कान्ह भए बस बांसुरी के पद की व्याख्या
कान्ह भए बस बांसुरी केअब कौन सखि! हमको चहिहै।
निसद्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै॥
जिन मोहि लियौ मन मोहन को रसखानि सदा हमको दहिहै।
मिलि आऔ सबै सखि! भागि चलैं अब तौ ब्रज में बंसुरी रहिहै॥
प्रसंग
प्रस्तुत सवैया पाठ्य पुस्तक में संकलित “रसखान रचनावली” से लिया गया है। सवैया सुप्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि रसखान द्वारा रचित है जबकि रसखान रचनावली के संपादक विद्या निवास एवं सत्यदेव मिश्र हैं।
संदर्भ
इस सवैये में रसखान ने गोपियों की श्रीकृष्ण की बांसुरी के प्रति अपनी ईर्ष्या को दिखाया है।
व्याख्या
कोई गोपी अपनी सखी से कृष्ण के हमेशा बांसुरी को होठों पर लगाए रखने की आदत से परेशान होकर कहती है कि श्रीकृष्ण तो ऐसा लगता है बांसुरी के ही होकर रह गए हैं। इस कारण अब उनको कौन समय देगा और चाहेगा। गोपी कहती है कि यह बांसुरी तो रात और दिन श्रीकृष्ण के साथ ही लगी रहती है। गोपी शास्त्रोक्त अथवा साहित्य में वर्णित सौतिया डाह से क्यों अपना जीव जलाए! कदाचित गोपियां श्रीकृष्ण और बांसुरी से इस क्रोध एवं जलन के कारण अपना ध्यान हटाना चाहती हैं।
गोपी कहती है कि श्रीकृष्ण सबका मन मोहने वाले हैं। जिस कारण उनका एक नाम मनमोहन भी है। लेकिन यहां तो मनमोहन का मन ही बांसुरी ने मोह लिया है। यह बात गोपी के मन को जलाती है। असूया भाव से पीड़ित वह गोपी अपनी सखियों से कहती है कि सब मिलकर ब्रज छोड़कर भाग जाएं, क्योंकि अब तो ब्रज में बांसुरी ही रहेगी। गोपी की बातों का सार यही है कि या तो यहां बांसुरी रहेगी या गोपियां रहेंगी। अब जब श्रीकृष्ण बांसुरी का साथ छोड़ नहीं रहे तो क्यों न गोपियां ही ब्रज छोड़ दें।
विशेष
1.इस सवैये के माध्यम से रसखान ने आकर्षण का केंद्र (सेंटर आफ अट्रैक्शन) बनने की मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आदत का वर्णन किया है
2.असूया भाव (ईर्ष्या भाव) का यह सवैया सुंदर उदाहरण है।
3.ब्रज भाषा का स्वाभाविक सौंदर्य द्रष्टव्य है।
4.माधुर्य भाव की भक्ति के साथ उपालंभ शृंगार को भी देखा जा सकता है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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