पंडिता रमाबाई जीवन परिचय : Pandita Ramabai Biography in Hindi
प्रकृति में हर चीज परिवर्तनशील है। मनुष्य भी प्रकृति का एक हिस्सा है। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए अधिकतर हम सभी समाज में रहते हैं। समाज निरंतर चलायमान होता है। जो समाज समय-समय पर आवश्यकतानुसार ख़ुद को अपडेट नहीं करता, वह कुछ समय बाद अपनी प्रासंगिकता खो देता है।
परिवर्तन अचानक से नहीं आता, बल्कि धीरे-धीरे और अपनी गति से आता है। लेकिन समाज में समय-समय पर ऐसी महान विभूतियां जन्म लेती हैं, जो अपने जीवनकाल में ही क्रांति का बिल्कुल बजा देती हैं और त्रुटिपूर्ण सामाजिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन लाती हैं। ऐसी ही एक महान शख़्सियत हैं- पंडिता रमाबाई। इन्होंने अपना जीवन महिलाओं के लिए स्वतंत्रता, समानता और गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने में समर्पित कर दिया।
जन्म एवं जीवन परिचय-
प्रसिद्ध कवयित्री और नारीवादी समाज सुधारक रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 में कर्नाटक के केनरा नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और इनकी माता लक्ष्मीबाई डोंगरे ने भी संस्कृत की शिक्षा हासिल की थी। उस ज़माने में जब महिलाओं और निचली मानी जाने वाली जाति के लोगों के लिए शिक्षा की मनाही थी, तब भी रमाबाई ने न केवल उच्च शिक्षा हासिल की, अपितु अन्य महिलाओं को शिक्षा के लिए जागरुक किया।
रमाबाई को अपने जीवन में भयानक त्रासदी का सामना तब करना पड़ा, जब 1877 में अकाल की वजह से उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। इस सब से उबरने के बाद रमाबाई ने अपने भाई के साथ मिलकर शिक्षा के प्रति जागरुकता और प्रचार-प्रसार का काम जारी रखने का निर्णय लिया।
रमाबाई के पूरे परिवार ने शिक्षा के महत्त्व को समझा और समाज को जागरुक करने का प्रयास किया। शिक्षा के प्रति समर्पण ने रमाबाई को देशभर में प्रसिद्धि दिलाई। इसके बाद 1878 में इन्हें कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में भाषण देने के लिए आमंत्रण मिला। वहां इन्होंने प्रभावपूर्ण भाषण दिया जिसके बाद इन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में सरस्वती की सर्वोच्च उपाधि मिली। इसके बाद से ही इन्हें पंडिता रमाबाई के रूप में जाना जाने लगा।
रमाबाई ने 1880 में एक बंगाली वकील विपिन बिहारी दास से शादी की। विपिन बिहारी दास एक बंगाली कायस्थ थे। इस प्रकार रमाबाई ने अंतर्जातीय विवाह करके तत्कालीन जातिवादी समाज को एक संदेश दिया। इनकी एक बेटी हुई, जिनका नाम इन्होंने मनोरमा रखा।
सामाजिक कार्य-
रमाबाई ने जाति प्रथा, विधवा प्रथा आदि के ख़िलाफ़ उल्लेखनीय कार्य किये। रमाबाई और विपिन बिहारी दास ने बाल विधवाओं के लिए विद्यालय खोलने का प्रयास किया परंतु इसके पहले ही दुर्भाग्य से 1882 में उनके पति विपिन बिहारी दास की अचानक मृत्यु हो गई।
रमाबाई ने अपने समय में सामाजिक रूप से परित्यक्ता, घरेलू हिंसा और शोषण की शिकार स्त्रियों की करुण दशा को करीब से देखा था। जिसकी वजह से रमाबाई ने इन महिलाओं की दशा सुधारने के लिए संकल्प लिया और इसके फलस्वरुप शारदा सदन स्थापित किया। शारदा सदन ऐसा संस्थान था जो अकेली, परित्यक्ता महिलाओं के लिए सीखने-सिखाने को प्रतिबद्ध था, जिससे वे अपना जीवन-निर्वाह कर सकें।
30 नवंबर 1882 को रमाबाई ने पुणे में आर्य महिला समाज की स्थापना की, जिसके माध्यम से महिलाओं को सशक्त, शिक्षित और जागरुक बनाने के साथ ही गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए तैयार करने के अपने मिशन पर जुट गईं। 1897 में जब मध्य प्रांत में भयानक अकाल पड़ा तब रमाबाई ने सैकड़ों बच्चों विशेषकर लड़कियों के पुनर्वास की व्यवस्था की थी। इन्होंने शारदा सदन की महिलाओं से आग्रह किया गया कि वह इन बच्चियों को गोद लें, जिससे ये प्यार और अपनापन महसूस कर सकें।
पंडिता रमाबाई को अपने जीवन काल में दो भयंकर अकाल और एक बार प्लेग का सामना करना पड़ा। जिसकी वजह से अनाथ हो गए बच्चों, लड़कियों और विधवाओं को न सिर्फ़ इन्होंने आश्रय दिया, पढ़ाया लिखाया बल्कि उन्हें जीविकोपार्जन के लिए भी सक्षम बनाया।
धार्मिक दृष्टिकोण-
रमाबाई के समय में महिलाओं की चिकित्सा के लिए महिलाओं द्वारा ही इलाज करने का नियम था। जबकि उस समय महिलाओं की शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, बल्कि महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि बीमार होने पर महिलाओं को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा मिलना मुश्किल था। उस समय देश में ईसाई मिशनरीज का आगमन और सक्रियता बढ़ रही थी।
रमाबाई ने महिलाओं की शिक्षा और चिकित्सा के लिए मिशनरी ईसाई संगठनों से संपर्क किया। 1883 में रमाबाई चिकित्सा प्रशिक्षण हासिल करने के लिए ब्रिटेन गईं। अपने प्रवास के दौरान रमाबाई ने ईसाई धर्म अपना लिया था। रमाबाई का मानना था कि पारंपरिक रूढ़िवादी सनातन धर्म महिलाओं के प्रति अपमानजनक और भेदभावपूर्ण था। इसके अलावा जाति व्यवस्था का कलंक भी इनकी हिंदू धर्म की आलोचना का विषय था।
पंडिता रमाबाई ने “हाई कास्ट हिंदू वीमेन” नाम से अंग्रेज़ी में एक पुस्तक लिखी। जिसमें इन्होंने बाल-वधुओं और बाल-विधवाओं सहित हिंदू महिलाओं के जीवन के शोषणपरक पहलुओं का चित्रण किया और महिला उत्पीड़न की सच्चाई को उजागर करने का भी प्रयास किया।
अन्य उल्लेखनीय कार्य-
1882 में शिक्षा के लिए बने आयोग के समक्ष पंडिता रमाबाई ने सिफ़ारिश की कि स्कूलों में महिला स्कूल निरीक्षकों की नियुक्ति की जाए और मेडिकल कॉलेजों में महिलाओं को भर्ती करने के लिए विशेष प्रबंध किए जाएं। इसका नतीजा यह हुआ की रमाबाई की आवाज ब्रिटिश साम्राज्ञी विक्टोरिया तक पहुंची और लेडी डफरिन ने महिला चिकित्सा आंदोलन की नींव रखी। पहली भारतीय महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी के ग्रेजुएशन डिग्री प्रोग्राम में भाग लेने के लिए पंडिता रमाबाई ने अमेरिका की यात्रा भी की।
अपनी इन विदेश यात्राओं के दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में किताबें लिखी और उनका अनुवाद भी किया। पंडिता रमाबाई की सामाजिक सेवाओं और कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए 1919 में ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कैसर-ए-हिंद की उपाधि से सम्मानित किया। 5 अप्रैल 1922 को रमाबाई का देहांत हो गया और इस तरह तत्कालीन भारत में सामाजिक क्रांति और सुधार के एक युग का अंत हो गया। शिक्षा और समाजसेवा के क्षेत्र में उनके योगदान को चिह्नित करते हुए 1989 में भारत सरकार ने पंडिता रमाबाई के सम्मान में एक डाक टिकट स्मारक भी ज़ारी किया।
इस प्रकार अपने जीवन में ही किंवदंती बन चुकी पंडिता रमाबाई का जीवन आज भी हमारे लिए अनुकरणीय है। इन्होंने औपनिवेशिक भारत में स्त्री चेतना, महिला अधिकार और समानता जैसे मुद्दों पर काम किया और समाज को सही दिशा देने में अपना अतुलनीय योगदान दिया। स्त्री शिक्षा, चिकित्सा और बाल-विवाह, विधवा प्रथा जैसी सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध रमाबाई का संघर्ष सदियों तक लोगों के लिए प्रेरणा का काम करता रहेगा।
© प्रीति खरवार