोई नहीं। वे यह भी कहती हैं कि जिसके सर पर मोर मुकुट है वही अर्थात श्री कृष्ण उनके पति हैं। मीरां ने पिता, माता, भाई, बंधु सभी को परख लिया,अपना कोई नहीं होता। सभी रिश्ते स्वार्थ एवं व्यवहार के हैं। “परिवार की मर्यादा” नाम का बंधन मीरां ने त्याग दिया। अब जिसे जो करना हो कर ले। मीरां अब संतों के निकट बैठती हैं, ज्ञान चर्चा करती हैं, भगवद् भजन करती हैं, जिससे तत्कालीन समाज में उनकी छवि धूमिल हुई क्योंकि शुरू से यह सारे कार्य व्यापार पुरुषों के द्वारा किए जाते थे।

इस प्रकार घर-बार छोड़ कर साधु बनना और साधुओं के बीच उठना-बैठना स्त्री सुलभ मर्यादा के ख़िलाफ़ समझा जाता था, जिसका मीरां ने अपने आचरण से विरोध किया। मीरां ने कीमती वस्त्रों का त्याग करते हुए महात्माओं वाला कंबल ओढ़ लिया ( तमाम ऐश्वर्य त्याग दिए)।

मोती, मूंगे (आभूषण) उतार कर अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को प्रिय वनमाला पिरोई। उन्होंने आंसुओं के जल से सिंचित कर प्रेम की बेल बोई। मीरां ने अब तक इतने कष्ट उठा लिए कि वह प्रेम की बेल आनंद रूपी फल प्रदान करने लगी।

उन्होंने दूध की मथनी को पूरा मन लगाकर बिलोया (मथा) और उस दही को मथ कर घी निकाल लिया एवं छाछ को छोड़ दिया। आशय है कि उन्होंने संत, महात्माओं, ज्ञानियों, मुनियों के साथ ईश्वर भक्ति पर लंबी-लंबी चर्चाएं की। इन चर्चाओं के बाद धन- सम्पदा और शेष देवी- देवताओं इत्यादि सब को छोड़कर इन्होंने कृष्ण भक्ति रूपी मक्खन को संभाल लिया। मीरांबाई के लिए धन-संपदा, मान-पुरस्कार कोई अर्थ नहीं रखता। इसलिए जब भी सांसारिक कार्य- व्यापार की बात आती वह निराश होतीं और भक्तों से मुलाक़ात होती तो उन्हें अति प्रसन्नता होती।

मीरां कहती हैं कि वे कृष्ण की दासी हैं और कृष्ण ही उनका उद्धार करें। अब वही उन्हें सांसारिक बंधनों से सर्वदा के लिए मुक्त कर दें।

 

विशेष

1.पद के माध्यम से मीरां की अटूट आस्था और कृष्ण के प्रति दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है।

2.परिवार जब मुक्ति मार्ग या साधना में बाधक बने तो वह खटकने लगता है, पद में ऐसे भाव भी व्यक्त किए गए हैं।

3.अपने मन के अनुकूल लोगों का साथ हमें भला लगता है और विपरीत लोगों का साथ खारा-यह भी कवयित्री ने स्पष्ट कहा है।

4.जिस व्यक्ति को उच्च भाव भूमि पर विचरण करना जँच जाता है, उसके लिए ऐश्वर्य, धन-संपदा आकर्षणहीन हो जाते हैं।

5.स्त्री जीवन की कठिनाइयों और दृढ़ निश्चय का प्रतिफल भी मीरां ने इस पद में दर्शाया है।

6.’प्रेम बेलि’ और ‘आनंद फल’ में रूपक अलंकार है।संपूर्ण पद में अंत्यानुप्रास है।

7.माधुर्य गुण और वैदर्भी रीति है।

8.गेय मुक्तक पद है।

9.राजस्थानी भाषा का सौरभ मुग्ध करने वाला है।

10.शैली मार्मिक है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

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