कैकेयी परिताप ( साकेत) पर प्रश्नोत्तरी

कैकेयी परिताप ( साकेत) पर प्रश्नोत्तरी

 

प्रश्न-कैकेयी परिताप कविता कहां से ली गई है?

उत्तर- कैकेयी परिताप अपने आप में कोई स्वतंत्र कविता न होकर साकेत महाकाव्य का काव्यांश है, जो उस महाकाव्य के आठवें सर्ग में चित्रित है।

 

प्रश्न-कैकेयी परिताप साकेत के कौन से सर्ग में अंकित है?

उत्तर-अष्टम सर्ग में

 

प्रश्न-साकेत का काव्य रूप क्या है?

अथवा

साकेत किस काव्य विधा की रचना है?

उत्तर-महाकाव्य

 

प्रश्न- “ प्रभु बोले गिरा गंभीर नीर निधि जैसी “ पद्यांश में प्रभु किसे कहा गया है?

उत्तर- राम को।

 

प्रश्न- कैकेयी परिताप में कैकेयी को किस बात का परिताप (पश्चाताप) है?

उत्तर- कैकेयी को यह महसूस हुआ कि उसकी जिद के कारण राम को वनवास मिला और दशरथ की मृत्यु होने के कारण तीनों रानियां वैधव्य के दुख से संतप्त हुईं तो कैकेई को इन सब का कारण स्वयं को मानते हुए अत्यंत ग्लानि हुई। इस ग्लानि के कारण वह सारे अयोध्या वासियों के सामने राम के समक्ष विगलित हृदय से क्षमा याचना करती हैं, यही कैकेई परिताप अथवा पश्चाताप है।

 

प्रश्न- “पागल सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई

सौ बार धन्य वह एक लाल की माई”

उपर्युक्त पद्यांश में ‘लाल’ एवं ‘माई’ कौन है?

उत्तर-उपर्युक्त पद्यांश में ‘लाल’ ‘भरत’ को कहा गया है और ‘माई’ कैकेयी को ।

 

 

प्रश्न-“पागल सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई

सौ बार धन्य वह एक लाल की माई”

यह पद्यांश किस काव्य का है?

उत्तर-उपर्युक्त पद्यांश साकेत महाकाव्य के अष्टम सर्ग में है।

 

प्रश्न-भरत की उस संपूर्ण घटनाक्रम में क्या प्रतिक्रिया थी?

उत्तर-भरत को जब पता चलता है कि उसकी मां कैकेयी के कारण उसके प्रिय भ्राता श्री राम को 14 वर्ष का वनवास मिला और इस शोक के कारण उसके पिता दशरथ मृत्यु को प्राप्त हो गए, तो वह अपनी मां कैकेयी पर अत्यंत क्रोधित होते हुए उसे अपनी मां मानने से इनकार करते हुए उसे हत्यारिन एवं कुलघातिन कहकर लांछित करता है।

 

प्रश्न-“पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में” यह पंक्ति किसके द्वारा कही गई है?

उत्तर-मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित साकेत महाकाव्य में यह पंक्ति कैकेयी के द्वारा कही गई है।

 

प्रश्न-“पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में” पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार बताएं।

उत्तर-“पद पाणि” में अनुप्रास एवं “मोह के मद में” रूपक अलंकार है।

 

प्रश्न- गिरा गंभीर नीर निधि में कौन सा अलंकार है?

उत्तर- अनुप्रास।

 

प्रश्न- कैकेयी परिताप अंश की मूल भावना क्या है?

उत्तर- साकेत के अष्टम सर्ग से उद्धृत कैकेयी परिताप का मूल भाव है कैकेयी को सामान्य मानव की तरह चित्रित करना न कि किसी खल पात्र की तरह। इसमें देवताओं के षड्यंत्र का परिणाम कैकेयी को अपयश के रूप में भुगतते दिखाया गया है।

 

कैकेयी परिताप की मूल संवेदना के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें..

https://www.duniyahindime.com/%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%95%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a5%80_%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%aa-_%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be/

 

 

साकेत – मैथिलीशरण गुप्त (अष्ठम सर्ग)

 

तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे,

नीले वितान के तले दीप बहु जागे।

टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे,

परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।

उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर,

करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर।

वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,

प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी।

“हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना;”

सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।

“हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?

मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?

पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,

रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?

तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,

क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?

हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,

निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।

अब कौन अभीप्सित और आर्य वह किसका?

संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।

मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,

हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?”

प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा;

रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा!

“उसके आशय की थाह मिलेगी किसको,

जन कर जननी ही जान न पाई जिसको?”

“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”

चौंके सब सुन कर अटल केकयी-स्वर को।

सबने रानी की ओर अचानक देखा,

वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा।

बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,

वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा–

“हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,

सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।

यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,

अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।

दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है,

पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?

यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,

तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।

ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,

पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो।

करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?

राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?”

थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,

रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।

उल्का-सी रानी दिशा दीप्ति करती थी;

सब में भय-विस्मय और खेद भरती थी।

“क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,

मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।

जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,

वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।

पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?

क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में?

कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य-मात्र, क्या तेरा?

पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।

थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,

जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके?

छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,

रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?

कहते आते थे अभी यही नर-देही,

’माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।’

अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,–

’हैं पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।’

बस मैंने इसका वाह्य मात्र ही देखा,

दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा।

परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,

इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा!

युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी–

’रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।’

निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा-

’धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।’-“

“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,

जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।”

पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई–

“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।”

“हा! लाल? उसे भी आज गमाया मैंने,

विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।

निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,

हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।

पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,

शंकित सब से घृत हरिण-तुल्य होता है।

श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा,

फिर इससे बढ़ कर कौन दण्ड है मेरा?

पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में,

जन क्या क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में?

हा! दण्ड कौन, क्या उसे डरूँगी अब भी?

मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो तब भी।

हा दया! हन्त वह घृणा! अहह वह करुणा!

वैतरणी-सी हैं आज जान्हवी-वरुणा!!

सह सकती हूँ चिरनरक, सुनें सुविचारी,

पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी।

लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,

मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा।

घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,

कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?

मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,

मेरे दुगने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे।

मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम,

अपने से पहले इसे मानते हो तुम।

तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,

यदि वह सब पर यों प्र

कट हुआ है वैसा,

तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,

मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा,

आगत ज्ञानीजन उच्च भाल ले लेकर,

समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ देकर।

1 thought on “कैकेयी परिताप ( साकेत) पर प्रश्नोत्तरी”

Leave a Comment