बिन गोपाल बैरिनि भई कुंजैं पद की व्याख्या

बिन गोपाल बैरिनि भई कुंजैं पद की व्याख्या

 

बिन गोपाल बैरिनि भई कुंजैं।

तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं॥

बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजैं।

पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भईं भुंजैं॥

ऐ ऊधो कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजैं।

सूरदास प्रभु को मन जोवत अँखियाँ भईं बरन ज्यों गुंजैं॥

 

प्रसंग

बिन गोपाल बैरिनि भई कुंजैं पद महाकवि सूरदास द्वारा रचित है। कृष्ण के मथुरा गमन के बाद वहां से उनके द्वारा उद्धवजी गोपियों को समझने के लिए भेजे जाते हैं। गोपियां अपनी विरह कथा और निर्गुण की व्यर्थता उद्धव के समक्ष दर्शाती हैं। यह सारा वृत्तांत सूरसागर के भ्रमरगीत में अत्यंत मार्मिकता एवं रोचकता के साथ चित्रित है।

 

सन्दर्भ

इस पद में गोपियां उद्धव के सम्मुख अपनी वियोगजनित पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए अत्यंत द्रवित अवस्था में प्रतीत हो रही हैं। वही दारुण पीड़ा इस पद में व्यक्त हुई है, जो उद्धव गोपी संवाद के अन्य कई पदों में हमने देखी है।

 

व्याख्या

गोपियां उद्धव जी से कहती हैं कि बिना गोपाल (कृष्ण) के ब्रज की कुंज गलियां तो जैसे उनकी बैरिन (शत्रु) हो गई हैं । जो बाग-बगीचे,लताएं श्रीकृष्ण के साथ रहने पर अत्यंत शीतलता का आभास करवाती थीं वही अब तीव्र ज्वाला का पुंज बन गई हैं। अर्थात संयोग में वही सारे कुंज उपवन बहुत सुहावने लगते थे, अब जिनको देखते ही उन्हें कृष्ण की स्मृतियां विह्वल करती हैं। अतः वह अब ज्वाला पुंज (अग्नि की लपटें) सदृश्य प्रतीत होते हैं।

 

उद्धव से गोपियां कहती हैं कि अब तो ऐसे लगता है कि व्यर्थ ही तो यह यमुना प्रवाहित हो रही है। व्यर्थ ही ये पक्षी चहचहाते हैं। व्यर्थ ही कमल पुष्पित पल्लवित हो रहे हैं और व्यर्थ में ही भंवरे गुंजार कर रहे हैं। बिना कृष्ण के सानिध्य इनका कोई अर्थ नहीं है। वायु के झोंके, जल की धार, कर्पूर, संजीवनी बूटी और चंद्रमा की किरणें इत्यादि समस्त शीतल करने वाले उपकरण अब सूर्य की ज्वाला के समान दाहक लग रहे हैं।

 

गोपियां उद्धव जी से विनती करती हैं कि वे श्रीकृष्ण से कहें की विरह उन्हें छुरी चुभो-चुभो कर मार रहा है अर्थात विरह अग्नि के साथ-साथ विरह शूल उन्हें घायल कर रहा है।

 

सूरदास जी लिखते हैं कि गोपियां उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण की राह तकते तकते गोपियों की आंखें गुंजा की तरह रक्त वर्णी (लाल) हो गई हैं।

 

विशेष

1.संयोग अवस्था में जो प्रकृति लुभावनी लगती है वियोग अवस्था में वही हृदय को विरह ताप से तपाने लगती है।

2.प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण किया गया है।

3.अंत्यानुप्रास अलंकार संपूर्ण पद में व्याप्त है

4.ब्रजभाषा का स्वाभाविक सौंदर्य द्रष्टव्य है।

5.मुक्तक पद है।

6.शैली मार्मिक है।

7.विप्रलंभ शृंगार के साथ-साथ गोपियों की दशा में करुण रस के भी दर्शन होते हैं।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

 

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