अदृश्य व्यक्ति की आत्महत्या एकांकी का सारांश : Adrishya vyakti ki atmhatya ka saransh

  अदृश्य व्यक्ति की आत्महत्या एकांकी का सारांश 

अदृश्य व्यक्ति की आत्महत्या एकांकी विपिन कुमार अग्रवाल द्वारा लिखी गई है। विपिन कुमार अग्रवाल नाटक और एकांकी साहित्य की दुनिया में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नाम है। हालांकि संख्या में इनके नाटक और एकांकी अधिक नहीं हैं,परन्तु विषय-वस्तु की दृष्टि से बहुत ही समसामयिक और चर्चित हैं।

उनके नाटक उस दौर के हैं,जब हिन्दी नाटक अपने लघु आकार में हिन्दी रंगमंच पर नए प्रयोगों के रूप में आ रहा था। विपिन कुमार अग्रवाल ने मानव स्वभाव और समाज की विसंगतियों को नाटकों का आधार बनाया और विसंगति (एब्सर्ड) नाटकों का एक इतिहास बनाने और हिन्दी रंगमंच पर प्रयोगशीलता को समृद्ध करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

‘विसंगति’ या एब्सर्ड का मतलब होता है- निरर्थक,बेतुका या संदर्भहीन। “अदृश्य व्यक्ति की आत्महत्या” एक एब्सर्ड एकांकी है, जिसका अर्थ है- अर्थहीन, ऊल-जुलूल या बेहूदा, जिसे विपिन अग्रवाल ने बड़ी कारीगरी के साथ प्रस्तुत किया है। 

आज के सभ्य समाज में हम ऐसी स्थितियों में फंसे हुए है जो बेकार है। ऐसा व्यवहार करने को मजबूर हैं,जो बेहूदा है और ऐसी बातें करते हैं,जिनका कोई अर्थ नहीं निकलता है। इस एकांकी में इन बातों को तीव्रता बोध के साथ दिखाया जाता है। ज़िन्दगी की इसी ऊब, इस ढोंग और मशीनीपन को अग्रवाल जी ने अपने नाटक में बड़े सुन्दर ढंग से दिखाया है।

यहां मोती धीरज को उस समय तक नहीं पहचानता जब तक कि वह “बाक़ायदा” नहीं आता । एकांकी की शाब्दिक अभिव्यंजना अनोखी है। एकांकी में मोती और धीरज बातचीत के दौरान “इधर-उधर, इधर, उधर-इधर, इधर-उधर” शब्दों का अनेक बार प्रयोग करते हैं, कि उनकी बातचीत बेतुकी और बेमतलब है जबकि ये कुछ भी संदर्भहीन नहीं है। 

 एकांकी में देश की वर्तमान दशा का लाक्षणिक चित्रण किया गया है। देश के राजनेता भी बिना मतलब की बात और झूठ बोलते हैं। एकांकी के प्रस्तुतीकरण और भावाभिव्यक्ति में अनूठी ताजगी है। एकांकी में जब भी कोई व्यक्ति झूठ बोलता है, तो अदृश्य व्यक्ति उसको थप्पड़ मारता है और उसके चेहरे पर चढ़े मुखौटे को उतार देता है।

इस एकांकी ने बनावटीपन और दिखावटीपन की राष्ट्रव्यापी बीमारी का पर्दाफाश किया है। यह एकांकी प्रथमदृष्टया एकदम असंगत प्रतीत होता है लेकिन अपनी तमाम असंगतियों के बीच में यह समाज और राष्ट्र की वर्तमान दशा को स्पष्ट करते हुए इन्सान के चेहरे पर चढ़े तरह-तरह के मुखौटों को एक-एक कर उजागर करता है और यही एकांकीकार का मुख्य उद्देश्य रहा है। 

अन्त में, यह अदृश्य व्यक्ति इतने मुखौटों से दुःखी होकर स्वयं को थप्पड़ मारता है और मर जाता है अर्थात आज अन्ततः इन्सान की अन्तरात्मा को मरना पड़ता है, क्योंकि इन्सान बहरा ही नहीं, बल्कि अपनी संवेदना को खो कर पूरी तरह निष्प्राण हो चुका है। अब वह बस झूठ की मशीन है,और कुछ नहीं। देश – दुनिया की तमाम नकारात्मक घटनाओं को देखते हुए यह एकांकी सामयिक, प्रांसगिक और पूर्णतः यथार्थ प्रतीत होता है।

एकांकी की तरह आज व्यक्ति,परिवेश,घटनाएँ और दृश्य समझ से परे होते जा रहे हैं। वार्तालाप संदर्भहीन होते जा रहे हैं। रिश्ते ऊलजुलूल होते जा रहे हैं।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के प्रति सरकारी नीतियाँ,राष्ट्रभाषा के प्रति दोहरा व्यवहार परिवार बच्चों के प्रति बदलती मानसिकता और साहित्य के प्रति छिछली दृष्टि इत्यादि विसंगतियों पर पैनी और व्यंग्यात्मक दृष्टि एकांकीकार ने डाली है। सभी संवादों का आपसी तारतम्य एकांकी की ख़ूबसूरती और व्यंग्य को जोरदार ढंग से उभारने में कामयाब रहा है। 

कुल मिलाकर यह एक सफल और स्मरणीय एकांकी तो है ही,वर्तमान परिवेश की संदर्भहीन स्थिति को भी पूरी तरह अभिव्यक्त करता है। 

 

अधिक जानकारी के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ..

https://youtu.be/-LORpOdeSQw?si=Btm3ghWONGmtDcfZ

 

 

 © डॉ. संजू सदानीरा

 

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