अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएं : Ajneya ki kavyagat visheshtayen

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएं : Ajneya ki kavyagat visheshtayen

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएं हिन्दी साहित्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। अज्ञेय का नाम छायावादोत्तर हिंदी कविता में न केवल महत्वपूर्ण है अपितु अनिवार्य भी है। अज्ञेय ने साहित्यिक प्रगतिशीलता के पुरोधा बनकर नई कविता और प्रयोगवाद की नींव डाली। उनका संपूर्ण काव्य अपनी विकास यात्रा में छायावादी तत्त्वों से प्रयोगवाद और नई कविता तक के तत्त्वों को समाहित किए हुए है।

उन्होंने नवीन भावभूमि,बौद्धिक अनुभूति,सौंदर्य बोध के नए धरातल और व्यक्तिवादी आस्था-अनास्था से प्रेरित अंतर्द्वंद्व को नवीन प्रतीक और अर्थगर्भित शब्दावली से व्यक्त किया है। अज्ञेय के काव्य में जो मौलिकता और ताजगी उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

कहीं-कहीं उनकी नवचेतना किंचित आध्यात्मवादी भी प्रतीत होती है। कुछ रचनाओं में ऐसा भी लगता है कि इनका व्यक्तिनिष्ठ आत्मदर्शन उपासना की ओर मुड़ रहा है। प्रश्नानुसार आगे की काव्य की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों (विशेषताओं) को अधोलिखित बिंदुओं के माध्यम से रेखांकित किया जा सकता है।

1. सतत सत्यान्वेषण-

अज्ञेय के काव्य की प्रथम प्रवृत्ति सतत सत्यान्वेषण है। उनकी समस्त सर्जना सत्य की खोज प्रतीत होती है। उनके प्रारंभिक काव्य में इस खोज के संकेत मिलते हैं और बाद में तो वह यह भी लिख गए हैं कि जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।

 उदाहरण- 

“मौन भी अभिव्यंजना है 

  जितना सच है उतना ही कहो।”

 

2. आत्मनिष्ठा-

अज्ञेय-काव्य की दूसरी प्रवृत्ति आत्मनिष्ठा की है। उनके काव्य में व्यक्तिनिष्ठा चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है। अंतर्मुखी चेतना के कवि अज्ञेय ने अपने नितांत व्यक्तिगत क्षणों में जिन अनुभूतियों को भोगा है उन्हीं का चित्रण अपने काव्य में भी किया है। इन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ही उनके काव्य का प्रमुख विषय है।

साथ ही यह भी सच है कि अज्ञेय कोरे अहंवादी या असामाजिक भी नहीं हैं। उन्होंने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक परिवेश के मध्य कुछ प्रतीकों द्वारा आपसी संबंधों की प्रतीति भी कराई है, जो कवि के असामाजिक होने के आरोप का खंडन करती है। 

उदाहरण-

 “यह दीप अकेला स्नेह भरा 

   है गर्व भरा मदमाता पर 

    इसको भी पंक्ति को दे दो।”

 

3. बुद्धि तत्त्व का प्राधान्य-

अज्ञेय ने छायावाद की कोरी भावुकता के स्थान पर बुद्धि तत्त्व को प्रधानता दी है। इन्होंने विवेक के सहारे जीवन सत्य को आत्मसात करके अभिव्यक्त किया है।

उदाहरण- 

ईश्वर

एक बार का कल्पक

और सनातन क्रान्ता है:

माँ—एक बार की जननी

और आजीवन ममता है:

पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से

हम में यह क्षमता है

कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में

अपने को अनुक्षण जनते चलें..”

 

4.क्षणवाद-

अखंड काल के प्रवाह में वर्तमान क्षण का महत्त्व सर्वाधिक है तथा अज्ञेय के अनुसार वही ग्राह्य और योग्य है। कवि की आस्था क्षण विशेष की अनुभूति और व्यक्ति के प्रति है। कवि का यही दृष्टिकोण उन्हें कहीं-कहीं योगवादी बना देता है।

उदाहरण- 

“फूल को प्यार करो और 

जो झरे तो उसे घर जाने दो 

जीवन का रस लो 

देह, मन, आत्मा की रसना से 

और जो मरे उसे मर जाने दो”

 

5. दुःखवाद-

अज्ञेय के काव्य में दुःखवाद की प्रवृत्ति उदात्त के रूप में पाई जाती है। उनके काव्य में व्याप्त वेदना की व्यंजना मन को छू लेने वाली है। कहीं-कहीं वेदना संबंधी सिद्धांत भी व्यक्त हुए हैं। उनके अनुसार यदि अहम् पिता है तो वेदना माता। दुख ही मनुष्य को मांजता है, इस भाव को व्यक्त करने वाला निम्न उदाहरण देखिए।

“दुःख सबको मांजता है

स्वयं चाहे मुक्ति देना वह न जाने 

किन्तु जिनको मांजता है 

उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।”

 

6. वर्ण्य विषय की व्यापकता-

अज्ञेय के काव्य की विषय वस्तु बहुत व्यापक है। प्रणय, प्रकृति, दैनिक जीवन और युग जीवन से लेकर अत्यंत छोटी-छोटी वस्तु तक का चित्रण उनकी कविताओं में किया गया है।

उदाहरण-

तुम्हारे नैन

पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं

अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।

(मानो विधाता के हृदय में

जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित।)

 

‘बावरा अहेरी’ की ‘देहवल्ली’ में वे लिखते हैं,

“देहवल्ली रूप को 

एक बार बेझिझक देख लो 

पिंजर है, पर मन इसी से उपजा है 

जिसकी उन्नत शक्ति आत्मा है।”

 

7. परिवेश की यथार्थता-

अज्ञेय के काव्य की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि कवि अपने परिवेश के प्रति जागरुक है। लोक संप्रक्ति की यह भावना अज्ञेय के काव्य में अनेक स्तरों पर उद्घाटित हुई है। राष्ट्रीयता जीवन के कटु तिक्त प्रसंग राजनीति में जमा होते जाते कूड़े करकट और यांत्रिक व कृत्रिम जिंदगी पर कवि ने गहरा व्यंग्य किया है। उनके द्वारा लिखित गांव के रात्रि कालीन परिवेश का यह बिम्ब अत्यंत प्रभावशाली बन पड़ा है।

झींगुरों की लोरियां 

सुला गई थी गांव को 

झोपड़ी हिंडोलो से झूल रही 

धीमे-धीमे कपासी धूप डोरियां। “

 

8. सौंदर्यानुभूति-

अज्ञेय प्रणय और सौंदर्य को बराबर अपने काव्य में स्थान देते रहे हैं। उनकी सौंदर्यानुभूति सूक्ष्म और कलात्मक है। प्रेमपूर्ण भावों की अभिव्यंजना में कवि का सौंदर्य बोध भी स्पष्ट होता गया है। प्रकृति निरूपण में तो उनके सौंदर्य बोध को देखा ही जा सकता है, स्वतंत्र रूप से भी उन्होंने नारी सौंदर्य की अनाघ्रात छवियां प्रस्तुत की हैं।

नख-शिख कविता में भी अज्ञेय ने रूपांकन के लिए पारंपरिक उपमानों को भी नए सौंदर्य प्रदान किए हैं। उनके समस्त काव्य संग्रह में अनेक विषयों की अनुभूत मार्मिक अभिव्यक्तियां देखने को मिलती हैं। प्रेम, प्रकृति समय, संबंध सभी का उदात्त और व्यापक रूप यहां मिलता है।

उदाहरण-

समय क्षण-भर थमा सा

फिर तोल डैने

उड़ गया पंछी क्षितिज की ओर

मद्धिम लालिमा ढरकी अलक्षित।

तिरोहित हो चली ही थी कि सहसा

फूट तारे ने कहा- रे समय,

तू क्या थक गया?

रात का संगीत फिर

तिरने लगा आकाश में।

 

9. प्रकृति चित्रण में मौलिकता-

अज्ञेय की सौंदर्य अनुभूति का एक पक्ष सीधा प्रकृति के आंचल से जुड़ा हुआ है। उनकी प्रकृति से गहरी मैत्री है । उन्होंने प्रकृति के सूक्ष्म व आकर्षक चित्र प्रस्तुत किए हैं। उनके प्रत्येक काव्य संकलन में प्रकृति के आकर्षण बिम्ब अनुभूतियों से सजे हुए दिखाई देते हैं। रात, शाम, आकाश, सागर, चांदनी इत्यादि के नितांत नूतन चित्र अज्ञेय ने खींचे हैं। 

उदाहरणार्थ ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ , ‘क्योंकि मैं जानता हूं’ संग्रह की कविता की पंक्तियां,

“यह सब आए मेला जुट गया 

यही मैं नहीं जान पाया कि 

इस पंचमेल भीड़ में 

वह एक समाज कहां छूट गया 

और जिसमें पहचानना था 

देश का चेहरा वह आइना कहां टूट गया”

 

10. युग चित्रण-

बिम्ब और प्रतीकों की सहायता से किया गया अज्ञेय का युग चित्रण अपनी सानी नहीं रखता। उदाहरणार्थ उनके ‘सांप’ कविता में युग जीवन में व्याप्त सभ्यता के जहरीलेपन का चित्रण व्यंग्यात्मक शैली में किया गया है। आज की नागरिक सभ्यता सांप से भी ज्यादा जहरीली हो गई है, इस भाव को अज्ञेय ने यूं अभिव्यक्त किया है..

साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डँसना–

विष कहाँ पाया?”


11. कुंठा एवं घुटन का चित्रण-

अज्ञेय ने अपने काव्य में कहीं-कहीं कुंठा और घुटन के उत्कृष्ट भाव को काव्य रूप दिया है। ‘अंतः सलिला’ एक ऐसी ही कविता है। वह रेत में दबी पड़ी नदी और कोई नहीं एक ऐसी परित्यक्त, उपेक्षित और प्रायश्चित आत्मा है, जो सबकी प्यास बुझाती रहती है और सबको सुख और शांति प्रदान करती है, किंतु कोई उसकी परवाह नहीं करता। इसी ‘अंतः सलिला’ का एक हृदयद्रावक चित्रण देखिए।

“अरे, अंतः सलिल है रेत:

अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम

फिर भी घाव अपने आप भरती,

पड़ी सज्जाहीन,

धूसर-गौर,

निरीह और उदार!”

 

12. नव रहस्यवाद-

कवि ने प्रकृति के रूप में विराट आत्मा से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कहीं-कहीं नव रहस्यात्मक अनुभूतियों को भी वाणी दी है, जिसमें कभी-कभी तो कवि नए प्राण पाने को प्रकृति के साथ पूर्ण तादात्म्य में स्थापित कर लेता है तो कहीं प्रकृति के सन्नाटे में उसने मौन भी साध लिया, जिसने उसे आत्म-साक्षात्कार करवाया।

मैं सोते के साथ बहता हूं 

पक्षी के साथ गाता हूं 

वृक्षों के कोंपलों साथ थरथराता हूं 

और इस अदृश्य क्रम में भीतर ही भीतर 

झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूं 

नए प्राण पाता हूं।”

 

13. अभिव्यंजना कौशल और काव्य-

नवीन वर्ण्य विषयों और प्रयोगवादी धारणा को लेकर चलने वाले अज्ञेय ने शैली और शिल्प का भी निरंतर परिमार्जन किया है। अज्ञेय के शिल्प का अध्ययन भाषा, अलंकरण, बिम्ब और प्रतीक आदि के माध्यम से किया जा सकता है।

नवीन छंदों के सृजन में निराला के साथ इनका नाम अग्रगण्य है। इन्होंने तो साफ घोषणा की है-

“ ये उपमान अब मैले हो गये हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच

कभी बासन अधिक घिसने से 

मुलम्मा छूट जाता है। “

कलागत विशेषताओं को निम्नवत् देखा जा सकता है-

 

(क) काव्य भाषा-

 अज्ञेय की भाषा में विविधता दृष्टिगोचर होती है। उसमें क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ शब्दावली भी है तो ग्राम्य और देशज शब्दावली भी है और विदेशी शब्दावली भी। कवि ने यहां प्राचीन प्रयोग के आधार पर शब्दावली का चयन किया है वहीं नूतन प्रयोग करते हुए नई क्रियाओं का भी अविष्कार किया है। कवि ने लोकोक्तियां एवं मुहावरों का भी सटीक प्रयोग किया है।

(ख) बिम्ब प्रयोग-

अज्ञेय के शिल्प में भाषा के बाद बिंबो का महत्वपूर्ण स्थान है। अज्ञेय द्वारा निर्मित बिंबो में नवीनता, मौलिकता, औचित्य जैसे गुण पाए जाते हैं।

उदाहरण- 

“पति सेवारत साँझ 

उचकता देख पराया चाँद 

लजाकर ओट हो गई।”

 

(ग) प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग-

प्रतीकों की दृष्टि से भी अज्ञेय का काव्य अत्यंत समृद्ध है विविध क्षेत्रों के लिए प्रति में प्राकृतिक संगीत और भावना प्रधान या विचार प्रति का को अपनाया है अधिकांश प्रत्येक व्यक्तिगत मौलिक और नूतन है। यौन प्रतीक (नए प्रकार का प्रतीक) का एक उदाहरण,

सो रहा था झोंप अंधियारा नदी की जांघ पर..”

 

(घ) उपमान प्रयोग-

अज्ञेय की उपमान योजना भी विशिष्ट और मौलिक है। ‘वे उपमान मैले हो गए’ की अनुभूति से भरा कवि प्रयोग पर अधिक ध्यान देता जान पड़ता है। नवीन उपमानों की दृष्टि से यह पंक्तियां देखिए, 

तनो मत कटी छटी उस बाढ़ सरीखी, 

हरी बिछी घास कलगी छरहरी झालरें की”

अज्ञेय के काव्य में उपमा को विशेष स्थान प्राप्त है, फिर भी मानवीकरण का सौंदर्य भी देखने योग्य है। 

उदाहरण- 

हरियाली बिछ गई ताराई पर 

घाटी की पगडंडी लजाई और ओट हुई 

पर चंचला रह न सकी उझकी ओर झांकी गई”

 

(ङ) छंद प्रयोग-

अज्ञेय के काव्य शिल्प के आयामों में छंद का प्रयोग भी द्रष्टटव्य है। उन्होंने अपने प्रारंभिक काव्य में वर्णिक और मात्रिक छंदों का प्रयोग किया है। बाद में मात्रिक छंद और उसमें भी किंचित बहु प्रचलित छंद भी अज्ञेय के काव्य की संपत्ति है।

रोला, सरसी, सखी, पीयूषवर्ण और शृंगार आदि छंदों का प्रयोग अज्ञेय ने किया है। इतने पर भी सर्वाधिक कुशल प्रयोग मुक्त छंद का किया है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि छायावादोत्तर काल के सर्वाधिक मेधावी और बहुआयामी साहित्यकार अज्ञेय का काव्य एवं शिल्प अनेक विशेषताओं से युक्त और नई कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि काव्य है।


© डॉ. संजू सदानीरा

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