तुलसीदास की भक्ति भावना : Tulsidas ki bhakti bhawna

तुलसीदास की भक्ति भावना : Tulsidas ki bhakti bhawna

 

तुलसीदास का राम भक्ति शाखा में योगदान रेखांकित करें।

अथवा

ब्रह्म, जीव, ईश्वर, जगत संबंधी विचारों के साथ तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालें।

तुलसीदास की भक्ति भावना

गोस्वामी तुलसीदास के नाम के बिना राम भक्ति शाखा की बात भी प्रारंभ नहीं की जा सकती और तुलसीदास की भक्ति भावना तो जगजाहिर है। दूसरे शब्दों में जैसे ही “राम भक्ति शाखा काव्य परंपरा” कहा सुना जाता है, वैसे ही गोस्वामी तुलसीदास का नाम मानस पटल में उभर आता है। यूं कहने को केशव, अग्रदास, हृदय राम और प्राण चंद्र चौहान जैसे अन्य अनेक कवि इस धारा में हुए हैं परंतु जो काम इस क्षेत्र में तुलसीदास ने किया है उसका पासंग भर भी अन्य कवि नहीं कर पाए हैं।

तुलसीदास का जीवन परिचय

तुलसीदास का जन्म, जन्म स्थान व मृत्यु अन्य प्राचीन, मध्यकालीन कवियों की तरह एकमत स्वीकार्य तिथि वाली नहीं है। तत्कालीन कृतियां या उनकी अपनी कृतियों में आई पंक्तियों के आधार पर आलोचक बाद में इन कवियों के संबंध में अपनी अपनी धारणा व्यक्त करते हैं।

संप्रति तुलसीदास का जन्म 1511 ई और मृत्यु 1623 में बताई जाती है।। ‘बताया जाता है’ शब्दों का प्रयोग करने का कारण यह है कि अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग-अलग समय निश्चित किए हैं। इनका बचपन का नाम रामबोला था। उनके जन्म का स्थान सोरों या शूकर क्षेत्र है। इनकी माताजी का नाम हुलसी देवी और पिता का नाम आत्माराम है। अलग अलग समय पर इन्हें अलग अलग संतों के सान्निध्य लाभ का अवसर मिला परंतु मुख्य रूप से स्वामी नरहर्यानंद या नरहरि दास को इनका गुरु, बताया जाता है।

किशोर अवस्था में इनका विवाह हुआ और इनकी पत्नी का नाम रत्नावली था। रत्नावली एक भगवत् परायण और विदुषी महिला थी। एक प्रचलित लोक कथा अथवा मान्यता के अनुसार तुलसीदास अपनी पत्नी पर बहुत अधिक आसक्त थे। उनकी इस आसक्ति को ईश्वर भक्ति की ओर प्रवृत करने का काम उनकी पत्नी रत्नावली ने ही किया था। इस प्रसंग को अपने खंडकाव्य “ तुलसीदास “ में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अत्यंत मर्मस्पर्शी रूप में चित्रित किया है-

“ धिक! धाये तुम यों अनाहत

धो दिया सकल कुल धर्म धूत

राम के नहीं काम के सूत कहलाये..! “

रत्नावली के मारक शब्दों को सुनने के बाद तुलसीदास को आत्मज्ञान हुआ और राम कथा के वाचन को जीविकोपार्जन के स्थान पर इन्होंने श्रीराम के चरणों में शरण का साधन बना लिया।

कृतियाँ

रामचरितमानस, विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली जानकी मंगल, पार्वती मंगल, वैराग्य संदीपनी, हनुमान बाहु, हनुमान चालीसा इत्यादि इनकी काव्य कृतियां हैं।

रामचरितमानस तुलसी के जीवन की ही नहीं संपूर्ण राम भक्ति शाखा की सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसका आधार वाल्मीकि कृत संस्कृत रामायण है। इन्हें बहुत लोग वाल्मीकि का अवतार भी बताते हैं। संस्कृत की एलीटनेस से अवधी की लोक परंपरा की सशक्त स्वीकृति का श्रेय बहुत से समीक्षक तुलसीदास को देते हैं। कहते हैं कि संस्कृत भाषा सबकी पहुंच के बाहर थी और तुलसी ने लोग भाषा अवधी में राम कथा लिखकर उसे संपूर्ण उत्तर भारत में घर-घर तक पहुंचाने का काम किया। रामचरितमानस प्रबंध काव्य का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। महाकाव्य लेखन के लिए छंद, अलंकार और भाषायी गरिमा जैसे नए पैमाने इस महाकाव्य ने तय किये।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी को समन्वय का कवि भी कहा है। वैसे भी शुक्ल जी की आलोचना का पैमाना तुलसीदास से शुरू होकर इन्हीं पर समाप्त होता है।

तुलसीदास ने अवधी, ब्रज के साथ संस्कृत के कुछ श्लोक भी देव स्तुति में के रूप में अपने ग्रंथ के प्रारंभ में रखे हैं।

ये इनके भाषाओं के प्रति समन्वय को दर्शाता है। राम के अनन्य उपासक होने के बावजूद इन्होंने सरस्वती वंदना, शिव अभ्यर्थना, हनुमान पूजा इत्यादि करके अपने को एक सीमित दृष्टि से बाहर दिखाया है। ‘शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहुँ नहिं पावा” कहकर इन्होंने राम और शिव की अटूट मैत्री का परिचय ( समन्वय) दिया है।

उस समय सगुण और निर्गुण के बीच के विवाद भी चरम पर चल रहा था, इसके लिए इनका लिखना ‘सगुनहि अगुनही नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा” बहुत समन्वयात्मक विचार था। अद्वैतवाद में इन्होंने “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” कह कर विवाद मिटाने की चेष्टा की।

अद्वैतवाद के प्रवर्तक शंकराचार्य की तरह संसार को इन्होंने माया का रूप और राम को परम शक्ति माना है परंतु भक्ति के लिए भक्त और भगवान की बात मानकर द्वैतवाद का समर्थन भी किया है।

काव्य रूपों में इन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों में समान निपुणता और सरसता के साथ रचना की।रामचरितमानस इनकी प्रबंध रचना ( महाकाव्य) है,जो प्रबंध कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

अलंकारों का प्रयोग जितनी स्वाभाविकता के साथ इनके यहां हुआ है वह अत्यंत श्लाघ्य है। सांगरुपक इनका प्रिय अलंकार है। यूं तो यह भक्ति रस और शांत रस के प्रख्यात कवि हैं, परंतु राम और सीता के सानिध्य और वियोग के पलों में इनका शृंगार चित्रण भी अत्यंत उच्च कोटि का है। “राम के रूप निहारती जानकी कंकण के नभ की परछाईं” पद का स्मरण करके कहा जा सकता है कि शृंगार चित्रण व रतिभाव प्रस्फुटन की अभिव्यक्ति तुलसी के काव्य में अत्यंत गरिमापूर्ण शैली में हुई है।

तुलसीदास का आलोचनात्मक मूल्यांकन

तुलसीदास की भक्ति भावना की बात करते हुए हमें इनके काव्य में उपस्थित अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। एक तरफ जहाँ तुलसी का स्त्री-विरोधी रूप खटकता है और दूसरी तरफ फिर वही तुलसी अशोक वाटिका में बैठी सीता के लिए लिखते हैं “कत विधि सृजी नारि जग माँही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। “

इसमें कोई शक नहीं कि दुबे तुलसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक थे।उनका पदांश ये प्रमाणित करता है-

“ पूजहिं विप्र सकल गुनहीना, शूद्र न पूजहूं वेद प्रवीना! “

“अति वर्षा ते फूटि कियारी, जिमि सुतंग भए बिगरहुँ नारी” जैसे पद इनकी पारंपरिक संकुचित पुरुषवादी सोच को भी उजागर करते हैं। इतने महान शब्दसेवी, कलाकार किंचित उदारमना होते तो भाते, परंतु यह न हो सका और समय की कठोर कसौटी पर इन्हें भी समीक्षकों द्वारा जज किया जाएगा, कसा जाएगा।

राम के काव्य के जरिए तुलसी ने एक यूटोपिया भी गढ़ा है- आदर्शवाद का, नैतिकता का। उनके राम शील,शक्ति और सौंदर्य के आगार हैं। वह लोकरक्षक, प्रजा हितार्थ काम करते चित्रित किए गए हैं। तुलसी के राम विराट व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे आलोचना से परे हैं। उनके राम वाल्मीकि के राम की तरह नर नहीं वरन नारायण हैं। राम कथा की प्रबंधात्मक योजना के पीछे भी मुख्य कारण यही है- राम के नायकत्व अथवा विराट व्यक्तित्व का प्रकाशन। तुलसी के राम मौन, संयम, त्याग और शक्ति से संपुंजित हैं, हल्कापन उनके स्वभाव में नहीं।

दूसरी तरफ विनय पत्रिका के माध्यम से इन्होंने अपनी दास्य भाव की भक्ति का अत्यंत विनम्र चित्रण किया है। यहां उनके राम शरणागत वत्सल दयालु और दीन-हीन के उद्धारकर्ता हैं। “राम भजु राम भजु राम भजु रे” कह कर वे अपने एकनिष्ठ समर्पण का भान कराते हैं। विनयपत्रिका एक प्रकार से आवेदन पत्र है अपने आराध्य राम के प्रति दया दिखाकर अपने शरण में स्थान देने के लिए। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि “जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही”। अब इस पंक्ति के बाद उनकी हठधर्मिता और एकनिष्ठा दोनों को समझा जा सकता है।

कहते हैं कि जीवन के संध्या काल में काशी में ब्राह्मणों ने इन्हें इतना सताया कि इन्हें लिखना पड़ा-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगाड़ न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।

माँगि कै खैबो, मसीत में सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ ॥”

ये मांग के खाना और मस्जिद में सोना वृद्धावस्था का विचलन है या मानसिक परिवर्तन – ये तो आलोचक ही तय कर सकते हैं।

निष्कर्ष

कोई भी रचनाकार, कलाकार, समाजसेवी और उद्यमी आलोचनाओं से परे नहीं है। समय सबका हिसाब मांगता है। कबीर की उदारवादी तार्किक दृष्टि के बाद भी उन्हें वक्त-वक्त पर सवालों के घेरे में आना पड़ता है तो तुलसीदास भी अपवाद नहीं हैं। उनके काव्य का मूल स्वर जहां एक वर्ग को अचंभित करने की हद तक भावविभोर करता है वहीं दूसरी तरफ वंचित वर्ग इनसे शिकायत रखता है। वर्गीय कवि के तौर पर निस्संदेह तुलसी उत्कृष्ट कवि हैं। इनके काव्य की भाषा साहित्यिक अवधी और सरस ब्रजभाषा है। सरसता, सौंदर्य और गेयता इनके काव्य के अन्य गुण हैं। सबसे बड़ी बात सगुण भक्त कवियों में तुलसी और सूर का स्थान अक्षुण्ण था, अक्षुण्ण है। आज सदियों बाद भी तुलसी के पद जनमानस की वाणी पर विराजमान हैं और उनकी पंक्तियां मुहावरों की तरह प्रयोग की जाती हैं।

 

© डॉ संजू सदानीरा

 

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