बूढी काकी कहानी की मूल संवेदना
बूढी काकी हिन्दी के अमर कथाशिल्पी प्रेमचंद की एक अत्यंत लोकप्रिय सामाजिक कहानी है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचन्द ने भारतीय परिवारों में रिश्तों की दयनीय स्थिति और लालच की मानसिकता पर प्रकाश डाला है।
कहानी एक गाँव के परिवार की है, जिसमें एक दम्पत्ति (पति-पत्नी) अपने तीन बच्चों के साथ रहते हैं। रहने को तो उस परिवार में एक बूढ़ी औरत भी रहती है, जिसके नाम पर इस कहानी का शीर्षक बूढी काकी रखा गया है लेकिन वह उस परिवार मे सिर्फ़ रहती है ‘साथ’ नहीं रहती है या यूँ कह लीजिए कि उसे साथ रखा नहीं जा रहा है, बस वह रह रही है।
परिवार के मुखिया के रूप में बुद्धिराम और रूपा, (पति-पत्नी),जिस बुढ़िया को नहीं रखना चाहते थे,वह रिश्ते में बुद्धिराम की काकी और उसकी पत्नी की सास लगती थी। कई साल पहले बुढ़िया के पति का देहांत हो गया। उसके बेटे भी एक-एक करके युवा होने से पहले ही गुज़र गए। उससे अपनी सारी सम्पत्ति अपने नाम लिखवाते समये बुद्धिराम ने ढेर सारे वादे किए थे (कि वे उनकी खूब सेवा करेंगे) लेकिन बाद में वे अपने किए सारे वादे भूल जाते हैं।
प्रेमचंद ने इस कहानी में बूढ़ी काकी के चरित्र-चित्रण में मनोवैज्ञानिकता का अच्छा परिचय दिया है। बूढी काकी इतनी बूढ़ी हो चुकी है कि उनके समस्त अंग शिथिल हो चुके हैं। सिवा उनकी जिह्वा के स्वादग्रन्थियाँ अत्यन्त सक्रिय थी और इससे दुःखी होकर वह बहुत ही बुरी तरह रोती थी।
कहानी में एक दृश्य वह आता है,जब बुद्धिराम के बड़े बेटे का तिलक समारोह होता है। घर में उत्सव का-सा माहौल है। मेहमान आए हैं। पूरे गाँव को खाने पर न्योता है।हलवाई और नाई सब अपने-अपने काम पर लगे हुए हैं। बड़े-बड़े कड़ाह में पूरी,सब्जी और अन्य मिठाईयाँ बनाई जा रही हैं। रूपा तैयारियों और भाग-दौड़ में व्यस्त होने के कारण बुरी तरह थक गई है। उधर बूढ़ी काकी की कोठरी में हवा के माध्यम से मिठाईयों की खुशबू पहुँच रही है। इस खुशबू से उनका मन मिठाई खाने के लिए बुरी तरह बेचैन हो जाता है।
कहानीकार ने दिखाया है कि बूढ़े लोग न सिर्फ़ अधीर होते हैं बल्कि समय को लेकर उनका ज्ञान भी कमजोर हो जाता है। बूढ़ी काकी से यह गलती दो बार होती है। भोजन करने की चाह में एक बार तो हलवाई की भट्टी के पास वे कढ़ाई के निकट आ जाती है, और रूपा द्वारा अपमानित की जाती है। दूसरी बार जब मेहमान पंगत में बैठे होते हैं और भोजन चल ही रहा होता है, तभी वह वहाँ पहुँच जाती है। इस बार वह सिर्फ अपमानित ही नहीं की जाती बल्कि बुद्धिराम उसे घसीटते हुए उसकी कोठरी तक ले जाते हैं और दोनो हाथों में उठाकर जोर से खटिया पर पटक देते हैं।
इस झटके से बूढ़ी काकी बेहोश हो जाती है। घण्टों बाद जब उसको होश आता है,तो वो पाती है कि घर में कोई आवाज नहीं हो रही है और चारों तरफ अँधेरा है। उसको इस बात का दुःख होता है कि सब लोग खाकर चले और के लोग काम निपटाकर भोजन करके सो गए। उनके मन में ख़याल तक नही आया कि बुढ़िया को भोजन दें।
इसके साथ ही रूपा के माध्यम से हृदय परिवर्तन,ईश्वर का कोप और ग़लती का पश्चाताप दिखाकर कहानी का अन्त सुखद कर दिया गया है।
एक तरफ़ ब्राह्मणी का अपमान,ईश्वर के शाप का डर,बच्चों को बख्श देने की रूपा की प्रार्थना लेखक की रूढिवादी सोच को दर्शाती है तो दूसरी तरफ़ उनकी कहानी कला के विकास को भी दर्शाती है. यह उनकी आदर्शोंन्मुखी यथार्थवादी कहानी है. इसके बाद पूस की रात, नशा, मंदिर और कफ़न जैसी कालजयी यथार्थवादी कहानियों की रचना कर उन्होंने अपनी प्रगतिशील विचारधारा का परिचय दिया.
बूढी काकी कहानी के माध्यम से लेखक ने भारतीय आदर्श परिवारों की पोल खोल दी है.लोभ जहाँ सिर्फ ईश्वर के भय से पश्चाताप में परिणत होता है विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर यह कहानी अनेक कक्षाओं में पढ़ाई जाती है.
© डॉ.संजू सदानीरा
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