मीराबाई की भक्ति भावना : Meerabai ki bhakti bhawna
मीराबाई की भक्ति भावना सर्वविदित है। मीराबाई राजस्थान की प्रसिद्ध भक्त कवयित्री हैं और वे किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनका जन्म, जन्म स्थान व मृत्यु तिथि भी अन्य संत एवं भक्त कवियों यथा कबीरदास, तुलसीदास और सूरदास की तरह विवादास्पद है। फिर भी मोटे तौर पर माना जाता है कि उनका जन्म विक्रम संवत 1555 ई यानी सन 1498 में हुआ था। मीराबाई के जन्म स्थान को लेकर भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों ने इनका जन्म कुड़की, बाजोली या चौकड़ी ग्राम माना है, तो कुछ ने मेड़ता। कुछ विद्वान इन्हें मीरा तो कुछ अन्य मीराँ संबोधित करते हैं। मीराबाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था।
मीराबाई की भक्ति भावना के साथ ही मीरा की साहसिक जीवन यात्रा उनके पति की मृत्यु के बाद ही शुरू हो जाती है जब उनके परिवार द्वारा उन्हें सती हो जाने के लिए दबाव में लिया जा रहा था। उन्होंने सती होना अस्वीकार करके रूढ़िवादी परिवार और समाज को अपने विद्रोह का प्रथम परिचय दिया था। इससे पहले भी राजघराने की बहू होने के बावजूद उनका कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम सभी को चुभने वाला था।
मीराबाई की अनन्य कृष्ण भक्ति संपूर्ण देश में सुविख्यात है। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व स्त्री-गरिमा, ओज, जोश और विद्रोह की अप्रतिम आभा से प्रकाशित है। तत्कालीन परिवेश में उनका जीवन अपने आप में एक मिसाल है।
बाल्यावस्था में मिली कृष्ण प्रतिमा के प्रति उपजा दाम्पत्य भाव कालांतर में आत्मा के प्रबुद्ध प्रकाश से ज्योतित उस बंधन में परिणत हो गया जो जीव और ब्रह्म (आत्मा व परमात्मा) के बीच मुश्किल से घटित होता है। स्त्री जीवन जनित भेदभाव, पितृसत्तात्मक सोच से उपजी अमानवीय विषमताएं, पति विहीन वैधव्यपूर्ण जीवन की दुखद परिस्थितियां और जीने की ज़िद, पाने की ललक सभी का जीता जागता उदाहरण है मीरा का जीवन। राज घराने का जीवन छूट गया और संतों के साथ परिवार की अनुभूति होना एक प्रकार से “एक्सटेंडेड फैमिली” की अनुभूति कराता है। घूंघट-पर्दे की बाध्यता तोड़कर यात्राएं करना, साधु-संतों के साथ भजन-कीर्तन करना, लंबे सात्विक प्रवचन करना उनकी बहादुरी और ज़िद का परिचय देते हैं।
“बाला! मैं बैरागण हूँगी” कहना मीरा की तरह आज भी स्त्रियों के लिए आसान नहीं है। प्रभु भक्ति को मीरा “राम रतन” कहकर आत्मतुष्टि दर्शा रही हैं। उनके लिए कृष्ण प्रेम “वसत अमोलक” व जन्म-जन्म की पूंजी है। “भज मन चरण कमल अविनाशी” कहकर मीरा भगवान के श्रीचरणों के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा का परिचय देती हैं। चरण कमल भजने वाली मीरा की भक्ति दास्य भाव की नहीं माधुर्य एवं दांपत्य भाव की है।
किंवदंति है कि अंत में मीरा द्वारिकाधीश की प्रतिमा में समाहित होकर अपने आराध्य में अपने आप को विलीन कर देती हैं। कश्मीर की ललद्यद और राजस्थान की मीराबाई भक्त कवयित्रियों में सदैव आकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह सुशोभित एवं स्मरणीय रहेंगी। कृष्ण भक्ति शाखा के भक्त कवियों में मीरा शीर्ष कवियों में परिगणित की जाती है। लोक मानस में उनकी छवि अद्भुत रूप से समादृत है।
© डॉ. संजू सदानीरा
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