पितृसत्ता और यौन अपराधों का अन्तर्सम्बन्ध
रोज़-रोज़ समाचारों में यौन अपराध से भरी खबरों को पढ़ कर अगर उस पर लिखा जा रहा है तो उसे हर समय नकारात्मक भाव में भरे होना कह कर ख़ारिज नहीं कर सकते।
अभी कुछ दिनों पहले किसी ने मुझे कहा कि आपको हर वक़्त बस रेप, बलात्कार यही सब दिखता है, कितना और भी सकारात्मक हो रहा है,संस्कृति कितनी श्रेष्ठ है हमारी, ये सब क्यों नहीं दिखाई देता तो उन सबसे मुझे यही कहना है कि नेगेटिव खबर कह कर हम समाज की बुराई को ख़त्म नहीं कर सकते बस छुपा सकते हैं।
गंदगी को रेशमी कपड़े से ढंक देने से गंदगी वहाँ से हटती नहीं है, बस दिखाई देनी बंद हो जाती है और इसके साथ ही धीरे-धीरे वह गंदगी न सिर्फ सड़ांध मारने लगती है बल्कि ढेर सारी बीमारियों का कारण भी बनती है। ठीक वैसे ही “गौरवशाली संस्कृति” रूपी रेशमी आवरण लगा कर हम महिला उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, बलात्कार, स्त्री द्वेष, कन्या भ्रूण हत्या, जातिभेद, नस्ल भेद, रंगभेद जैसी तमाम बुराइयों को सिर्फ़ छुपा सकते हैं, मिटा नहीं सकते। ये बुराइयाँ बढ़ कर एक दिन असंतोष, विघटन और विनाश का कारण ही बनेंगी।
“वसुधैव कुटुम्बकम” जैसे वाक्य महज़ जुमला बन कर रह जाते हैं जब हम एक दूसरे को देखना तक बर्दाश्त नहीं कर पाते या देख कर ख़त्म कर देना चाहते हैं।
बीमारी पर बात करने से इलाज हो सकता है न कि बीमारी छुपाने से। हर असामाजिक तत्त्व का विरोध कीजिए, असंवैधानिक बात को असंवैधानिक कहना सीखिए और सही के पक्ष में खड़े होने की आदत डालने से ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण और विकास संभल है, वर्ना झूमते रहिए झूठे श्रेष्ठता बोध के नशे में, कोई नहीं पूछेगा। हाँ, इतिहास में यह दंभ और उत्पीड़न दर्ज़ ज़रूर हो जाएगा।
सोचते रहिए कि फलां धर्म वाले अपराधी होते हैं, हमारे वाले नहीं, इन सबसे सच्चाई नहीं छुपती है। फैक्ट है कि अपराध हर धर्म, हर सम्प्रदाय और समाज में होता है। स्त्री द्वेष के मामले में तो ग़ज़ब का भाईचारा है ही!
रही बात महिलाओं को सुरक्षा देने या सुरक्षा करने की तो सवाल है कि सुरक्षा करनी किससे है? मर्दों से ही न? तो मर्दों को सिखाइए कि छोटी बच्चियाँ, बच्चे, स्त्री कोई भी बलात्कार के लिए नहीं बनी हैं। अपनी कुंठा पर काबू पाइए, औरतों को समानता चाहिए, सुरक्षा नहीं। मर्द अगर अपनी शारीरिक कुंठा, कमजोरी, ताकत दिखाने की घटिया प्रवृत्ति और यौन हिंसा करके किसी को “औकात दिखा देने” की अपनी कुत्सित सोच को काबू में रखे, अपने ख़ुद के ऊपर काम करे, अपने यौनांग पर नियंत्रण रखे तो बलात्कार और यौन अपराध होंगे ही नहीं।
हमारे सिनेमा ने, गानों ने, स्टैंड अप कॉमेडी शोज़ ने, वेब सीरीज सभी ने स्त्री द्वेषी मानसिकता, यौन हिंसा और स्त्री यौनांगों को गाली की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है, पितृसत्तात्मक सोच को सींचा है। इनसे बचने, विरोध करने और इन पर सार्थक बातचीत करने से परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है।
आप सदियों से लड़कियों को बच कर चलने की निर्रथक सलाह देने के बजाय पितृसत्ता को ख़त्म करने की बात करते, सभी जेंडर को समान समझने की बात करते तो आज यह दिन देखना ही नहीं पड़ता। बच कर चलने की सलाह का तो मतलब ही है कि मर्द नही सुधरेंगे तुम ही अपना बचाव करो। छोटे बच्चे-बच्चियों, बूढ़ी महिलाओं से अपनी सुरक्षा करने का ख़्याल आपको कैसे आता है?
युवा लड़की भी कराटे सीख कर कितना बचाव कर सकती जब अचानक चार लोग उस पर टूट पड़ें? वैसे ये कराटे सीख कर अपनी रक्षा करने का ख़याल भी कोई बेहतर ख़याल नहीं है। जिस समाज में लड़कियों को हर समय अपनी रक्षा की चिंता हो रही हो, उसके उपाय करने पड़ रहे हों, निश्चित रूप से वह समाज शर्म करने की चीज है, गर्व करने की तो कतई नहीं ।ये और बात है कि शर्म नहीं आती, गर्व उफ़ान मारता रहता है समय समय पर!
जैसे जैसे अपराध बढ़ते हैं,वैसे-वैसे लड़कियों और औरतों पर आपकी पाबंदी बढ़ती जाती है। अभी थोडे़ समय पहले उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने लड़कियों के शाम को कोचिंग करने पर पाबंदी लगा दी थी। यह पूरी तरह से इस बात का द्योतक है कि सरकार अपराध पर नियंत्रण करने में सक्षम नहीं, अच्छा हो कि लड़कियां शाम में न निकलें। गोया दोपहर में वे सुरक्षित हैं!! ये तो ठीक वैसे ही है जिसके यहाँ चोरी डकैती हुई, उसी को घर में नज़रबंद कर दिया जाए कि बाहर उसके लिए ख़तरा है और चोर को खुले आम छाती चौड़ी करके घूमने दिया जाए।
रेप कल्चर (भारत में यह कल्चर ही है ) में होता भी यही है। स्त्री की इज्जत उसकी योनि में बता कर उसे यौन हिंसा के बाद शर्मिंदा करने के कारण ही बहुत सी लड़कियां बाद में आत्महत्या करके ख़ुद को समाप्त कर लेती हैं।
जिस समाज में शर्म अपराधी के बजाय विक्टिम अथवा सर्वाइवर को आये, उस समाज के लोगों को सोचने की बहुत ज़रूरत है। सम्मान या इज़्ज़त कब औरत की योनि में मान ली गयी, जिसे छीन कर मर्दों ने अपनी सत्ता और ताकत का प्रदर्शन किया, इस पर बात करने की ज़रूरत है (अगर लड़कियों को घरों में बंद करने से फुर्सत मिले)। लड़कियों को पहरे में रखने से अगर बलात्कार रुकते तो उन्हें घरों में अपने रिश्तेदारों की यौन कुंठा का शिकार नहीं होना पड़ता। आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज्यादा यौन शोषण लड़कियों का उनके अपने घरों में अपने रिश्तेदारों के द्वारा किया जाता है। छोटे बच्चे( लड़के ) भी इस हिंसा के बराबर शिकार होते हैं।
बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग की भाषा भी अत्यंत प्रॉब्लमेटिक है। लड़कियों को कोने में सिमटी, लाल धब्बों, खून के छींटे और घुटनों में मुंह छुपाये बैठी इस तरह की तस्वीर बनाते हैं जैसे अब वह मुंह दिखाने के काबिल नहीं रही और इनकी भाषा हमेशा पैसिव होती है। she got raped या बलात्कार किया गया ऐसे लिखते हैं कि जैसे किसी एलियन ने यह क्राइम किया हैं। “मैन रेप्ड अ गर्ल” की जगह “लडकी का बलात्कार किया गया”- ये क्या घटिया स्तर की भाषा है भई!!!
ऐसा लगता है जैसे वो अपने आप बलात्कार का शिकार हो गयी। भाषा का फोकस क्राइम और क्रिमिनल पर न होकर सर्वाइवर ( जिसे ये रिपोर्टर विक्टिम कहते हैं) पर रख कर परोक्ष रुप से यह क्रिमिनल का नाम हटाने की प्रैक्टिस है, जिसे तुरंत बंद करने की ज़रूरत है।
यौन अपराध लड़कियों को कंट्रोल में रखने से नहीं रुकेंगे बल्कि किशोर उम्र से ही लड़को को शारीरिक शिक्षा ,जेंडर सेंसटिविटी को गंभीरता से समझाने और जेंडर के रोल डिवीजन जैसी टॉक्सिक बातों से सावधान करने के बाद ये संभव होगा। बचपन से ही लड़कों से इस बारे में काम करने की ज़रूरत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। अब तक नज़रअंदाज़ करने का नतीजा है कि बुरे से बुरे यौन अपराध के बाद भी अपराधी को अपराधबोध नहीं होता, उसे अहसास ही नहीं होता कि अपनी बेरोक आज़ादी से उसने दूसरे की आज़ादी का अपहरण कर लिया है। घुटने में दर्द होने पर इलाज गर्दन का नहीं कराया जाता बल्कि घुटने पर ध्यान दिया जाता है।
ध्यान दीजिए अपने लड़कों पर ,उसके लिए ध्यान दीजिए पहले खुद पर क्योंकि अपने लड़कों को डिफेंड करने आप ही कूदते हैं। सोच बदलिए अपनी! शुरुआत कीजिए अपने आप से। निकालिए बलात्कारी मानसिकता को पहले अपने भीतर से, फिर अपने बच्चों के भीतर से। पालिए अपने बच्चों को समानता से, सिखाइए उन्हें घर के काम बिना जेंडर प्रिविलेज दिये! बहनों से बात करने की तमीज दीजिए, उन्हें पराई समझने की आदत बदलें, उसे उसी घर का बराबर सदस्य समझें। उन पर रौब गांठने के बजाय उनके भाई जब उनके दोस्त बनने लगेंगे तो बदलाव होगा।
“लड़कियों की रक्षा करनी चाहिए” जैसे स्लोगन बदलने की जरूरत है। इसके बजाय कहिए कि “ मर्द अपनी कुंठा को काबू में रखे “ । लड़कियों की रक्षा करनी किससे है आखिर??? हम कोई जंगल में तो रहते नहीं हैं कि जंगली जानवरों से रक्षा करनी है। ये तो मर्दों की बलात्कारी प्रवृत्ति है,जिसने लड़कियों का (बहुत से लड़कों का भी) जीना दूभर किया हुआ है।
लड़कों की बचपन से स्वस्थ परवरिश ही इस समस्या का समाधान है। लैंगिक भेदभाव मिटाने के लिए लैंगिक रूप से उनमें संवेदनशीलता रोपित कीजिए, टॉक्सिक मैस्क्यूलिनिटी (मर्द को दर्द नहीं होता) बजाय उनके हृदय में कोमलता और सह अस्तित्व का भाव पैदा कीजिए । फिर बात बनेगी।
© डॉक्टर संजू सदानीरा