काह कहूँ सजनी सँग की रजनी नित बीतै मुकुंद को हेरी पद की व्याख्या
काह कहूँ सजनी सँग की रजनी नित बीतै मुकुंद को हेरी।
आवन रोज कहैं मनभावन आवन की न कबौं करी फेरी॥
सौतिन भाग बढ्यौ ब्रज में जिन लूटत हैं निसि रंग घनेरी।
मो रसखानि लिखी बिधना मन मारिकै आपु बनी हौं अहेरी।।
प्रसंग
प्रस्तुत पद रसखान द्वारा रचित है, जो विद्या निवास मिश्र द्वारा संपादित रसखान रचनावली से पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
संदर्भ
कृष्ण को दांपत्य भाव से चाहने वाली एक गोपी कृष्ण को ब्रज में न पाकर सौतिया डाह से कष्ट पाकर याद करते हुए अपनी सखी से जो कुछ भी कहती है, उसी का चित्रण इस पद में हुआ है।
व्याख्या
अपनी सहेली से अपनी पीड़ा को बताते हुए गोपी कहती है कि वह क्या बताए! कृष्ण को ढूंढते-ढूंढते उसकी पूरी रात बीत जाती है। कृष्ण कदाचित रात्रि विश्राम अथवा रास हेतु इस गोपी को मिलते रहे हों और अब नहीं मिल रहे हैं। उसके स्वर में चिंता और भय की आशंका नहीं है क्योंकि उसे कृष्ण की महिमा पर विश्वास है। उसे तो ईर्ष्या है कि वह यहां नहीं आ रहे तो कहीं और जा रहे हैं।
गोपी से श्री कृष्ण ऐसा नहीं है कि बिल्कुल बेलाग हो चुके हैं। वह उसे आने को भी कहते हैं। उसे दुख है कि बार-बार अपने आने की बात कह कर भी कृष्ण आते नहीं है। एक बार भी वह उसकी तरफ़ का फेरा नहीं काट रहे हैं।
उसको इस बात का दुख है कि उसकी सौतन का भाग्य इन दिनों बलवान हो रहा है, जो वह उसके प्रियतम कृष्ण के साथ रति रंग का गहन आनंद ले रही है। रसखान कहते हैं कि वह गोपी अपनी सखी को निराशा के साथ कहती है कि विधाता ने उसके ही भाग्य में यह दुख बदा है कि वह अपना मन मार कर रात-रात भर शिकारी की तरह वन में भटकती है। अर्थात कृष्ण के साथ के कारण दूसरी स्त्री जहां अपने कक्ष में रहकर प्रेम मग्न रहती है वहीं गोपी कृष्ण को वैसे ढूंढती है जैसे शिकारी शिकार की तलाश में भटकता रहता है।
विशेष
1.रसखान इस पद के द्वारा ऐसी नायिका का चित्रण कर रहे हैं जिसका नायक के कारण मन खंडित हो रहा है।
2.इस पद में असूया संचारी भाव का सुंदर चित्रण हुआ है।
3.अनुप्रास अलंकार संपूर्ण पद में अत्यंत मनोहारी तरीके से दिखाई दे रहा है।
4.भाषा ब्रजभाषा है।
5.शैली मनोवैज्ञानिक है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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