आदिकाल की परिस्थितियां
भारतीय साहित्य में हिंदी साहित्य की बात होते ही हिंदी साहित्य के इतिहास की बात होती है और उसके बाद साहित्य के काल विभाजन की बारी आती है ।
हिंदी साहित्य के इतिहासकारों के द्वारा काल विभाजन में आदिकाल अलग-अलग नामों के साथ पहले स्थान पर रखा गया ।आदिकाल को आदिकाल नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दिया ।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को वीरगाथा काल कहा। ग्रियर्सन ने इसे चारण काल तो डॉ रामकुमार वर्मा ने इसे संधि एवं चारण काल नाम दिया।
कहने के लिए यह युग एक प्रकार से हिंदी साहित्य का पहला युग था परंतु यह किसी भी तरह से परंपरा विर्निमुक्त एवं नए कवियों द्वारा निर्मित युग नहीं था ।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार इस युग के कवि परंपरा से बंधे हुए, और काव्य लेखन मैं पारंगत कवि थे ।बस उनके पहले का काव्य साहित्य के इतिहास में दर्ज नहीं होने के कारण उन्हें पहले युग आदिकाल अथवा वीरगाथा काल के कवि होने का गौरव प्राप्त हुआ ।
प्रश्नानुसार आदिकाल, जिसका प्रारंभ हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1050 विक्रम संवत अर्थात 993 ई. से माना, उसकी पृष्ठभूमि (तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक , धार्मिक,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियां )का विवरण अधोलिखित है।
आदिकाल का समय हर तरह से हलचल से भरा एवं अशांत समय था। भारतवर्ष हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद छोटी-छोटी रियासतों में बंट चुका था। देश के अखंड स्वरूप का नाश हो चुका था। मुगलों, यूनानियों एवं अन्य विदेशी आक्रमणों का सिलसिला शुरू हो चुका था। देश तमाम तरह की सांस्कृतिक विचलन और संक्रमण का शिकार हो रहा था और देश जो कि कोई एक अमूर्त अवधारणा मात्रा नहीं है, देश का मतलब वहां निवास करने वाले लोगों से है। ऐसे में जब देश का स्वरूप बदला, ढांचा बदला तो साहित्य तो बदलना ही था। आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो “साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।”
सरल शब्दों में कहें तो साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में जैसे-जैसे सोच बदलती है, साहित्य का स्वरूप भी बदलता चला जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आदिकाल से लेकर भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल तक समस्त साहित्य एक ही ढर्रे पर चल रहा होता जबकि ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है, कि स्पष्टतः जनता की जीवन शैली और सोच का प्रतिबिंबन साहित्य के माध्यम से होता रहता है।
आदिकाल की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि आदिकालीन साहित्यकारों के मानस पर प्रभाव डालने के साथ लेखन के माध्यम से अध्ययन का सुसंगत विषय प्रदान करती हैं।
तत्कालीन समाज छोटी-छोटी रियासतों में बंट कर संकुचित राष्ट्रीयता की भावना को जीवित कर रहा था।देशी रियासतों की फूट और कलह चरम पर था।बाकी विदेशी आक्रमणकारी हमलावरों की तरह आये थे, लूटपाट कर चले गए।मुगल यहीं के होकर रह गये और ये अशांति लगातार आपसी युद्ध में बदलती रही।
गौरतलब है कि बाबर को भारत आने का न्योता राणा सांगा और पंजाब के गवर्नर दौलत खान ने दिया था। उन्होंने इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर की मदद मांगी थी। बाद में बाबर ने भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाली। हुमायूं और अकबर के समय स्थापत्य कला, साहित्य और चित्रकला का अच्छा विकास हुआ। इसके बावजूद शासक वर्ग आसपास की रियासतों से युद्ध में उलझा रहता था। कन्याओं के स्वयंवर से उनका हरण करना, उनके लिए रक्तपात करना, सैनिकों का मारा जाना यह सब आम घटनाएं थीं।
सामंतशाही के कारण जनता त्रस्त थी। जागीरदारी और जमींदारी प्रथा का जोर था, जिसके कारण श्रमिक वर्ग का भयंकर शोषण था। स्त्री की दशा किसी भी धर्म में अच्छी नहीं थी। ब्राह्मणों के धार्मिक कर्मकांड और हिंसा के विरोध में बौद्ध और जैन धर्म का उदय हुआ था। बौद्ध और जैन साहित्य का प्रचुर खजाना आदिकाल में उपलब्ध है। कालांतर में उनमें भी अनेक मत-मतांतर हुए। तांत्रिक और वाम मार्गी साधना ने अलग तरह की मान्यताओं और साहित्य का सृजन किया। सिद्ध, नाथ, जैन, रासो काव्य की अनेक लेखक परिपाटियां इस काल में देखी जा सकती हैं।
साहित्य में उस समय की परिस्थितियों का अंकन पूरी तरह दिखाई पड़ता है। समाज में भयंकर छुआछूत, वैमनस्य, लोभ की संकुचित प्रवृत्ति, स्त्रियों और दलितों पर अत्याचार एवं ज़मीदारी – जागीरदारी का समाज पर प्रभुत्व था। एक राष्ट्र की भावना तब तक विकसित नहीं हुई थी।इस प्रकार समाज की स्थिति पतनोन्मुख थी।
© डॉक्टर संजू सदानीरा