मन पछितैंहैं अवसर बीते पद की व्याख्या : Man pachhitaihain avsar beete pad ki vyakhya

मन पछितैंहैं अवसर बीते पद की व्याख्या : Man pachhitaihain avsar beete

 

“मन पछितैंहैं अवसर बीते।

दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥

सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।

हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥

सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।

अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥

अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।

बुझै न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घीते॥”

 

 

प्रसंग-

प्रस्तुत मन पछितैंहैं अवसर बीते पद गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित भक्ति कृति “विनय पत्रिका” में संकलित है।

 

सन्दर्भ-

इस पद में तुलसीदास जी जीव को विषय वासनाओं का त्याग कर राम भक्ति में रत होने की प्रेरणा दे रहे हैं। एक प्रकार की चेतावनी भी कहा जा सकता है उनकी बातों को।

 

व्याख्या-

मन पछितैंहैं अवसर बीते पद मे तुलसीदास जी कामवासना में घिरे मनुष्य को समझाते हुए कहते हैं कि अवसर बीत जाने के बाद मन को बहुत पछतावा होगा। अभी समय है, अभी से ईश्वर भजन में लीन हो जाओ क्योंकि दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी इसे व्यर्थ गंवाकर अंत में केवल पश्चात आप ही हाथ आएगा। मन वचन और कर्म से अभी से हरि भजन में लगाने में इसे विषयों से विरत करने में आसानी होगी।

सहस्त्रबाहु व रावण जिन्होंने उम्र भर धन ऐश्वर्य जोड़ा अंत समय में भी वह भी काल के कुचक्र से बच नहीं पाए। अंत में वे भी इस संसार से रिक्तहस्त ही गए। तमाम धन संपदा उनके कोई काम नहीं आ सकी।

पत्नी और पुत्र सहित सभी बंधु बांधव सिर्फ अपने स्वार्थवश ही जुड़े रहते हैं। जिनके लिए इंसान सभी पाप कर्म करता है, अंत में वे सभी रिश्तेदार उसका त्याग कर देते हैं और उन पाप कर्मों का कुफल उसे ही भुगतना पड़ता है। तुलसी कहते हैं कि लोगों को स्वयं ही उनका त्याग कर ईश्वर के चरणों में रम जाना चाहिए।

तुलसी नर नारी को जगाते हुए कहते हैं कि वे लोग अपनी जड़ निद्रा का त्याग करके भगवान के प्रति भक्ति भाव में मन लगाएं। वे तर्क देते हैं कि विषय वासना कामाग्नि है और इसमें मन लगाना आग में घी डालने के समान है। इन मोहों से पार पाने के लिए तुलसी प्रभु भक्ति का मार्ग सुझाते हैं।

विशेष-

1.तुलसीदास ने विषय वासनाओं को त्याज्य बताया है।

2. दुनिया के सारे रिश्ते स्वार्थ के हैं, सिर्फ राम के साथ ही निस्वार्थ रिश्ता है- तुलसी यह भी बताते हैं।

3. शैली उपदेशात्मक है, भाषा ब्रजभाषा है।

4. शांत रस का पूर्ण परिपक्व हुआ है।

5. ‘काम अगिनी’ में रूपक अलंकार है। संपूर्ण पद गेय मुक्तक है।

 

© डॉ. संजू सदानीरा

 

 

Leave a Comment