महादेवी वर्मा रचित मैं नीर भरी दुख की बदली कविता की मूल संवेदना
महादेवी वर्मा हिंदी कविता में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनका नाम साहित्य जगत में अत्यंत आदर से लिया जाता है। छायावाद के प्रतिपादक कवि चतुष्टयी में एकमात्र महादेवी ही थीं जो अंत तक अपने को छायावाद की मूल विशेषताओं से जोड़कर काव्य-सृजन करती रहीं। नीहार,नीरजा,सांध्यगीत इत्यादि इन के प्रमुख काव्य संकलन हैं,जिनके एकीकृत संकलन “यामा” पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।
मैं नीर भरी दुख की बदली महादेवी वर्मा की अत्यंत लोकप्रिय एवं हृदयग्राही कविता है। इस कविता में छायावाद की प्रमुख विशेषताएं यथा वैयक्तिकता,घनीभूत पीड़ा एवं संगीतात्मकता इत्यादि को देखा जा सकता है।
कवयित्री अपने जीवन को ही एक प्रकार से छोटी-सी कविता के माध्यम से चित्रित कर रही हैं। वह लिखती हैं कि मद्धम-मद्धम धड़कते हृदय में प्राचीन मौन बसता है। उनके रुदन से क्षत-विक्षत विश्व को हंसी आती है। यहां आशय है कि दुखी विश्व मसखरे की रुलाई को नाटक मानकर हंसता है, गोया रुलाई झूठी हो! कवि भी जब करुणा रचता है तो संसार का मनोरंजन होता है। नैनों में अनवरत अश्रु धारा वश जलन होने से कवयित्री को वहां दीपक जलने का एहसास हो रहा है, तो पलकों के अश्रु जैसे निर्झरणी का रूप ले चुके हैं।
अतिशय दुःख-भार के बाद भी कवयित्री अवसाद को निकट नहीं आने देती हैं। वह बताती हैं कि उनका पग-पग संगीत भरा है। श्वास-निश्वास में सौरभ समाया है अर्थात संसार की मायावी सुखद क्रियाओं में न होकर भी स्वभावगत उच्चता के कारण वे आनंद रस का रसास्वादन कर लेती हैं। आकाश के विविध रंग कवयित्री को विविध वर्णी दुकूल प्रतीत होता है, तो छाया में मलय पवन की सुहानी छांव का भान होता है।
“मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल” पंक्ति में गंभीर अर्थ समाहित है। स्त्रियों-युवतियों का होना मात्र इस विश्व की दृष्टि बंकिम कर देता है। बालिका शिशु का यहां मुक्त हास्य से नहीं माथे की सिलवटों से स्वागत किया जाता है। महादेवी की कविता की इन पंक्तियों का अर्थ पाठांतर से अत्यंत विस्तृत पाया जा सकता है।
आए थे मस्त मौला और जाएंगे संसार को प्रेमिल कर- यह वे “नवजीवन अंकुर बन निकला” शब्दों से जताती हैं । उनका आना और जाना उनके लिए अलग-अलग है। आने पर जग ने स्वागत किया या नहीं, जाते-जाते वे संसार को अपनी करुणा से तनिक नरम करके जाएंगी।
“पथ को न मलिन करना आना” अर्थात कहीं भी जाने पर वहां कलुष न फैलाना कवयित्री का स्वभाव है और वापसी में व्यर्थ की चर्चा न छोड़ कर आना, चुपचाप निकल आना उन्हें पसंद है।
उनकी एक ही ख़्वाहिश है कि उनका आना अखिल विश्व में सुख की एक मीठी सिहरन की तरह याद किया जाए।
अपने लघु जीवन को अत्यंत प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त करते हुए वे लिखती हैं कि निरवधि विस्तृत आकाश का एक भी कोना उनका न हो। वह बस यात्री हों, स्थाई निवासी नहीं! इनका परिचय और इतिहास इतना ही है कि वह भरे-पूरे फैले आसमान में जल की छोटी बदली की तरह से आई हैं और बरस कर चली गईं।
इस प्रकार मैं नीर भरी दुख की बदली कविता न सिर्फ़ कवयित्री के मन के स्तुत्य भावों का स्पष्ट प्रकाशन है, वरन छायावाद की एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता के पद पर भी विराजमान है। कविता अपने भाव संप्रेषण में भी पूरी तरह से सफल है।
© डॉ. संजू सदानीरा
मैं नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग पग संगीतभरा,
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली !
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रजकण पर जल-कण हो बरसी
नवजीवन अंकुर बन निकली !
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली !
इसी तरह अगर आप महादेवी वर्मा की कविता तुम मुझमें प्रिय फिर परिचय क्या की मूल संवेदना पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं..
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