अमृता प्रीतम का साहित्यिक महत्त्व : जन्मदिन विशेष 31 अगस्त

अमृता प्रीतम का साहित्यिक महत्त्व: जन्मदिन विशेष 31 अगस्त

 

 
अमृता प्रीतम भारतीय साहित्येतिहास की एक अद्वितीय साहित्यकार हैं। इनका जन्म 31 अगस्त 1919 को और देहांत 31 अक्टूबर 2005 को हुआ था। इन्हें कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार वैषयिक नवीनता और विशिष्ट लेखन शैली के लिए प्रदान किये गये। 
 

अमृता प्रीतम का पारिवारिक जीवन

सिर्फ़ साहिर या इमरोज़ के प्रेम के लिए नहीं जानी चाहिए, लेकिन दुखद है कि यही होता है । हर बार इनके जन्मदिन के बहाने उन प्रसंगों को याद किया जाता है,जो इनके लेखन और जीवन जीने की अटूट चाह के सामने कुछ भी नहीं।
इन्होंने कम उम्र के विवाह को पच्चीस सालों तक निभाने के बाद उससे खुद को अलग किया। दो बच्चों के साथ इमरोज के साथ बिना विवाह के रही। देश-विदेश की तमाम यात्राएं पुरुष साहित्यकारों के साथ अकेले करके चरित्र हनन तक झेले लेकिन अपनी अदा नहीं बदली।
अमृता प्रीतम का छोटे बालों वाली स्टाइल रखना भी किसी हुंकार से कम नहीं लगता। इंदिरा गाँधी की ये अभिन्न मित्र थीं और बहुत से लोग मिलती जुलती शक्ल के कारण इन्हें उनकी बहन समझते थे।

अमृता प्रीतम की रचनाएँ

अमृता प्रीतम ने गद्य एवं पद्य में समान कुशलता के साथ रचा है। इन्होंने कहानियाँ, उपन्यास, निबन्ध, नाटक कविताएं, आत्मकथा, साक्षात्कार एवं पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन सहित साहित्य को विविध रूपों में जिया है। दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज, उनचास दिन, पिंजर, एक थी अनीता, बंद दरवाजा इत्यादि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
“एक थी सारा” इनका पाकीस्तानी शायरा सारा शगुफ्ता के जीवन पर लिखा जीवनीपरक उपन्यास है। “अज आक्खां वारसशाह नूं” इनकी कालजयी कविता है। इनकी रचनाओं में सिस्टरहुड बहुत स्पष्टता से देखा जा सकता है।
अमृता प्रीतम ने लिव इन रिलेशनशिप “नीलमणि” उपन्यास के माध्यम से तब दिखा दिया था इन्होंने और हाँ,सबको उस तरह खुद जी कर भी दिखा दिया था। “जेबकतरे” उपन्यास कॉलेज लाइफ को लेकर लिखा गया है तो “दिल्ली की गलियां” साइकोपैथ पर समझ बढ़ाता है।
“पिंजर” एक तरफ़ विभाजन की त्रासदी को हमारे सामने रखता है तो दूसरी तरफ़ यह उपन्यास हर लड़ाई का कहर औरतों पर टूटते दिखाता है। पूरो का कथन तो जैसे बहनापे को एक नयी गरिमा प्रदान करता है। इनका “बंद दरवाजा” उपन्यास भारतीय परिवारों की घरेलू हिंसा और औरतों के “अपने घर” के प्रश्न को संजीदगी से उठाता है। 
आज इन्हीं अमृता का जन्मदिन है।
 
अमृता प्रीतम को दो तरह के लोगों ने सबसे ज़्यादा पसंद किया।एक वो जो प्रेम की पीर और स्त्री जीवन की वेदना से पगे हों, दूसरे वे,जिनकी रुचि अध्यात्म और ज्योतिष में हो।मैं पहले प्रकार के पाठकों में हूं।मेरा प्रेम अमृता के लिए दिनों दिन बढ़ता गया। औरत की पीड़ाओं के अलग-अलग रूप उनके उपन्यासों और कहानियों में देख सकते हैं।
देश का विभाजन कैसे महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा त्रासदीपूर्ण था ये आप उनके पिंजर उपन्यास में देख सकते हैं। ऑनर किलिंग पर उनका उपन्यास है-आक के पत्ते। उम्र के लंबे फासलों के बावजूद प्रेम हो जाने पर आधारित है उनका उपन्यास जलावतन। साम्प्रदायिक सद्भाव पर उनके उपन्यास हैं-तेरहवां सूरज और उनचास दिन।
सायकोपैथ, लड़कियों का पीछा करना,हत्या बलात्कार,बेमेल विवाह,अनाथ बच्चों का अकेलापन सब अमृता प्रीतम के उपन्यासों और कहानियों में है। मैं सब जानता हूं, फेरों का भाड़ा, हीरे की कनी जैसी कहानियां भी इस तरह की समस्याओं पर लिखी गई हैं।जंगली बूटी,अमाकड़ी जैसी कहानियां प्रेम की टीस का अहसास कराती है।
पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ्ता पर अमृता प्रीतम का जीवनीपरक उपन्यास है-एक थी सारा जो अपनी तरह का अकेला है।आज आखां वारस शाह नूं मार्मिक कविता है उनकी।पिंजर की पूरो का ये कहना कि इस पूरे विश्व में जब भी कोई लड़की सही सलामत अपने घर पहुंच जाए तो समझना कि पूरो भी अपने घर पहुंच गई, उसके बहनापे के वैश्विक भाव को दर्शाता है।
 

अमृता प्रीतम को प्राप्त पुरस्कार एवं सम्मान

अमृता प्रीतम को उनके काव्य संकलन सुनेहेड़े के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला, जिसको प्राप्त करने वाली ये प्रथम महिला थीं। इनको अपनी काव्य कृति कागज ते कैनवास पर साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। इन्हें 1969 में पद्मश्री एवं 2004 में पद्म विभूषण नागरिक पुरस्कारों से नवाज़ा गया। इसके अलावा भी इन्हें अनेक पुरस्कार एवं सम्मान न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में प्रदान किए गए।
बहुत कुछ है,जो एक पोस्ट में नहीं समेटा जा सकता। साथ ही यह भी कि अंधी श्रद्धा न होना भी हमारे तार्किक होने का प्रमाण है।जीवन के आखिरी सालों में अमृता प्रीतम का रुझान जिन विषयों और विचारों की तरफ हो गया था, उनको छोड़ दूं तो बहुत कुछ है, जिससे मैं प्रभावित हुई थी।
 

© डॉ. संजू सदानीरा

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