उर में माखन चोर अड़े पद की व्याख्या

उर में माखन चोर अड़े पद की व्याख्या

 

उर में माखन चोर अड़े।

अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े॥

जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छँड़े।

वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े।

को वसुदेव, देवकी है को, ना जानै औ बूझैं।

सूर स्यामसुंदर बिनु देखे और न कोऊ सूझैं॥

 

प्रसंग

उर में माखन चोर अड़े  पद सूरदास रचित “सूरसागर” के “भ्रमरगीत” भाग से लिया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित “भ्रमरगीत सार” से इस पाठ को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है।

 

संदर्भ

गोपियां इस पद में उद्धव को श्रीकृष्ण के उनके हृदय से न निकलने का कारण उनकी त्रिभंगी मुद्रा को बता रही हैं।

 

व्याख्या

गोपियों को ब्रह्म (निर्गुण) का ध्यान करने का संदेश देने के लिए मथुरा से श्रीकृष्ण ने उद्धव को ब्रज में भेजा है। गोपियां भाँति-भाँति के तर्कों से उद्धव को परास्त करती हैं।

इस पद में वे कहती हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण अपनी त्रिभंगी मुद्रा में जाकर फंस गए हैं (बांसुरी हाथों में लेकर एक पैर के दूसरी तरफ दूसरा पैर करके खड़े होने की श्रीकृष्ण की प्रसिद्ध मुद्रा को तिरछी होने के कारण त्रिभंगी मुद्रा कहते हैं)। श्री कृष्ण सीधे सरल रूप में उनके हृदय में विराज रहे होते तो निकल भी सकते थे। अब ऐसे तिरछे होकर हृदय में ठहरे हैं तो निकलना मुश्किल है।

उद्धव जब उन्हें कहते हैं कि श्रीकृष्ण अहीर वंशी (ग्वाला जाति से) हैं तो गोपियाँ कहती हैं कि फिर भी वे उन्हें छोड़ नहीं सकतीं। भले अब श्री कृष्ण मथुरा जाकर राजगद्दी पर बैठ गए हैं लेकिन गोपियां तो उनके ग्वाले के रूप पर ही रीझी हुई हैं। वहां बन गए होंगे वह बाहुबली ,महाबली और राजवंशी परंतु गोपियों को आज भी श्रीकृष्ण अपने बीच के ऐसे इंसान लगते हैं, जो उनके साथ खेलते थे, छाछ – दही लेकर खाते थे। गोपियों को नहीं पता कौन वसुदेव हैं? कौन देवकी हैं? अर्थात वे तो नंद-यशोदा को ही जानती हैं।

सूरदास लिखते हैं कि गोपियां उद्धव को कहती हैं कि श्याम सुंदर (श्रीकृष्ण) को देखने के अलावा उन्हें और कुछ भी नहीं सूझता है। बस श्रीकृष्ण के उसी पुराने रूप की झलक मिल जाए , इसके अतिरिक्त उन्हें किसी बात की चाह नहीं।

 

विशेष

1.त्रिभंगी रूप होने के कारण श्री कृष्ण का गोपियों के हृदय में अटक जाना एक अत्यंत रोचक तर्क है जो सूरदास जी की गोपियों की वाग्विदग्धता का द्योतक है।

2.श्रीकृष्ण के राजा रूप के बजाय ग्वाला रूप अधिक प्रिय होना गोपियों के निःस्वार्थ भक्ति का परिचायक है।

3.श्री कृष्ण के जैविक माता-पिता के रूप में देवकी-वसुदेव का नाम आया है।

4.अंत्यानुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

5. भक्ति रस का परिपाक हुआ है।

6. शैली हास्य व्यंग्यात्मक है।

7. भाषा ब्रजभाषा का लौकिक रूप है।

© डॉक्टर संजू सदानीरा

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