अमृता प्रीतम का व्यक्तित्व एवं जीवन परिचय
साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्यकार अपने समय के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। एक सच्चा साहित्यकार अपने साहित्य में उसी को व्यक्त करता है,जो तत्कालीन परिवेश में घटित हो रहा होता है लेकिन ऐसे साहित्यकारों की संख्या बहुत कम है,जिन्होनें समाज के नग्न यथार्थ को बेबाकी से अभिव्यक्त करने का दुःसाहस किया हो,अमृताजी उन कुछ अपवादों में से रही हैं जो विवादों से विचलित हुए बिना सृजन में डूबे रहते हैं।
अमृता प्रीतम का प्रगतिशील चिंतन उनके जीवनगत अनुभवों, अभावों एवं संघर्षों से पूर्णतः प्रभावित है । अमृताजी के कृतित्व का यह असाधारण गुण है कि उनके द्वारा लिखित कविताएं हृदय में ऐसी अनुभूति की तरलता उत्पन्न करती हैं कि वे सहजता से हृदय में उतरती चली जाती है और जब वे उपन्यास,कहानी,निबंध अथवा किसी विषय पर संपादकीय टिप्पणी लिखती हैं, तो उनकी भाषा, उनका सर्जक व्यक्तित्व तब एक कवि का-सा आनन्द अपनी रचना में डाल देता है।
उनकी रचनाओं के फूल आश्चर्यजनक रूप से अनेक रंगों में खिलते रहे हैं। जीवन की भोगी हुई कड़वी सच्चाई को नितान्त नवीन प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करना महज अमृता प्रीतम की लेखनी से ही संभव हो सका है। इसका उदाहरण उनकी अनेक रचनाएं हैं। उनके कथा-साहित्य में स्त्री-पुरुष के संयोग-वियोग की मर्म कथाएं तथा समाज से प्रताड़ित स्त्री के चित्र प्रतिबिम्बित होते हैं।
अमृता जी का साहित्य जगत में प्रवेश उस वक्त हुआ जब देश व समाज टूटन व परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा था। जहां एक ओर गांधी जी का असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था,वहीं दूसरी ओर आजाद,भगतसिंह और रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे सक्रिय क्रांतिकारी “इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा बुलन्द कर गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की जी-जान से कोशिश कर रहे थे। सामाजिक रूढ़ियों,अंधविश्वासों एवं विषैले संस्कारों के विरुद्ध सामाजिक चेतना का उदय हो रहा था,जिसमें कुछ प्रगतिशील रचनाकारों का अमूल्य योगदान रहा था। इसके परिणामस्वरूप समाज में एक नयी स्फूर्ति व जागरूकता का उदय हो रहा था ।
अमृता जी भी इन सामाजिक परिस्थितियों से अछूती न रह सकी। जैसा कि स्वयं अमृता जी ने लिखा है -“1947 में देश के विभाजन का समय भी देखा। सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मूल्य कांच के बर्तनों की भांति टूट गए थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में बिछी हुई थी। ये किरचें मेरे पैरों में भी चुभी थी और मेरे माथे में भी। ज़िन्दगी का मुंह देखने की भटकन में मैने उसी तपिश के साथ कविताएं लिखी, जिस तपिश के साथ कोई सोलहवें वर्ष में अपने प्रिय का मुंह देखने के लिये लिखता है।”
जन्म व बचपन :-
जीवन के खोखले मूल्यों और आदर्शों को चित्रित करने वाली तथा ‘असफल प्रेम की सफल लेखिका’ के रूप में प्रसिद्ध अमृता प्रीतम जी का जन्म 31 अगस्त, 1919 में अविभाजित व गुलाम भारत के जिला गुजरांवाला (पंजाब) में हुआ था ।
माता-पिता :-
अमृताजी की माँ का नाम राज बीबी या राजकौर था तथा पिता का नाम कर्तार सिंह हितकारी था,संन्यास जीवन में प्रवेश करने पर उन्होंने अपना नाम नंद साधू रख लिया था। अमृता जी उन कुछ खुशनसीबों में से थीं जिन्हें शिक्षित माता-पिता मिले थे। उनके माता-पिता,दोनों पंचखण्ड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। विवाह के पूर्व अमृताजी के पिता संत दयाल सिंह के डेरे में ‘बालका साधू’ या ‘नंद साधू के नाम से वैराग्य धारण कर काव्य-सृजन में संलग्न थे। संतजी के आदेश से उनकी माता के साथ उनका विवाह हुआ।
वे जब 11 वर्ष की थी. उनकी माँ का देहान्त हो गया था। उनकी माँ के देहान्त ने उनके बचपन को प्रभावित किया, जिसका प्रभाव उनकी कुछ रचनाओं में भी दृष्टिगोचर होता है।माँ के देहावसान के पश्चात् उनका पालन-पोषण उनके पिता ने ही किया।
जीवन-मूल्यों और लेखन कला के संदर्भ में वे अपने पिता से बहुत प्रभावित हुईं। उनका पालन-पोषण ही नहीं वरन् उनका संस्कारिक बीजारोपण भी उनके पिता ने किया।अमृता जी ने स्वयं अपने सर्जक व्यक्तित्व के निर्माता के रूप में अपने पिता को स्वीकार किया है। अपने पिता से उन्हें बचपन में ही संस्कृत के महान कवियों एवं साहित्यकारों का परिचय मिल गया था। बचपन में उन्होनें जब कभी अपने घर की धरती पर किताब का कोई पृष्ठ पड़ा देखा तो अपने पिता को उसे बड़े अदब से उठाते देखा । यदि भूलवश कभी उनका पांव किसी पृष्ठ पर पड़ जाता तो उन्हें अपने पिता का कोपभाजन बनना पड़ता था।
गुरूवाणी के प्रकांड विद्वान काहन सिंह जी और अन्य कई विद्वान पुरुष उनके पिता के मित्र थे। संस्कृत के प्रकांड पंडित दयाल जी उनके पिता के गुरू थे। उनके घर में पिता के गुरुजी व अन्यान्य विद्वद्जनों की तस्वीरें टंगी हुई थी जिनसे अमृता जी के मन पर भी विद्या,बुद्धि और साहित्यकारों के विभिन्न व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी। इतना ही नहीं उनके पिता उन्हें छोटी-छोटी शब्दावली में कविता लिखना सिखाते तथा उनकी कविताओं की भूल सुधार कर उन्हें और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करते परन्तु यहां याद रखने की बात यह है कि उनके पिता का झुकाव अमृता जी को धार्मिक कविताओं के साथ जोड़ने में था।
किसी स्वतंत्र रचना को प्रश्रय उनसे अमृताजी को नहीं मिला। बचपन के साथी और खेल-खिलौनों से अमृता का वास्ता नही के बराबर रहा। आँख मिचौली खेलने की उम्र में वे पिता के साथ आँखें बंद कर तथाकथित ईश्वर के ध्यान में बैठा करती थीं,जिसे माँ की मृत्यु के बाद महीनों नहीं बल्कि सालों तक इन्होंने टाला, क्योंकि इन्हें लगता था कि जब ईश्वर ने इनकी माँ को स्वस्थ कर देने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया तो ये उनका ध्यान क्यों करें।
किसी चेहरे का तसव्वुर और दूसरा “अक्षरों का अदब” दो ऐसे बीज थे जो कि बाल्यावस्था में ही अमृता जी के मन में उग गए थे। फिर विश्वास टूटे और ऐसे टूटे कि इनका नामोनिशान तक नहीं रहा। परन्तु कुछ समय बाद ही अमृता जी के मन की सूखी मिट्टी में से इनकी कोपलें निकली, टहनियाँ बनी और बाद में वटवृक्ष के रूप में स्थापित हो गई। कुल मिलाकर पिता से इन्हें अक्षरों, शब्दों और कविताओं का परिचय मिला, विद्वानों से मिलने का मौका मिला तो दूसरी तरफ उनके अंदर के साहित्यकार ने अपने हिसाब से अपने को गढ़ना शुरू कर दिया। अमृता प्रीतम की रचनाओं के बारे में जानने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें-
https://www.duniyahindime.com/2023/07/Amrita%20Pritam%20ki%20rachnaye.html
शिक्षा :-
प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने 1932 में विद्वानी की परीक्षा उत्तीर्ण की, 1933 में ज्ञानी पास कर ली। फिर इन्होनें एम.ए. की तैयारी की किन्तु परिस्थितिवश परीक्षा में नहीं बैठ सकी, लेकिन योग्यता डिग्रियों की मोहताज नहीं होती है। उनकी योग्यता उनकी रचनाओं से अभिव्यक्त होती है। उनकी योग्यता को पहचानते हुए उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय,जबलपुर विश्वविद्यालय,पंजाब विश्वविद्यालय और विश्व भारती विश्वविद्यालय ने डि.लिट्. की. मानद उपाधि से सम्मानित कर साहित्य-जगत को गौरवांवित किया।
संस्कार :-
भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक के व्यवहारिक व मानसिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए कुल 64 संस्कारों की अवधारण सृजित की थी,जिनमें से अब सिर्फ 16 संस्कार ही प्रचलित है,परन्तु यहाँ तात्पर्य उन 16 संस्कारों से नहीं है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संस्कार एक पृथक और सर्वथा नवीन अवधारणा को ग्रहण कर चुका है। अमृता प्रीतम के संदर्भ में संस्कारों से तात्पर्य पूर्व प्रचलित विचारधारा से पूर्णतया भिन्न है। संस्कार को मनुष्य के सोचने, समझने, कार्यों के संपादित करने के तरीके,खान-पान की आदतें और पहनावा आदि सब मिलकर आकार देते है।
बचपन में अमृता जी ने अपने पिता के बताये रास्ते का अनुसरण किया और उनके साथ सभी आध्यात्मिक,धार्मिक क्रिया-कलापों को मनोयोगपूर्वक किया परन्तु जब माँ को स्वस्थ कर देने की एक प्रार्थना इनके ईश्वर ने अस्वीकृत कर दी तो शनैः-शनैः इन्होनें भी उससे विमुख होना प्रारम्भ कर दिया जैसा कि इन्होंने “रसीदी टिकट” में लिखा है। धीरे-धीरे इनकी स्वतंत्र सोच विकसित होने लगी और युवावस्था तक आते-आते इनके अपने कुछ स्वतंत्र मूल्य व संस्कार पूरी तरह स्थापित हो चुके थे, जिसके परिणामस्वरूप इन्होंने विवाह को बंधन माना और इस बंधन को लगभग 24 वर्षो के पश्चात् तोड़ा हालांकि इस विवाह विच्छेद के पीछे आपसी मानसिक मतभिन्नता थी।
विवाह विच्छेद के पश्चात् इन्होंने विवाह पूर्व संबंध (धरती सागर सीपियाँ उपन्यास) की पक्षधरता,विवाह के बगैर साथ रहना(नागमणी उपन्यास) और सिस्टम की बदहाली(दिल्ली की गलियां) पर प्रतिक्रिया जाहिर कर प्रकारान्तर से अपने ही संस्कारों का प्रकाशन किया है। स्पष्ट है कि संस्कार अमृता की दृष्टि में खुद के लिए खुद के गढ़े होते थे,न कि समाज प्रदत्त ।
जीवन संघर्ष :-
किसी समय अमृता प्रीतम और संघर्ष एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे।
अमृता जी को बचपन से ही कठिन संघर्षों का सामना करना पड़ा। ये संघर्ष किसी एक रूप में नहीं थे।अमृता जी को धार्मिक,सामाजिक तथा आर्थिक तीनों स्तरों पर संघर्ष का सामना करना पड़ा। माता-पिता से विरासत में सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं मिला था क्योंकि इनके पिता स्वयं बैरागी थे।
15 वर्ष की नाजुक उम्र में इनकी सहमति के बगैर इनका विवाह कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप इनका वैवाहिक जीवन भी 24 वर्षों तक संघर्षमय स्थिति से गुजरने के बाद दुखद अंत को प्राप्त हुआ। अमृता प्रीतम के जीवन में इमरोज के आने के बाद अमृता जी को धार्मिक और सामाजिक स्तर पर भी संघर्ष का सामना करना पड़ा,क्योंकि ये (लिव इन) पारम्परिक भारतीय मूल्यों को खुली चुनौती थी।
आर्थिक स्तर पर भी अमृता जी को बचपन में, विवाह विच्छेद के पश्चात् एवं इमरोज के साथ पूर्वार्द्ध के हिस्से में कठिन आर्थिक दौर से गुजरना पड़ा जिसकी पुष्टि इनकी आत्मकथा (रसीदी टिकट) से होती है कि किस प्रकार इन्होंने आर्थिक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए,आकाशवाणी की छोटी-सी नौकरी की और बाद में उन आर्थिक कठिनाईयों पर विजय प्राप्त की ।
अमृता प्रीतम को अपनी लेखन यात्रा के दौरान अपने समकालीन साहित्यकारों की आलोचनाओं का भी शिकार होना पड़ा। उनके द्वारा इनके व्यक्तिगत जीवन,इनकी रचनाओं और सामाजिक जीवन तक पर घटिया आलोचनात्मक टीका-टिप्पणी किए जाने से इन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित होना पड़ा। स्त्री होने का खामियाजा भी इन्हें कदम-कदम पर भुगतना पड़ा। विशेष तौर पर अपने चरित्र को लेकर विभिन्न आरोपों का सामना इन्हें करना पड़ा।
इस संबंध में उन्ही की एक पंक्ति उद्धृत करती हूँ-“मैं सदा यही सोचती थी कि मेरी कविताओं तथा कहानियों ने अगर किसी का कुछ संवारा नहीं,न सही,मैंने इसके लिए किसी मान्यता की चाह कभी नहीं की। अगर आयु के बरस गंवाये है तो अपनी,पर मेरे समकालीन इस प्रकार लाल-पीले रहते हैं कि जैसे उनकी उम्र खो गई है!”
जीवन के अन्तिम समय में भी इन्हें भीषण शारीरिक वेदनाओं के लम्बे दौर से गुजरना पड़ा।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अमृता जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण रहा, जैसे कि इनके उपन्यास के अधिकांश पात्रों का रहता है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इन्होंने इन संघर्षो का चुनौती समझकर सफलतापूर्वक सामना किया। इन्हें साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ सहित सैकड़ों पुरस्कार प्राप्त हुए और इनकी कृतियों का देश- विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद होना इनकी कालातीत सफलता को दर्शाता है।
© डॉ. संजू सदानीरा
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