द्विवेदी युग की विशेषताएं
आधुनिक काल के उपभेदों में भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग आता है। इस युग की समय सीमा 1900- 1918 ईस्वी तक मानी जाती है। द्विवेदी युग की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1- साहित्य के लिए खड़ी बोली की स्वीकृति-
द्विवेदी युग की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है- संपूर्ण रूप से खड़ी बोली को स्वीकार करना। भारतेंदु युग में खड़ी बोली को सिर्फ गद्य के लिए स्वीकृति मिली और कविता के लिए ब्रज भाषा को ही चुना गया। इसके विपरीत द्विवेदी युग में कवियों ने खड़ी बोली को पद्य के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध करने में सफलता प्राप्त की।
2- भाषा का मानकीकरण-
द्विवेदी युग में भाषागत त्रुटियों का भी निराकरण किया गया। शब्दों के मनमाने प्रयोग बंद हुए और लिंग, वचन,वर्तनी संबंधी एकरूपता का निर्धारण हुआ।
3- व्याकरण ग्रन्थों की रचना-
द्विवेदी युग में व्याकरण पर काफी कम हुआ।भगवतीप्रसाद वाजपेई और कामता प्रसाद ‘गुरु’ जैसे व्याकरणविदों ने उपयोगी व्याकरण ग्रन्थों का सृजन करके हिंदी भाषा की नींव को मजबूत किया।
4- अनुवाद कार्यों की अधिकता-
द्विवेदी युग में हिंदी के पाठकों के लिए हिंदी पाठ सामग्री को प्रचुरता में उपलब्ध बनाने के लिए अन्य भाषाओं की लोकप्रिय रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जहां कालिदास की रचनाओं का अनुवाद किया वही श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की रचनाओं का हिंदी अनुवाद किया।
5- राष्ट्रवाद का स्वर-
भारतेंदु युग में जहां देश प्रेम की भावना थी,वहीं द्विवेदी युग में बदलकर राष्ट्रवाद में परिणत हो चुकी थी। साहित्यकारों ने अपने देश की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने के साथ-साथ विदेशी मुल्कों की भर्त्सना की।हालांकि गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश के लिए तब यह स्वर सोये हुए स्वाभिमान को जगाने के लिए प्राणदायक सिद्ध हुआ।
6- रीतिकाल की प्रवृत्तियों का विरोध-
द्विवेदी युग में रीतिकालीन काव्य में व्याप्त विशेषताओं को बुराइयों के रूप में ग्रहण किया गया और उनसे बचने की बात कही गई। नायक-नायिका भेद,शृंगार की अतिशयता और प्रेम के मांसल रूप की निंदा द्विवेदी युग के कवियों द्वारा बहुत बार की गई।
7- इतिवृत्तात्मकता-
इस युग के कवियों ने भारत को “जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा” वाले देश के रूप में चित्रित किया । उनके अनुसार भारत विश्व गुरु और संपन्नता से पूर्ण था।
8-उपदेशात्मकता अथवा आदर्शवाद-
द्विवेदी युग में काव्य को सिर्फ मनोरंजन का साधन न मानकर (केवल न मनोरंजन कवि का कर्म होना चाहिए…)।उसे समाज को रास्ता दिखाने वाला माना है। कह सकते हैं कि आदर्शवाद का स्वर द्विवेदी युग की एक प्रमुख विशेषता है।
9-प्रबंधन की अधिकता-
जब साहित्य का उद्देश्य आदर्शवाद की स्थापना करना होता है तो प्रबंध काव्य की अधिकता स्वतः ही हो जाती है। अपने देश का गौरवगान और नायकों की प्रशंसा के लिए मुक्तक के स्थान पर प्रबंध काव्य अधिक उपयोगी होते हैं। खड़ी बोली हिंदी का प्रथम महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ और दूसरा महत्त्वपूर्ण महाकाव्य ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’, ‘जयद्रथ वध’, ‘विष्णु प्रिया’ इत्यादि प्रबंध इसी युग में रचे गए।
10- काव्य में गंभीरता की प्रवृत्ति-
द्विवेदी युग के कवियों में भारतेंदु युग वाली हास्य- व्यंग्य की प्रवृत्ति नहीं थी। वे गंभीर प्रवृत्ति के थे और अपने काव्य में भी गांभीर्य भाव रखते थे।
11-नवीन छंदों की उद्भावना-
द्विवेदी युग में काव्य में छंदों के संदर्भ में एक ताजगी और नवीनता दिखाई देती है। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिली शरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी एवं श्रीधर पाठक इत्यादि ने मंदाक्रांता, द्रुतविलंबित,गीतिका,हरिगीतिका एवं मालिनी जैसे छंदों का अपने काव्य में बहुत सुंदर प्रयोग किया।
12-अलंकारों का समुचित प्रयोग-
इस युग में रीतिकाल की तरह अलंकारों को कविता की सुंदरता के लिए अनिवार्य नहीं माना गया। काव्य प्रणयन के मध्य जहां अपने आप अलंकार आ गए,वहां कवियों ने उन्हें स्वीकारा,अपनी तरफ से जगह-जगह अलंकारों का प्रयोग करने से यथासंभव बचे हैं।
इस प्रकार खड़ी बोली की स्वीकृति, उपदेशात्मकता,राष्ट्रवाद एवं गंभीरता द्विवेदी युगीन काव्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं।
© डॉ. संजू सदानीरा
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