केसव कहि न जाइ का कहिये पद की व्याख्या : kesav kahi na jai ka kahiye

केसव कहि न जाइ का कहिये पद की व्याख्या : kesav kahi na jai ka kahiye

 

 

“केसव कहि न जाइ का कहिये। 

 

देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥ 

 

सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे। 

 

धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥ 

 

रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं। 

 

बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥ 

 

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै। 

 

तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥”

 

 

प्रसंग: 

उपर्युक्त पद्य रचना केसव कहि न जाइ का कहिये  गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विनयपत्रिका से उद्धृत है। 

 

संदर्भ: 

इस पद में गोस्वामी जी इस अचरज से भरे संसार की रचना के लिए ईश्वर से वार्तालाप कर रहे हैं, अर्थात श्री राम को संबोधित कर अपना आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं। 

 

व्याख्या: 

केसव कहि न जाइ का कहिये में गोस्वामी तुलसीदास जी श्री राम को स्मरण कर लिखते हैं कि उनकी इस विचित्र सांसारिक लीला को वह समझ नहीं पा रहे हैं। ईश्वर जैसे निराकार, निर्गुण और अनिर्वचनीय परमशक्ति ने कैसी त्रिगुणात्मक और पल पल परिवर्तित होती रचना रची है। मन ही मन में वे प्रभु की लीला पर सोच कर रह जाते हैं। देव ने इस संसार रूपी चित्र को ढेर सारे आकार दिए, जबकि स्वयं निराकार है।

हैरानी की बात यह भी है कि यह माया से भरा संसार चित्र धोने से नष्ट भी नहीं होता। न इसे मरण का भय है, न नष्ट होने का, यह कैसा भ्रम है। जबकि संसार चित्र धुल कर भी नष्ट होते हैं और अन्य कारणों से भी। यहां विषय अनुरागी मन पर भी अचरज व्यक्त किया गया है।

सूर्य की किरणों के कारण रेत में जल जैसी परछाईं का भ्रम भी होता है, जिसे मृग मरीचिका कहते हैं। उस न होने वाले जल में एक अदृश्य मगरमच्छ रहता है, जो वहां जाने वाले सभी को अपने जबड़े में जकड़ लेता है। 

यहां केसव कहि न जाइ का कहिये पद का तात्पर्य है कि मृगमरीचिका में जल समझ कर उधर भागने वाला प्रत्येक प्राणी प्यासा तड़पकर मर जाता है। उसी प्रकार इस संसार के भ्रमात्मक सुखों की तरफ दौड़ने वाले प्राणी भी विनाश को प्राप्त होते हैं। बिना मुंह वाले मगर रूपी काल का सभी विषयासक्त प्राणी ग्रास बनते हैं।

इस चराचर जगत को कोई निरा भ्रम/मिथ्या बताता है तो कोई सत्य तो कोई इसे सत्य-असत्य का मिश्रण बताता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके तीनों भ्रमों का निवारण हो जाता है, वही अपने आप को पहचान सकता है। यहां उनका आशय है कि जिनको तत्वज्ञान की अनुभूति हो जाती है, वह जीवन जगत का सार समझने लगते हैं। 

 

विशेष:

1.ईश्वर की विशिष्ट रचना के रूप में सृष्टि की बात की गई है।

2.मायावाद की झलक से अद्वैतवाद का भी यहां आभास होता है। 

3.पद में अद्भुत रस का परिपाक हुआ है और भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा है। 

4.शैली उपदेशात्मक है।

 

  © डॉ. संजू सदानीरा

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