एकांकी की परिभाषा और उसके तत्त्वों की विवेचना
हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में भारतेंदु युग माना जाता है। भारतेंदु युग में हिंदी का पहला उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ ही नहीं लिखा गया, बल्कि काव्य और उसमें विशेषतः गद्य का अच्छा विकास हुआ। लेकिन निबंध नाटक आदि गद्य विधाओं को जहां एक दिशा मिली, वहीं एकांकी का उल्लेखनीय विकास उस युग में नहीं हो सका। अस्तु ‘हिंदी एकांकी का इतिहास उतना प्राचीन नहीं,जितना हिंदी नाटकों का’।
हिंदी में एकांकी अपेक्षाकृत एक नई गद्य विधा एवं एक तरह से नाटक का भी परिष्कृत,संशोधित और लघु रूप है। आज के वैज्ञानिक युग में सब किसी न किसी लक्ष्य की ओर बेतहाशा भाग रहे हैं और किसी के पास मनोरंजन के लिए अतिरिक्त समय नहीं है। ऐसे में एकांकी नाटक की अपेक्षा कम समय और स्थान लेकर रचा और मंचित किया जा सकता है। यूं तो एक+अंकी के शब्द संयोजन के अनुसार इसे एक अंक में सामान्य दृश्य काव्य कह सकते हैं, परंतु यह एकांकी का अपूर्ण स्वरूप बोध ही समझा जाएगा।
एकांकीकारों ने इसे अपने विशेष दृष्टिकोण से इसके अलग-अलग तत्त्वों पर ज़ोर देते हुए इसकी विभिन्न परिभाषाएं दी हैं, कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्न हैं–
1.डॉक्टर रामकुमार वर्मा-
“एकांकी में विचार के अभाव में प्रत्येक घटना पुष्प की भांति विकसित हो उठती है, उसमें लता के समान फैलने की दक्षता नहीं होती।”
2.डॉ नागेंद्र-
“एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन न मिलकर उसके एक पहलू, एक विषय, विशेष परिस्थिति अथवा एक उदित क्षण का विवेचन मिलेगा। उसके लिए एकाग्रता अनिवार्य है, किसी भी प्रकार का वस्तु विभेद सही नहीं है।”
3.सिडनी बॉक्स-
“एकांकी साहित्य की वह नियंत्रित और संयमित विधा है जिसमें एक ही घटना को इस प्रकार अभिव्यक्त किया जाता है कि उसके प्रभाव से एक प्रकार से पाठकों और दर्शकों का मन आकर्षित और आक्रांत हो जाए।”
एकांकी के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्न हैं–
1.कथावस्तु-
यह एकांकी रचना प्रक्रिया का मूल आधार है। इसी के माध्यम से चरित्र की सृष्टि और विकास होता है। एकांकीकार इतिहास,राजनीति,धर्म,समाज इत्यादि क्षेत्रों से कथावस्तु चुनकर एकांकी की रचना करता है। इसके साथ यह भी अनिवार्य है कि उस कथावस्तु को वह जीवन के सामाजिक संदर्भों से भी संबद्ध करके दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करे। कथानक में रोचकता और विस्मय आदि गुणों का समावेश होना चाहिए।
कथावस्तु के निम्न पांच भाग हैं–
(1)प्रारंभ
(2)नाटकीयता
(3)द्वंद्व
(4)चरम सीमा
(5)परिणति (फल प्राप्ति)
इन्हीं के फलस्वरुप एकांकीकार दर्शकों पर अपना अपेक्षित प्रभाव छोड़ने में समर्थ होता है।
2. कथोपकथन (संवाद)-
यह एकांकी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एकांकीकार इसी के माध्यम से चरित्र का विकास और कथावस्तु का प्रसार करता है। इसकी सफलता इस बात पर निर्भर है कि यह संक्षिप्त एवं सरल कथोपकथन की योजना करें। कथोपकथन के माध्यम से ही पात्रों के अंतर्संघर्ष और पारस्परिक संघर्ष की अभिव्यक्ति होती है। प्रत्येक संवाद सोद्देश्य एवं साभिप्राय होना चाहिए। एकांकी की मूल संवेदना के प्रकटीकरण का मूल माध्यम कथोपकथन ही होते हैं,जिनके द्वारा भाषा जीवंतता प्राप्त करती है।
3.पात्र और उनका चित्रण-
पात्र और उनका चित्रण एकांकी का अन्य महत्वपूर्ण अंग है। एकांकी में एकांकीकार अपने कथानक को मूर्त रूप देने के लिए अनेक पात्रों की सृष्टि करता है। इन्हीं के माध्यम से वह अपने विचारों को अभिव्यक्त करता है। पात्र ही कथा को गति व विकास देते हैं। पात्र योजना के लिए यह अनिवार्य है कि एकांकीकार ऐसे पात्रों का चयन करें जिनका संबंध सामान्य जनजीवन से हो। एकांकी का प्रमुख पुरुष पात्र नायक और प्रमुख स्त्री पात्र नायिका कहलाते हैं।
4. भाषा शैली-
एकांकी लेखन में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। एकांकी में भाषा का सरल होना आवश्यक है, तभी एकांकीकार के विचारों को सही प्रकार से संप्रेषण प्राप्त होता है। एकांकी की रचना में भाषा के साथ-साथ शैली का भी विशिष्ट योगदान होता है। रचना कौशल को ही शैली कहते हैं, एकांकी में सबसे अधिक नाटकीय शैली का प्रयोग किया जाता है।
5. संकलन त्रय-
एकांकी लेखन में संकलन त्रय से आशय है कि एक ही कार्य एक ही समय में एक ही स्थान पर होना चाहिए। जिससे दर्शक उसका संपूर्ण ढंग से आनंद प्राप्त कर सके। दूसरे शब्दों में, कार्य,काल और स्थान की एकता को संकलन त्रय कहते हैं।
6. अभिनय-
एकांकी की सफलता के लिए उसका अभीनेय होना बहुत आवश्यक है। नाट्य गीत एवं हृदय स्पर्शी संवादों के कारण ही अभिनेयता को प्रभावशीलता प्राप्त होती है। एकांकी की रचना अभिनेयता को ध्यान में रखकर ही की जाती है।
7.अंतर्द्वंद्व-
हृदय में परस्पर विरोधी भावों का उत्पन्न होना अंतर्द्वंद्व कहलाता है। जब एकांकी के पात्र किसी विषय अथवा समस्या या उनके विभिन्न पक्षों पर विवाद करते हैं तो उनकी मनःस्थिति संघर्षपूर्ण होती है। अंतर्द्वंद्व वह माध्यम है जिसके द्वारा एकांकीकार पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण करता है इसीलिए एकांकीकार को इस ओर विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए।
8. उद्देश्य-
साहित्य में रची गई प्रत्येक रचना पाठकों एवं दर्शकों के लिए एक उद्देश्य प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार एकांकी भी एक विशिष्ट एवं सफल उद्देश्य प्रस्तुत करता है । सफल एकांकी वह है जो अपने उद्देश्य का सांकेतिक ढंग से कथन करके समाप्त हो जाए।
9. रंग संकेत-
रंग संकेत भी एकांकी का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एकांकी में प्रयुक्त वस्तुएं एवं आए हुए पात्रों की वेशभूषा के रंगों के संबंध में रंग संकेत के अंतर्गत ही दिशा निर्देशन किया जाता है।
10. दृश्य विधान-
एकांकी में एकांकीकार के लिए यह भी विचारणीय प्रश्न है । दृश्य अधिक बड़े नहीं होने चाहिए। इसके साथ ही एकांकी में समाप्य दृश्य आगामी दृश्य की घटनाओं का संकेत करें यह भी आवश्यक तथ्य है।
11. ध्वनि विधान-
एकांकी में आए हुए पात्रों एवं उपकरणों के लिए ध्वनि संबंधित नियम तय करना ध्वनि विधान के अंतर्गत आता है।
12. प्रकाश व्यवस्था-
एकांकी की कथावस्तु के अनुसार किसी दृश्य में मंच के किस कोने में किन पात्रों पर कितना और किस रंग का प्रकाश रखना है, यह देखना भी सफल एकांकी के लिए आवश्यक होता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सफल एकांकी लेखन के लिए वस्तु,पात्र,संवाद,अभिनय एवं संकलन त्रय इत्यादि के साथ ध्वनि,प्रकाश,रंग इत्यादि तत्त्वों का समुचित निर्वहन अत्यंत आवश्यक है।
© डॉ. संजू सदानीरा
हिंदी नाटक का उद्भव और विकास : Hindi Natak ka udbhav aur vikas