महिला दिवस : कुछ अनुत्तरित प्रश्न
एक दिन काफी नहीं है आज़ादी का, और ये एक दिन यानी महिला दिवस भी मिला कहां है, ये तो “शुभकामनाएं” हैं इनसे काम न चलना। सदियाँ लगी हैं यहां तक आने में, सदियाँ लगेंगी अभी हालात को देखते हुए।
नहीं, मैं निराशावादी नहीं हूँ. आशावादी हूँ, इसीलिए सोच रही हूँ -वो सुबह कभी तो आएगी। अभी बहुत घना अँधेरा है। अभी तो घर भर के कपड़े मुफ्त में धोने वाली कपड़े साफ न धोने की शिकायत सुन रही है, दोनों टाइम पूरे परिवार का खिला पिलाकर पेट भरने वाली गृहिणी पर घटिया खाना खिलाने के चुटकुले बन रहे हैं। जिस दिन मैडम को ऑफिस के लोग कह देंगे -“क्या मैम, सर को कहना आपकी साड़ी साफ धोए”, उस दिन थोड़ा सा महिला दिवस मनाएंगे।
जिस दिन ऑफिस जाते टाइम पिता, पति या भाई अपने हाथ से टिफिन बनाकर पकडाएँगे, थोड़ा सा महिला दिवस मनाएंगे। जिस दिन मां की घर में मौजूदगी में भी पिता, चाचा, ताऊ बच्चे की पॉटी साफ कर देंगे, थोड़ा सा महिला दिवस मनाएंगे। जिस जिन उठाया पर्स और निकल गये अकेले घूमने, घर के फैसले लेने,राजनीति पर अपनी बात बिना पति या ससुर के सहारे मंचों पर रखने, उस दिन महिला दिवस मनाएंगे और तब वूमेंस डे बस याद किया जायेगा.ये “थोड़ा-थोड़ा”आयेगा ज़रूर!
आज़ादी का ये दिन बहुत मुश्किल से मिला है,जिसमें सिवाय “आज़ादी” शब्द के ज्यादा कुछ नहीं। एक दिन काफी नहीं है ,और ये एक दिन भी मिला कहां है, ये तो “शुभकामनाएं “हैं. शुभकामनाओं से मन बहलता है बस। अभी तो संविधान ने जो अधिकार दिये हैं, उन को लागू करना तो छोड़िए,स्वीकारने में पेट दुख रहा पितृसत्तात्मक समाज का.इन थोथी बधाइयों से काम न चलना. हर दिन की बराबरी चाहिए. (बराबरी में लोगों को बदला सुनाई देता है ,ये और बात है।
सदियाँ लगी हैं यहां तक आने में, सदियाँ लगेंगी अभी हालात को देखते हुए। संपत्ति का अधिकार, पिरीयड लीव, घरेलू हिंसा, समान वेतन बहुत कुछ पर काम हुआ, बहुत सारा काम होना बाकी है. उसके बाद बात करनी है, फुर्सत पर, एकांत पर, अपने स्पेस पर. बात निकली है तो दूर तलक जाएगी…
फुले दंपति और बाबा साहब अम्बेडकर जैसे अपने पुरखे- पुरखिनों की मेहनत को सलाम है. मुझे याद है रोज़ा लक्ज़मबर्ग-,सिमोन द बउआ, इसीलिए सोच रही हूँ -वो सुबह कभी तो आएगी.अभी सारे ठिये, टपरी,थड़ी और खेल-मैदानों पर मर्दों का कब्जा है जब हर जगह ठहाके लगाती,बेखौफ खिलखिलाती अपने स्पेस,अपनी एजेंसी को क्लेम करती लड़कियां दिखाई देने लगेंगी तब हैप्पी वूमंस डे मनाएंगे और तब महिला दिवस बस याद किया जायेगा कि कैसे हमारी पुरखिनों के अनवरत प्रयासों से हम इस उजाले में सांस लेने लगे हैं!!!ये “थोड़ा-थोड़ा” आयेगा जरूर एक दिन।
याद रखिए, कितनी भी ऊंची दीवार हो, खिड़की उसी से निकलती है, दरवाजे वहीं बनते हैं, हवा में न खिड़कियाँ होती हैं, न दरवाजे।
© डॉ. संजू सदानीरा
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