तुम किशोर तुम तरुण कविता की मूल संवेदना

तुम किशोर तुम तरुण कविता की मूल संवेदना

 

तुम किशोर तुम तरुण कविता

 

तुम किशोर

तुम तरुण,

तुम्हारी राह रोककर

अनजाने यदि खड़े हुए हम

कितना ही गुस्सा आये, पर मत होना नाराज

वयः संधि के कितने ही क्षण हमने भी तो

इसी तरह फेनिल क्षोभों के बीच गुजारे

कान लगाकर सुनो : कहीं से आती है आवाज

“भले ही विद्रोही हो,

सहनशील होती है लेकिन अगली पीढ़ी’

पर, अपने प्रति सहिष्णुता की भीख न हम माँगेंगे

तुमसे मीमांसा का सप्ततिक्त वह झाग

अजी, हम खुशी-खुशी पी लेंगे

क्रोध-क्षोभ के अवसर चाहे आ भी जायें

किंतु द्वेष से दूर रहेंगे

तुम किशोर

तुम तरुण,

तुम्हारी अगवानी में

खुरच रहे हम राजपथों की काई-फिसलन

खोद रहे जहरीली घासें

पगडंडियाँ निकाल रहे हैं

गुंफित कर रक्खी हैं हमने

ये निर्मल-निश्छल-प्रशस्तियाँ

आओ, आगे आओ, अपना दाय भाग लो

अपने स्वप्नों को पूरा करने की ख़ातिर

तुम्हें नहीं तो और किसे हम देखें बोलो!

निविड़ अविद्या से मन मूर्छित

तन जर्जर है भूख-प्यास से

व्यक्ति-व्यक्ति दुख-दैन्य ग्रस्त है

दुविधा में समुदाय पस्त है

लो मशाल, अब घर-घर को आलोकित कर दो

सेतु बनो प्रज्ञा-प्रयत्न के मध्य

शांति को सर्वमंगला हो जाने दो

खुश होंगे हम

इन निर्बल बाँहों का यदि उपहास तुम्हारा

क्षणिक मनोरंजन करता हो

खुश होंगे हम !

 

मूल संवेदना

तुम किशोर तुम तरुण कविता प्रगतिवादी काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि नागार्जुन द्वारा रचित है। नागार्जुन की छवि एक सत्ता विरोधी और जन चेतना से संपन्न कवि की रही है। इन्होंने हिंदी के साथ-साथ मैथिली भाषा में भी सफलतापूर्वक साहित्य रचा। मैथिली भाषा की कृति पत्रहीन नग्न गाछ के लिए इन्हें मैथिली भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। भस्मांकुर इनके द्वारा रचित प्रबंध काव्य एवं युग धारा, सतरंगी पंखों वाली, खिचड़ी विप्लव हमने देखा इत्यादि इनके काव्य संकलन हैं। बलचनमा, वरुण के बेटे और रतिनाथ की चाची उनके उपन्यासों के नाम हैं।

तुम किशोर तुम तरुण नागार्जुन द्वारा रचित एक अत्यंत अर्थपूर्ण कविता है। इस कविता में कवि नागार्जुन पुरानी और नई पीढ़ी के बीच एक सार्थक संवाद स्थापित कर रहे हैं।

पिता जो कि अधेड़ उम्र के हैं (यहां पिता की जगह मां अथवा किसी अन्य अभिभावक को भी रख कर देखा जा सकता है ),अपने नवयुवक पुत्र अथवा पुत्री से आमने-सामने संवाद करते हुए अपनी बात रख रहे हैं । अभिभावक के रूप में वे युवा पीढ़ी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी के समक्ष हमेशा युवा होती है, तरुण होती है। पिता कहते हैं कि अगर कभी अनजाने में उन्होंने युवा पुत्र अथवा पुत्री की राह रोकी है अथवा उनकी इच्छा पूर्ति में बाधक बने हैं तो वो उनसे बहुत गुस्सा आने पर भी नाराज न हों।

पिता उस समय का हवाला देते हैं जब वह स्वयं युवा थे और उनके भी बुजुर्गों ने उनकी इच्छाओं के बीच अपने तर्कों के अवरोधक लगाए थे। उस स्थिति में पिता ने भी कितने ही क्षण दुःख और क्रोध के मिले-जुले भावों के बीच झूलते हुए गुजारे। कवि ध्यान लगाकर सुनने की अपेक्षा करते हुए कहते हैं कि आगामी पीढ़ी भले कितनी ही विद्रोही हो लेकिन सहनशील भी उतनी ही होती है। अपनी इच्छाओं को अपूर्ण देखने के बाद अपने अभिभावकों को समझने की कोशिश भी वे करते हैं।

आगे कवि कहते हैं कि बच्चों को अपने माता-पिता के ऊपर इस पीढ़ीगत अंतराल (जेनरेशन गैप) के कारण बहुत बार झुंझलाहट होती होगी। कवि ऐसी स्थिति में अपने बच्चों से उन्हें बर्दाश्त करने की अनुनय नहीं करेंगे। समस्त आलोचना और अपने प्रति उपजे क्रोध को वह खुशी-खुशी पी लेंगे। गुस्से और दुःख के कितने ही मौके उनके बीच आएं कवि सब कुछ के बावजूद बच्चों के प्रति मन में द्वेष का प्रवेश नहीं होने देंगे।

एक अभिभावक के तौर पर कवि कहते हैं कि अपने किशोर एवं युवा नौनिहालों के जीवन को संभालने के लिए, उनके भविष्य की राहों को बाधाओं से दूर रखने के लिए वह हर संभव प्रयास करेंगे। अपने बच्चों के जीवन की कठिनाइयां दूर करने के लिए वे साधनहीनता के बीच भी संभावित विकल्प निकालते रहेंगे और उनकी मेहनत की तारीफ़ संवेदनात्मक तरीके से करते रहेंगे।

कवि युवाओं के जीवन की चुनौतियों से भली भांति परिचित हैं इसलिए वह उनके सपनों की कद्र करते हैं और एक प्रकार से अपने अधूरे सपनों के लिए भी वे अब की युवा पीढ़ी पर निर्भर हैं।

कविता का आगे का हिस्सा पूरी तरह से पिछले हिस्से से अलग है निविड़ अविद्या से मन मूर्छित पंक्ति से कविता प्रतिबद्धता के अगले चरण में पहुंच जाती है। अब यहां से कवि का ध्यान सामाजिक बुराइयों, असमानताओं और शोषण की तरफ मुड़ जाता है। कवि अज्ञानता के कारण सुन्न हो चुके मन और भूख प्यास से जर्जर हो चुके तन के प्रति चिंतातुर हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक असमानता के कारण दुःख और दीनता से ग्रसित है।

एक समुदाय के तौर पर समाज की असफलता कवि को चुभती है। स्वार्थ के कारण दुविधा में पड़कर न्याय की बात न करने वाले लोगों से कवि को निराशा है। इस निराशा के बीच वे अपनी युवा संतानों से प्रज्ञा (ज्ञान) की मशाल लेकर घर को प्रकाशित करने का आह्वान करते हैं। कदाचित कवि जानते हैं कि वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के बाद मनुष्य शोषण एवं अन्याय का मार्ग छोड़कर सेवा एवं समानता का मार्ग प्रशस्त करता है।

कवि इन युवा संतानों से प्रज्ञा एवं प्रयत्न (ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है–प्रसाद जी की पंक्तियों के अनुसार) के बीच दूरी मिटाने अर्थात ज्ञान के अनुसार कर्म करने की मांग करते हैं। शांति को सर्वमंगला हो जाने दो पंक्ति कविता की सार्थकता को सिद्ध करते हुए इसके अर्थ का बहुत विस्तार करती है।

आज के समय में इस पंक्ति की मांग संपूर्ण विश्व कर रहा है। हथियारों और मिसाइलों की जगह युद्ध विराम एवं अमन चैन हमारे जीवन का हिस्सा होना चाहिए। अंतिम पंक्तियों में कवि पुनः कविता को शुरुआती अंश से जोड़ते हुए कहते हैं कि उम्र दराज होते हुए उनकी कमजोर पड़ती बाहों पर अगर युवा पीढ़ी को हंसी आती है तो वह उस हंसी का भी स्वागत करेंगे कि उन पर हंस कर कम से कम युवाओं का मनोरंजन तो हुआ!

इस प्रकार से नागार्जुन की यह कविता न सिर्फ़ दो पीढ़ियों के मध्य संवाद स्थापित करती है बल्कि सामाजिक प्रतिबद्धता और सामूहिक चेतना भी जगाती है। कविता प्रासंगिक है और अपने उद्देश्य को स्पष्ट करने में पूरी तरह से सफल है।

 

© डॉक्टर संजू सदानीरा

उपलब्धि कविता की व्याख्या/मूल संवेदना

 

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