जो निज मन परि हरै विकारा पद की व्याख्या

 जो निज मन परि हरै विकारा पद की व्याख्या

 

 

जो निज मन परि हरै विकारा ।

 

तौ कत द्वैत – जनित संसृति – दुख, संसय, सोक अपारा ॥१॥

 

सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआईं ।

 

त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं ॥२॥

 

असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे । सरग, नरक, चर – अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥३॥

 

बिटप – मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये । मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥४॥

 

रघुपति – भगति – बारि – छालित – चित, बिनु प्रयास ही सूझै ।

 

तुलसिदास कह चिद – बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥५॥”

 

प्रसंग: 

प्रस्तुत जो निज मन परि हरै विकारा  पद राम भक्ति शाखा के अप्रतिम कवि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित है। 

 

संदर्भ:

इस पद में तुलसीदास जी संसार की वास्तविकता को समझने के लिए ईश्वर कृपा पर ज़ोर दे रहे हैं।

 

व्याख्या:

जो निज मन परि हरै विकारा  में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि मनुष्य का अपना मन विकारों का परित्याग कर दे तो इस द्वैतयुक्त संसार की वास्तविकता को समझ सकता है। कहने का आशय यह है कि यदि मनुष्य लोभ, मोह और अहंकार जैसे अपने अवगुणों को त्याग दे तो इस नश्वर संसार की माया को भलीभांति समझ जाएगा।

 

आगे वे बताते हैं कि शत्रु, मित्र और मध्यस्थ (उदासीन) की मनुष्य के मन ने व्यर्थ ही कल्पना कर रखी है। शत्रु को सांप के समान त्याग देना चाहिए (सांप साथ रखने योग्य प्राणी नहीं होता है)। मित्र को स्वर्ण धातु के सामान संभाल कर रखना चाहिए (सोना कीमती होता है उसे सभी बहुत संभाल कर रखते हैं) और जो हमसे उदासीन हो उसकी घास के समान उपेक्षा करनी चाहिए।

कहने का मतलब है कि हमारा मन पूर्वाग्रहों के कारण यदि किसी को शत्रु या मित्र मानता है या किसी के प्रति उदासीन है तो यह हमारे अज्ञानी मन की उपज है और इन तीनों के साथ यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।

 

तुलसीदास जी बहुत सुंदर उदाहरण का प्रयोग करते हुए मन की चंचलता और कल्पनाशीलता को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे बहुमूल्य मणि (कीमती धातु) में भोजन, वस्त्र आवास, पशु इत्यादि सभी वस्तुएं रहती हैं। वैसे ही हमारे मन में स्वर्ग-नरक, चर-अचर सभी रहती हैं, हम चाहे जैसे पा सकते हैं। अर्थात मणि को बेचकर जैसे विभिन्न सामग्रियां खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही मन के सद-असद व्यवहार से स्वर्ग या नरक मिल सकता है। 

 

जैसे पेड़ में गुठली और सूत में वस्त्र छुपा होता है (पेड़ में फल लगते हैं और उसमें गुठली होती है लेकिन पेड़ को देखकर यह सब दिखाई नहीं देता है व सूत को कातकर विविध वस्त्र बनाये जा सकते हैं) उसी प्रकार जीव के मन में भी विविध प्रकार के शरीर छुपे होते हैं, जो तत्संबंधी क्रियाकलाप से उभर आते हैं। 

 

तुलसीदासजी निवेदन करते हैं कि यह सभी प्रकार के विकार रघुपति भक्ति (राम नाम स्मरण) रूपी जल से धुल कर नष्ट हो जाएंगे, तब अन्य प्रयास नहीं करने होंगे। भक्ति रूपी जल से अनायास ही यह विकार धुल जाएंगे। तुलसी यह भी कहते हैं कि जगत का मूल बिंदु व आदि प्रकाश परमात्मा जीव को समझते-समझते ही समझ में आएगा। अर्थात इतना गहन तत्त्व तुरंत ही समझ में आने वाला नहीं है। 

 

विशेष: 

1.जीव और जगत के बीच विद्या और अविद्या के भाव को कवि स्पष्ट करना चाहते हैं। 

2.मनुष्य राम नाम की कृपा से ही यह सब गूढ़ रहस्य समझ सकता है। 

3.अनुप्रास उपमा और उदाहरण अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है 

4.भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा और शैली उपदेशात्मक है।


© डॉ. संजू सदानीरा 

 

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