प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएं/प्रवृत्तियां
आधुनिक समय की तीन प्रमुख विचार शक्तियां ऐसी हैं जिन्होंने हमारे समाज, जीवन और सोच को गहराई तक प्रभावित किया है। वे तीन शक्तियां हैं- डार्विन, मार्क्स और फ्रायड। डार्विन ने इस जगत के निर्माण में किसी सर्वशक्तिमान सत्ता की भूमिका को चुनौती दी। मार्क्स ने समाज के संदर्भ में नए विचार दिए और फ्रायड ने मानव की कामवासनाओं जनित कुंठा का उद्घाटन किया। भौतिक विज्ञान और युद्धों ने नई समस्याओं और नए भावों को जन्म दिया। उधर छायावाद की भांति प्रगतिवाद भी रूढ़िग्रस्त होने लगा इन सबसे ऊबकर तरुण (युवा) कवियों की चाह नई-नई राहों के अन्वेष (तलाश) में नए-नए प्रयोग की ओर उन्मुख हुई।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि 1943 ईस्वी में अज्ञेय के संपादन में तारसप्तक का प्रकाशन हुआ जिसमें सात कवियों की प्रयोगधर्मी कविताएं पहली बार सुनियोजित ढंग से हिंदी संसार के सामने प्रस्तुत की गईं। यह भी ध्यातव्य भी है कि जैसे प्रगतिवादी काव्य का अंग्रेजी के ‘प्रोग्रेस’ शब्द से कोई सीधा तालमेल या लेना देना नहीं है वैसे ही प्रयोगवाद का भी ‘एक्सपेरिमेंट’ शब्द से सीधा संबंध नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध और आर्थिक मंदी में काव्य की जनजीवन से दूरी और अन्य समस्याओं से रूबरू इन कवियों ने अपनी कविताओं में (नव्य) चेतना को नवीन भाषा,अभिव्यक्ति,शिल्प,प्रतीक और बिंबो के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इनकी अभिव्यक्ति के लिए नए साधन आवश्यक हो गए। सेफ्टी पिन से लेकर कूड़े से भरी गाड़ी सभी उनके काव्य विषय में सम्मिलित होकर गौरवान्वित हुए। दूसरे शब्दों में कलागत ही नहीं भावगत भी नवीन प्रयोगों को स्वीकृति और सम्मान प्रयोगवाद में मिला है।
प्रयोगवाद के प्रमुख कवि
अज्ञेय,धर्मवीर भारती,गिरजाकुमार माथुर, कुंवर नारायण, धर्मवीर भारती,भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर, कीर्ति चौधरी और सुमन राजे इत्यादि प्रयोगवाद के प्रमुख कवि हैं।
प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएं / प्रवृत्तियां निम्नत: प्रस्तुत की जा सकती हैं।
1.मनोजगत की अभिव्यक्ति –
प्रयोगवादी कविता द्वारा जीवन की अनुभूतियों को गहराई से व्यक्त किया गया है। इसमें व्यक्ति के बाहरी यथार्थ एवं आंतरिक दोनों में पर्याप्त अंतर दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य का बाहरी व्यवहार उसकी संवेदना से भिन्न है। उसका मन निराशा, कुंठाओं, हीनता, घुटन आदि स्थितियों से भरा है परंतु वह अपने बाहरी आचरण के द्वारा उन्हें व्यक्त नहीं करता है। अपनी मन:स्थितियों को बाहरी परिवेश में व्यक्त करने वाले व्यक्ति बहुत कम हैं। इस संबंध में एक उदाहरण दृष्टव्य है ।
उदाहरण:
“ऊपर ऊपर उज्ज्वलता ,
भीतर कहीं
गहरी अंधेरी सुरंगों को
लगातार लांघता क्लांत
पहुंचता कहीं नहीं ,
करूं क्या, कुछ तो कहो! “
-डॉ संजू शर्मा
2. नग्न यथार्थवाद अथवा यौन वर्जनाओं के प्रति असंतोष-
यौन वर्जनाओं की अभिव्यक्ति में कवि ने नाना प्रतीकों को काम में लिया है। इन प्रतीकों की बहुलता के कारण इसे प्रतीकवाद भी कहते हैं। इन कवियों में यौन वर्जनाओं के प्रति असंतोष व्याप्त है। पुरुष, स्त्री व अन्य आकर्षणों से ही जीवन संचालित होता है। इनके पारस्परिक सहयोग एवं रूपाकर्षण में बाधा उत्पन्न होने से मानव मन में कुंठा और असंतोष भरने लगता है। स्वयं अज्ञेय ने भी अपनी कविताओं में इसी तरह की भावाभिव्यक्ति की है। उनकी कविता का एक लक्ष्य दमित वासनाओं एवं कुंठाओं का चित्रण भी रहा है। कामवासना जीवन का आवश्यक अंग है परंतु जब वह अंग न रहकर अंगी और साधन न रहकर साध्य बन जाती है तब उसकी विवृत्ति घोर भयावह विकृति के रूप में होता है।
उदाहरण:
1.मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में
तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा।
निकटतम-रीढ़ बंकिम किये, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा
वन्य बिलार- पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार!
-अज्ञेय
2.“रुको मत
रोको मत
पिंजर बद्ध खग की भांति
आत्मा से प्रेमिल है
आओ बंध जाएं
परिरंभ पाश में”
-डॉ. संजू शर्मा
3.पूंजीवाद का विरोध-
प्रयोगवादी कविताओं में श्रमिक वर्ग व मध्यम वर्ग के प्रति आत्मीयता व सहानुभूति का भाव भी व्यक्त हुआ है। इसमें पूंजीवाद का तीव्र विरोध करने के लिए कवियों में आक्रोश एवं असंतोष व्याप्त है परंतु इन कवियों के पास शक्ति का अभाव है। इस कारण वह अपनी वाणी से जनमानस को जागृत करते हुए अपने असंतोष और आक्रोश को व्यक्त करते रहे हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने “चुपाई मारो दुलहिन” शीर्षक कविता में मध्यवर्ग की बेबसी तथा श्रमिकों की गरीबी का अतीव मार्मिक चित्रण किया है।
उदाहरण:
“दे धोती
दिनभर चरखा कात
सांझ को क्यों रोती
सूत बेचकर पी आए घर में ताड़ी
छीन लंगोटी काटी बोटी बोटी
किस्मत की निकली खोटी।
***
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की
कट गयी पूलें हमारे खेत की
कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की
गिन रहा होगा महाजन सेंत की।
-अज्ञेय
4.सौंदर्य बोध की नव्यता-
प्रयोगवादी कवियों ने परंपरागत सौंदर्य चेतना न अपना कर उसे नव्य स्वरूप तथा सापेक्ष स्वरूप में अपनाने का प्रयास किया। कवि गिरिजाकुमार माथुर ने चूड़ी का टुकड़ा, रेडियम की छाया आदि कविताओं में जहां प्रेम भावना एवं सौंदर्य चेतना की व्यंजना की वहीं प्रभाकर माचवे ने सौंदर्य चेतना के साथ दार्शनिक चिंतन का भी समावेश किया। इस दृष्टि से गिरिजाकुमार माथुर की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं–
“आज अचानक सूनी सूनी संध्या में
जब मैं यूं ही मैले कपड़े देख रहा था
किसी काम में जी बहलाने
एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा
गिरा रेशमी चूड़ी का छोटा सा टुकड़ा
उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थी
रंग भरी उस मिलन रात में”
-गिरिजा कुमार माथुर
5. निराशावादिता-
प्रयोगवादी कवि जीवन की सभी स्थितियों के प्रति घोर निराशावादिता प्रकट करता है। वह अतीत की प्रेरणा और भविष्य की उज्ज्वल आकांक्षा न रखकर प्रत्येक क्षण निराशा का दृष्टिकोण व्यक्त करता है तथा उसका दृष्टिकोण संसार के प्रति क्षणवादी तथा निराशावादी है। यह निराशा सामाजिक रूढियों और परिस्थितियों से उपजी अधिक दिखाई देती है। जहाँ जहाँ कवि को उबरने का अवसर मिला है, उसने सकारात्मक रुख अपनाया है।
उदाहरण
“मैं क्या जिया ?
मुझको जीवन ने जिया –
बूँद-बूँद कर पिया,
मुझको पीकर पथ पर
ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया
मैं क्या जला?
मुझको अग्नि ने छला –
मैं कब पूरा गला, मुझको
थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया
देखो मुझे
हाय मैं हूँ वह सूर्य
जिसे भरी दोपहर में
अँधियारे ने तोड़ दिया !
-धर्मवीर भारती
6.बौद्धिकता-
प्रयोगवादी कवि का हृदय की रागात्मक वृत्ति एवं अनुभूति से किसी प्रकार का संबंध नहीं है, ऐसा तो नहीं कह सकते परंतु असल में वह मस्तिष्क को ही सर्वोपरि मानता है और बौद्धिकता में विश्वास करता है। प्रयोगवादी कवि पाठक के मन को उमंगित तथा तरंगित न करके उसे अपनी पहेली में रचनाओं के चक्र में बांधकर उसे परेशान करना चाहता है। वह अपने मस्तिष्क से कुरेद कुरेद कर ऐसी रचनाओं की अभिव्यक्ति करता है जिससे पाठक भी अपना मस्तिष्क पूर देने पर विवश हो जाता है और परेशान हो उठता है।
उदाहरण:
“अंतरंग की इन घड़ियों पर छाया डाल दूं
अपने व्यक्तित्व को एक निश्चित सांचे में ढाल दूं
आत्मा को न मानूं तुम्हें न पहचानूं
तुम्हारी त्वदीयता को स्थिर शून्य में उछाल दूं
तभी हो
शायद तभी। ”
7.उपमानों और प्रतीकों की नवीनता-
प्रयोगवादी कवियों ने उपमानों की नवीनता,रूपकों का विधान ,अलंकारिता के संबंध में सर्वत्र नवीनता का समावेश किया है।
उदाहरण:
“तुम्हारे गाल, स्टोव की बत्ती की तरह सुर्ख लाल” या
“मेरे सपने इस तरह टूट गए हैं, जैसे भुना हुआ पापड़” यहां पर सपनों का संबंध भुना हुआ पापड़ और गाल को स्टोव की बत्ती की तरह लाल मानने से पाठक के मन में एक प्रकार की झुंझलाहट की सृष्टि होती है। प्रयोगवादी हर क्षेत्र में नवीन शैली को जन्म देने की लालसा में ऐसे प्रयोगों की रचना करने लगा जिसका काव्य सौंदर्य से कोई संबंध नहीं है।
फिर भी यह ज़रूर है कि बहुत से नये उपमानों और प्रतीकों का अचंभित करता प्रयोग प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषता है। अज्ञेय ने तो घोषणा ही कर दी थी परंपरागत प्रतीकों के लिए-
“अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।”
9. प्रेमाभिव्यक्ति-
प्रयोगवाद में बेशक शुष्क विषयों को चुना गया और वैज्ञानिक भाषा की भी प्रधानता रही परंतु प्रेम कविता इस काव्य में भी बहिष्कृत नहीं थी। लगभग सभी प्रयोगवादी कवियों ने टटकी, पगी प्रेम कविताओं की रचना की है।
उदाहरण:
तुम्हारी पलकों का कँपना ।
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।
मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के
खिलने का सपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।
सपने की एक किरण मुझ को दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना ।
और सब समय पराया है ।
बस उतना क्षण अपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।
-अज्ञेय
10.सामान्य विषयों को महत्त्व-
प्रयोगवादी कवि समाज के उन उपेक्षित बिंदुओं को अभिव्यक्त करना चाहता है जिसका आम आदमी से संबंध है। प्रयोगवादी कवि कहते हैं कि नई कविता( प्रयोगवाद का परिष्कृत रूप) का संबंध किसी एक देश विशेष से न होकर समस्त संसार के साथ है। इनका मानना है कि संसार की कोई भी वस्तु अवहेलनीय नहीं है। इन्होंने अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण तुच्छ से तुच्छ वस्तु को भी कविता में स्थान दिया है। इन्होंने कंक्रीट, चाय की प्याली, कुत्ता, लकड़ी, वेटिंग रूम, बाटा की चप्पल, चूड़ी का टुकड़ा, तकिया, पहिया, पगड़ी,गरम पकौड़ी इत्यादि का अलग तरह से चित्रण किया है। शैलीगत रूढ़ियों और परंपराओं के समान ही उसे विषय संबंधी कोई भी रूढ़ि मान्य नहीं है।
11.छंद-
प्रयोगवादी कवियों ने प्राय: छंद के बंध को स्वीकार न करके मुक्तक के रूप में ही कविता की रचना की है। बायस्ड समीक्षकों के अनुसार इस कारण उनकी कविताओं में न लय है, ना गति है और उसमें गद्य की शुष्कता और नीरसता है। लेकिन सच यह है कि अज्ञेय सहित कई प्रयोगवादी कवियों ने शैली के साथ-साथ छंदों में भी विविध प्रयोग किए हैं और इस कारण इनकी कविताओं में एक अलग प्रकार का सौंदर्य तो है। नंददुलारे बाजपेयी और गणपतिचंद्र गुप्त जैसे आलोचकों ने भर-भर कर प्रयोगवादी काव्य की आलोचना की, उनको इस कविता में छंदों की नवीनता और शैल्पिक वैशिष्ट्य दिखाई ही नहीं दिया!
उदाहरण:
चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत
कह दो उनसे
जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा ।
-धर्मवीर भारती
12.भाषा-
प्रयोगवादी कवियों ने भाषा के अच्छे प्रयास किए हैं परंतु कहीं-कहीं पर उन्होंने अपनी स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति के कारण खड़ी बोली के व्याकरण नियमों का उल्लंघन किया है उनकी कविताओं में ग्रामेटिकल दोष आ गया है इन्होंने शब्दों को तोड़ मरोड़ कर काम में लिया है। यह दोष बिहारी, सूर से लेकर बहुत सारे कवियों में रहा है। इस युग की भाषा सर्वधर्म समावेशी कही जा सकती है, जिसमें किसी शब्द का निषेध मान्य नहीं। प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय ने तो ब्रैकेट तक का काम शब्दों की तरह लिया है।
उदाहरण:
‘चुक गया दिन’—(एक लम्बी साँस)
उठी, बनने मूक आशीर्वाद—
सामने था आर्द्र तारा नील,
उमड़ आई असह तेरी याद !
हाय, यह प्रति दिन पराजय दिन छिपे के बाद।
सारांशतः कहा जा सकता है कि प्रयोगवाद छायावाद की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ। छायावाद की वायवीय कल्पना का विरोध करते हुए डॉक्टर रामविलास शर्मा ने प्रगतिवाद को भी राजनीतिक प्रवृत्ति से आक्रांत बताया। वस्तुतः छायावाद एवं प्रगतिवाद की चरम सीमाओं से हट कर जनजीवन को साधारण शब्दावली में नए प्रयोगों के सहारे वाणी देना ही प्रयोगवादी कवियों का अभीष्ट रहा है। इससे प्रयोगवाद की विविध प्रवृत्तियां स्वतः परिपुष्ट हो जाती हैं। इसी का परिष्कृत रूप नयी कविता बाद में साहित्य जगत में समादृत हुई।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
प्रयोगवाद पर और विस्तार से समझने के लिए नीचे दिए गए हमारे यूट्यूब वीडियो की लिंक पर क्लिक करें ..
https://youtu.be/J8nj756zku4?si=-upXch47AwB4eYFC
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