नाथ साहित्य की प्रमुख विशेषताएं
नाथ साहित्य हिंदी साहित्य के आदिकाल का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग है। सिद्ध और नाथ साहित्य जिन्हें शुक्ल जी ने साहित्य मानने से इनकार किया था, असल में वह पूर्व मध्यकाल के उस साहित्य की नींव और प्रेरणा है जिसे समीक्षक भक्ति काल (हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग) की संज्ञा देते हैं।
इस साहित्य के प्रवर्तन का श्रेय गोरखनाथ को दिया जाता है जबकि मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) नाथ साहित्य में आदि गुरु माने जाते हैं। नाथों की कुल संख्या नौ मानी जाती है। सिद्ध साहित्य की तरह इसका मूल भी बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा है।
नाथ साहित्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं..
1.आंतरिक आचरण की शुद्धता पर बल
नाथ पंथ में आंतरिक शुद्धता पर बहुत अधिक बल दिया गया है नाथ साहित्य के प्रणेताओं ने जप-तप, ध्यानादि के माध्यम से चित्त की शुद्ध के अनेक नियम बताएं जिनका इनके साहित्य में अनेकशः उल्लेख देखा जा सकता है। वाक्य संयम और स्वच्छ दृष्टि आदि संबंधी पद इसके उदाहरण हैं।
उदाहरण-
“अवधू मन चंगा तो कठौती में गंगा” (गोरखनाथ)
2.बाह्य शुद्धता पर विचार
नाथ साहित्य में ही पहली बार शारीरिक शुद्धता पर विचार किया गया। सिद्ध साहित्य में आंतरिक एवं बाह्य शुद्धता का विचार दिखाई नहीं देता है। जहां सिद्ध साधक मनमौजी होते थे, नियमों की प्रतिबद्धता से आजाद थे। श्मशान साधना करते थे वहीं नाथों में स्नान-ध्यान एवं स्थान की पवित्रता संबंधी अनेक नियम प्रचलित थे। एक प्रकार से कह सकते हैं कि सिद्धों की उद्दाम जीवन शैली की प्रतिक्रियास्वरूप नाथ साहित्य अस्तित्व में आया और इसने उनके विपरीत आचार व्यवहार निर्धारित किये।
3.सहज जीवन का आदर्श
नाथ साहित्य में जीवन को जटिल बनाने के बजाय इसकी सहजता पर जोर दिया गया। नाथ साधकों ने सादगीपूर्ण जीवन जीने के साथ-साथ गरिमा (संगीदगी) को व्यवहार का अंग बनाने पर बल दिया। सहज जीवन का आदर्श उपस्थित करते हुए नाथ साहित्य का एक अनुकरणीय उदाहरण..
“हबकि न बोलिबा
ढबकि ना चलबा
धीरे-धीरे धरिबा पांव
गरब न करिबा
सहजे रहिबा
भणन्त गोरख रावम। ” (गोरखनाथ)
4.ब्रह्मचर्य की महत्ता/स्त्री संसर्ग से परहेज
नाथ साहित्य की यह एक अन्यतम विशेषता है कि इसमें ब्रह्मचर्य को बहुत उच्च स्थान प्रदान किया गया है। सिद्ध साहित्य में जहां स्त्री संसर्ग और युग्नद्ध अवस्था का बहुत अधिक महिमा मंडन साधना पद्धति के तौर पर किया गया था, वहीं नाथ साहित्य में इसके ठीक विपरीत बात कही गई। नाथ योगियों ने स्पष्ट रूप से साधना मार्ग में स्त्री संसर्ग का निषेध बताया।
5.मांस मदिरा के सेवन से दूरी
नाथ साहित्य में खानपान एवं दैनिक व्यवहार संबंधी अनेक आदतें भी ऐसी दर्शाईं गई जो सिद्ध साहित्य से अलग थीं। नाथों में मांस मदिरा सेवन का स्पष्ट निषेध था, जिसका अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने बार-बार चित्रण किया।
6.अश्लीलता एवं वीभत्सता का विरोध
नाथ साहित्य में सिद्ध साहित्य की तरह साधना की तांत्रिक पद्धति का समर्थन नहीं किया गया। शवों के साथ श्मशान में की जाने वाली वाममार्गी साधना पद्धति को नाथ साहित्य में वीभत्स बताया गया। स्त्री संसर्ग और युग्नद्ध अवस्था को अश्लीलता बताते हुए इस प्रकार की अजीबोगरीब उपासना पद्धति का सिद्ध साहित्य में भरपूर विरोध किया गया।
7. गुरु महिमा और नाम स्मरण का महत्त्व
नाथ साहित्य में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। गुरु की महिमा का बखान अत्यंत भावुकता के साथ इस साहित्य में दिखाई देता है। ईश्वर की उपासना के साथ साथ नाम स्मरण(सुमरन) पर भी इन साधकों की बहुत आस्था थी। संत और भक्त कवियों पर इनकी इस गुरु महिमा गान और नाम सुमिरन का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
उदाहरण-
“गुर कीजै महिला निगुरा न रहिला,
गुरु बिन ग्यानं न पायला ।” (गोरखनाथ)
8.हठयोग साधना का प्रवर्तन
गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय में हठयोग और कुंडलिनी जागरण की प्रक्रिया का विधान प्रारंभ किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “इन हठ जोगियो के ‘सिद्ध सिद्धांत पद्धति’ ग्रंथ के अनुसार “ह” का अर्थ सूर्य तथा “ठ” का अर्थ चंद्र होता है। इन दोनों के योग को ही उन्होंने हठयोग कहा। गोरखनाथ ने ही षट् चक्रों वाला योग मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था। कबीर आदि निर्गुण संत कवियों पर इस साधना का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस मार्ग में विश्वास करने वाले हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके समाधि की अवस्था और ब्रह्म के साक्षात्कार तक का चित्रण करते हैं। गोरखनाथ के अनुसार स्थिर चित्त वह है जिसका चित्त विकार सामग्री सामने होने पर भी विकृत नहीं होता है।
उदाहरण-
“अंजन मांहि निरंजन भेढ्या,
तिल मुख भेट्या तेलं।
मूरति मांहि अमूरति परस्या
भया निरंतरि खेलं ॥”
***
“नौलख पातरि आगे नाचें पीछे सहज अखाड़ा
ऐसे मन लै जोगी खेलें तब अंतरि बसे भंडारा। “ (गोरखनाथ)
9. रहस्यवाद और उलटबांसी
गोरखनाथ ने योग, साधना और समाधि से संबंधित अनेक रहस्यात्मक वाणियों की रचना की। उनके सुषुम्ना नाड़ी जागरण और सर्प साधना आदि से संबंधित अनेक दोहे ऐसे हैं जो आम आदमी की समझ से परे हैं। गूढार्थ लिए उनकी मान्यताएँ और वाणियां योग मार्ग की चर्चा, चर्या और पारिभाषिक शब्दावली में परिगणित हैं।
उदाहरण-
“गोरखनाथ की उल्टी बानी
बरसे कम्बल भीजे पानी।”
***
बड़ा ढोल चलता है,
ऊँट की आवाज.
पीपल का पेड़ बैठा है
एक कौवा की शाखा पर,
बिल्ली भाग जाती है
चूहे की आवाज पर.
यात्री चल रहा है,
सड़क थक गई है;
बिस्तर पर औरत सो रही है.
कुत्ता छुपा हुआ है,
चोर भौंक रहा है.
चरवाहा आ रहा है,
मवेशी पुकार रहे हैं ” ( गोरखनाथ)
इस प्रकार देख सकते हैं कि सिद्ध साहित्य की इहलौकिक क्रियाओं, वाममार्गी उपासना पद्धति के विपरीत हठयोग साधना वाला नाथ साहित्य हिंदी साहित्य के विकास क्रम में अवतरित हुआ। आचरण की शुद्धता,स्त्री संसर्ग से परहेज, सुमिरन का महत्त्व और गुरु महिमा को अपरंपार बताने वाला नाथ साहित्य आगामी निर्गुण और सगुण भक्ति के लिए बहुत अधिक प्रेरक सिद्ध हुआ।
सिद्धों और नाथों में संध्या भाषा, सर्व समाज प्रवेश और रहस्यात्मक उक्तियों जैसी कुछ महत्वपूर्ण समानताएं भी थीं। धार्मिक साहित्य कहा जाने वाला यह साहित्य भारतीय साहित्य के इतिहास के अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है, जिसके शोध से बहुत कुछ स्पष्ट होता।