अली पगे रँगे जे रंग सावरे पद की व्याख्या
अली पगे रँगे जे रंग सावरे मो पै न आवत लालची नैना।
धावत है उतही जित मोहन रोके रुकै नहिं घूँघट ऐना ॥
काननि कौ कल नाहि परै सखी प्रेम सो भीजे सुनै बिन बैना।
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छुटै ना॥
प्रसंग
प्रस्तुत पद लोकप्रिय भक्त कवि रसखान रचित है। यहाँ यह पद रसखान रचनावली से लिया गया है।
संदर्भ
सुप्रसिद्ध कवि रसखान रचित इस पद में एक गोपी कृष्ण के प्रति अपने असीम आकर्षण की बात बता रही है।
व्याख्या
गोपी को सुदर्शन कृष्ण के प्रति अदम्य आकर्षण है और वह उस आकर्षण के जादू का कोई तोड़ नहीं जानती है। (वह तोड़ चाहती भी नहीं है।) अपने मन की दशा का परिचय देते हुए गोपी अपनी अभिन्न सखी से कहती है कि उसकी आंखों को बस कृष्ण को ही देखना भाता है। मानो उनके रूप जाल की ये बंदी हो गई हो! उनको निहारने का लोभ ये आंखें छोड़ ही नहीं पातीं। कितना भी रोकने का जतन करें वह रोक नहीं पाती है। चाहे सर पर घूंघट धर ले या आंखों पर अवगुंठन, आंखें उसकी भाग-भाग कर उधर ही जाती हैं, जिधर श्रीकृष्ण दिखाई देते हैं।
उसके कान भी कम दुष्ट नहीं हैं ,उनको भी श्रीकृष्ण की प्रेम भरी मधुर वाणी सुनने की ललक सदा लगी रहती है। श्रीकृष्ण की मीठी वाणी सुनकर उसके कानों को आराम मिलता है। रसखान कहते हैं कि वह गोपी अपनी सखी से बताती है कि उसका हाल तो उन मधुमक्खियां जैसा हो गया है जो अपने ही बने मधु (शहद) में डूबी रहती हैं। उसी प्रकार गोपी ने भी श्रीकृष्ण को अपना परम प्रिय मान लिया और अब उनके अतिरिक्त उसे कोई नहीं भाता।
विशेष
1.रसखान अपने इस पद में कृष्ण-भक्ति के सरस चित्रण से मन को लुभा रहे हैं।
2.अपने प्रिय के प्रति कितना अदम्य आकर्षण होता है- गोपी के माध्यम से रसखान ने यह भी दिखाया है।
3. ब्रजभाषा का सौन्दर्य साक्षात द्रष्टव्य है।
4.शैली मार्मिक और शृंगार रस मिश्रित मधुरा भक्ति का सुंदर संयोग है।
© डॉक्टर संजू सदानीरा
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